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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा–तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कन्धे पर बिठाये लेता हूँ। मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा–तो उस पार जाना क्या इतना जरूरी है?  मेहता ने कुछ उत्तर न दिया। बन्दूक कनपटी से कन्धे पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठाकर कन्धे पर बैठा लिया। मालती अपनी पुलक को छिपाती हुई बोली–अगर कोई देख ले?

‘भद्दा तो लगता है।’

दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा–अच्छा बताओ, मैं यहीं पानी में डूब जाऊँ, तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूँ, तुम्हें बिलकुल रंज न होगा।

मेहता ने आहत स्वर से कहा–तुम समझती हो, मैं आदमी नहीं हूँ?

‘मैं तो यही समझती हूँ, क्यों छिपाऊँ।’

‘सच कहती हो मालती?’

‘तुम क्या समझते हो?’

‘मैं! कभी बतलाऊँगा।’

पानी मेहता के गर्दन तक आ गया। कहीं अगला कदम उठाते ही सिर तक न आ जाय। मालती का हृदय धक-धक करने लगा। बोली, मेहता, ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ, नहीं, मैं पानी में कूद पड़ूँगी।

उस संकट में मालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मजाक उड़ाया करती थी। जानती थी, ईश्वर कहीं बैठा नहीं है जो आकर उन्हें उबार लेगा; लेकिन मन को जिस अवलम्बन और शक्ति की जरूरत थी, वह और कहाँ मिल सकती थी।

पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न होकर कहा–अब तुम मुझे उतार दो।

‘नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाय।’

‘तुम समझते होगे, यह कितनी स्वार्थिनी है।’

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