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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


‘चिढ़ाते हैं।’

‘क्या कहकर चिढ़ाते हैं?’

‘कहते हैं, तेरे लिए मूस पकड़ रखा है। ले जा, भूनकर खा ले।’

होरी के अन्तस्तल में गुदगुदी हुई।

तू कहती नहीं, पहले तुम खा लो, तो मैं खाऊँगी।’

‘अम्माँ मना करती हैं। कहती हैं उन लोगों के घर न जाया करो।’

‘तू अम्माँ की बेटी है कि दादा की?’

रूपा ने उसके गले में हाथ डालकर कहा–अम्माँ की, और हँसने लगी।

‘तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तुझे अपनी थाली में न खिलाऊँगा।’

घर में एक ही फूल की थाली थी, होरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने का गौरव पाने के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी। इस गौरव का परित्याग कैसे करे? हुमककर बोली–अच्छा, तुम्हारी।

‘तो फिर मेरा कहना मानेगी कि अम्माँ का?’

‘तुम्हारा।’

‘तो जाकर हीरा और सोभा को खींच ला।’

‘और जो अम्माँ बिगड़ें।’

‘अम्माँ से कहने कौन जायगा।’

रूपा कूदती हुई हीरा के घर चली। द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरन्त निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं। भाइयों से होरी की बोलचाल बन्द थी; पर रूपा दोनों घरों में आती-जाती थी। बच्चों से क्या बैर!

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