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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


‘तुम राजी हो कि नहीं।’

‘जरा सोच लेने दो महाराज! आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मरजाद भी तो रखना है।’

‘पाँच-छः दिन के अन्दर मुझे जवाब दे देना। ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो और बेदखली आ जाय।’

दातादीन चले गये। होरी की ओर से उन्हें कोई अन्देशा न था। अन्देशा था धनिया की ओर से। उसकी नाक बड़ी लम्बी है। चाहे मिट जाय, मरजाद न छोड़ेगी।

मगर होरी हाँ कर ले तो वह रो-धोकर मान ही जायगी। खेतों के निकलने में भी तो मरजाद बिगड़ती है।

धनिया ने आकर पूछा–पण्डित क्यों आये थे?

‘कुछ नहीं, यही बेदखली की बातचीत थी।’

‘आँसू पोंछने आये होंगे, यह तो न होगा कि सौ रुपए उधार दे दें।’

‘माँगने का मुँह भी तो नहीं।’

‘तो यहाँ आते ही क्यों हैं?’

‘रुपिया की सगाई की बात थी।’

‘किससे?’

‘रामसेवक को जानती है?  उन्हीं से।’

‘मैंने उन्हें कब देखा, हाँ नाम बहुत दिन से सुनती हूँ। वह तो बूढ़ा होगा।’

‘बूढ़ा नहीं है, हाँ अधेड़ है।’

‘तुमने पण्डित को फटकारा नहीं। मुझसे कहते तो ऐसा जवाब देती कि याद करते।’

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