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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


‘अजी और कुछ न सही, तमाशा तो रहेगा।’

सहसा एक सज्जन को देखकर उसने पुकारा–आप भी तशरीफ रखते हैं मिर्ज़ा खुर्शेद, यह काम आपके सुपुर्द। आपकी लियाकत की परीक्षा हो जायगी।

मिर्ज़ा खुर्शेद गोरे-चिट्टे आदमी थे, भूरी-भूरी मूँछें, नीली आँखें, दोहरी देह, चाँद के बाल सफाचट। छकलिया अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने थे। ऊपर से हैट लगा लेते थे। वोटिंग के समय चौंक पड़ते थे और नेशनलिस्टों की तरफ वोट देते थे। सूफी मुसलमान थे। दो बार हज कर आये थे; मगर शराब खूब पीते थे। कहते थे, जब हम खुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं मानते, तो दीन के लिए क्यों जान दें! बड़े दिल्लगीबाज, बेफिक्रे जीव थे। पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे। लाखों कमाये, मगर शामत आयी कि एक मेम से आशनाई कर बैठे। मुकदमेबाजी हुई। जेल जाते-जाते बचे। चौबीस घंटे के अन्दर मुल्क से निकल जाने का हुक्म हुआ। जो कुछ जहाँ था, वहीं छोड़ा, और सिर्फ पचास हजार लेकर भाग खड़े हुए। बम्बई में उनके एजेंट थे। सोचा था, उनसे हिसाब-किताब कर लें और जो कुछ निकलेगा उसी में जिन्दगी काट देंगे, मगर एजेंटों ने जाल करके उनसे वह पचास हजार भी ऐंठ लिये। निराश होकर वहाँ से लखनऊ चले। गाड़ी में एक महात्मा से साक्षात् हुआ। महात्माजी ने उन्हें सब्जबाग दिखाकर उनकी घड़ी, अँगूठियाँ, रुपए सब उड़ा लिये। बेचारे लखनऊ पहुँचे तो देह के कपड़ों के सिवा और कुछ न था। राय साहब से पुरानी मुलाकात थी। कुछ उनकी मदद से और कुछ अन्य मित्रों की मदद से एक जूते की दूकान खोल ली। वह अब लखनऊ की सबसे चलती हुई जूते की दूकान थी, चार-पाँच सौ रोज की बिक्री थी। जनता को उन पर थोड़े ही दिनों में इतना विश्वास हो गया कि एक बड़े भारी मुस्लिम ताल्लुकेदार को नीचा दिखाकर कौंसिल में पहुँच गये।

अपनी जगह पर बैठे-बैठे बोले–जी नहीं, मैं किसी का दीन नहीं बिगाड़ता। यह काम आपको खुद करना चाहिए। मजा तो जब है कि आप उन्हें शराब पिलाकर छोड़ें। यह आपके हुस्न के जादू की आजमाइश है।

चारों तरफ से आवाजें आयीं–हाँ-हाँ, मिस मालती, आज अपना कमाल दिखाइए।

मालती ने मिर्ज़ा को ललकारा, कुछ इनाम दोगे?

‘सौ रुपए की एक थैली!’

‘हुश! सौ रुपए! लाख रुपए का धर्म बिगाड़ूँ सौ के लिए।’

‘अच्छा, आप खुद अपनी फीस बताइए।’

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