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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


सहसा उन्होंने देखा, एक युवती किनारे की एक झोपड़ी से निकली, चिड़िया को बहते देखकर साड़ी को जाँघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी। एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली और मेहता को दिखाती हुई बोली–पानी से निकल जाओ बाबूजी, तुम्हारी चिड़िया यह है। मेहता युवती की चपलता और साहस देखकर मुग्ध हो गये। तुरन्त किनारे की ओर हाथ चलाये और दो मिनट में युवती के पास जा खड़े हुए।

युवती का रंग था तो काला और वह भी गहरा, कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़ आभूषण के नाम पर केवल हाथों में दो-दो मोटी चूड़ियाँ, सिर के बाल उलझे अलग-अलग। मुख-मंडल का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसे सुन्दर या सुघड़ कहा जा सके; लेकिन उस स्वच्छ, निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पलकर उसके अंग इतने सुडौल, सुगठित और स्वच्छन्द हो गये थे कि यौवन का चित्र खींचने के लिए उससे सुन्दर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था।

मेहता ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा–तुम बड़े मौके से पहुँच गयीं, नहीं मुझे न जाने कितनी दूर तैरना पड़ता।

युवती ने प्रसन्नता से कहा–मैंने तुम्हें तैरते आते देखा, तो दौड़ी। शिकार खेलने आये होंगे?

‘हाँ, आये तो थे शिकार ही खेलने; मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।

‘तेंदुआ मारना चाहो, तो मैं उसका ठौर दिखा दूँ। रात को यहाँ रोज पानी पीने आता है। कभी-कभी दोपहर में भी आ जाता है।’

फिर जरा सकुचाकर सिर झुकाये बोली–उसकी खाल हमें देनी पड़ेगी। चलो मेरे द्वार पर। वहाँ पीपल की छाया है। यहाँ धूप में कब तक खड़े रहोगे। कपड़े भी तो गीले हो गये हैं।

मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देखकर कहा–तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं। उसने लापरवाही से कहा–ऊँह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं। दिन-दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैं। तुम थोड़े ही रह सकते हो।

लड़की कितनी समझदार है और बिलकुल गँवार।

‘तुम खाल लेकर क्या करेगी?’

‘हमारे दादा बाजार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है।’

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