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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


मैंने यों ही उसका मन परखने को कह दिया, मैं पचास रुपए लूँगी। सच कहती हूँ गोबर, तुरन्त कोठरी में गया और दस-दस के पाँच नोट निकालकर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट जमीन पर गिरा दिये और द्वार की ओर चली, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं तो पहले ही से तैयार थी। हाँड़ी उसके मुँह पर दे मारी। सिर से पाँव तक सराबोर हो गया। चोट भी खूब लगी। सिर पकड़कर बैठ गया और लगा हाय-हाय करने। मैंने देखा, अब यह कुछ नहीं कर सकता, तो पीठ में दो लातें जमा दीं और किवाड़ खोलकर भागी।’ गोबर ठट्ठा मारकर बोला–बहुत अच्छा किया तुमने। दूध से नहा गया होगा। तिलक-मुद्रा भी धुल गयी होगी। मूँछें भी क्यों न उखाड़ लीं?’

दूसरे दिन मैं फिर उसके घर गयी। उसकी घरवाली आ गयी थी। अपने बैठक में सिर में पट्टी बाँधे पड़ा था। मैंने कहा–कहो तो कल की तुम्हारी करतूत खोल दूँ पण्डित! लगा हाथ जोड़ने। मैंने कहा–अच्छा थूककर चाटो, तो छोड़ दूँ। सिर जमीन पर रगड़कर कहने लगा–अब मेरी इज़्ज़त तुम्हारे हाथ है झूना, यही समझ लो कि पण्डिताइन मुझे जीता न छोड़ेंगी। मुझे भी उस पर दया आ गई।’

गोबर को उसकी दया बुरी लगी–यह तुमने क्या किया? उसकी औरत से जाकर कह क्यों नहीं दिया? जूतों से पीटती। ऐसे पाखण्डियों पर दया न करनी चाहिए। तुम मुझे कल उनकी सूरत दिखा दो, फिर देखना कैसी मरम्मत करता हूँ।

झुनिया ने उसके अर्ध-विकसित यौवन को देखकर कहा–तुम उसे न पाओगे। खासा देव है। मुफ़्त का माल उड़ाता है कि नहीं।

गोबर अपने यौवन का यह तिरस्कार कैसे सहता। डींग मारकर बोला–मोटे होने से क्या होता है। यहाँ फौलाद की हड्डियाँ हैं। तीन सौ डंड रोज मारता हूँ। दूध-घी नहीं मिलता, नहीं अब तक सीना यों निकल आया होता।

यह कहकर उसने छाती फैला कर दिखायी।

झुनिया ने आश्वस्त आँखों से देखा–अच्छा, कभी दिखा दूँगी। लेकिन वहाँ तो सभी एक-से हैं, तुम किस-किस की मरम्मत करोगे। न जाने मर्दों  की क्या आदत है कि जहाँ कोई जवान, सुन्दर औरत देखी और बस लगे घूरने, छाती पीटने। और यह जो बड़े आदमी कहलाते हैं, ये तो निरे लम्पट होते हैं। फिर मैं तो कोई सुन्दरी नहीं हूँ...

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