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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


मेहता ने आकर कहा–मालूम होता है, धूप लग गयी है।

‘मैं क्या जानती थी, तुम मुझे मार डालने के लिए यहाँ ला रहे हो।’

‘तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं है?’

‘क्या मैं किसी मरीज को देखने आ रही थी, जो दवा लेकर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स है, वह सेमरी में है। उफ! सिर फटा जाता है!’

मेहता ने उसके सिर की ओर ज़मीन पर बैठकर धीरे-धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आँखें बन्द कर लीं।

युवती हाथों में आटा भरे, सिर के बाल बिखेरे, आँखें धुएँ से लाल और सजल, सारी देह पसीने में तर, जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ झलक रहा था, आकर खड़ी हो गयी और मालती को आँखें बन्द किये पड़ी देखकर बोली–बाई को क्या हो गया है?  

मेहता बोले–सिर में बड़ा दर्द है।

‘पूरे सिर में है कि आधे में?’

‘आधे में बतलाती हैं।’

‘दाईं ओर है, कि बाईं ओर?’

‘बाईं ओर।’

‘मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूँ। घिसकर लगाते ही अच्छा हो जायगा।’

‘तुम इस धूप में कहाँ जाओगी?’

युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जाकर पहाड़ियों में छिप गयी। कोई आधा घंटे बाद मेहता ने उसे ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया-सी लग रही थी। मन में सोचा–इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है।

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