सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
मेहता का वह बृहत् ग्रन्थ समाप्त हो गया था, जिसे वह तीन साल से लिख रहे थे और जिसमें उन्होंने संसार के सभी दर्शन-तत्वों का समन्वय किया था। यह ग्रन्थ उन्होंने मालती को समपिर्त किया, और जिस दिन उसकी प्रतियाँ इंगलैंड से आयीं और उन्होंने एक प्रति मालती को भेंट की, तो वह उसे अपने नाम से समपिर्त देखकर विस्मित भी हुई और दुखी भी।
उसने कहा–यह तुमने क्या किया? मैं तो अपने को इस योग्य नहीं समझती।
मेहता ने गर्व से कहा–लेकिन मैं तो समझता हूँ। यह तो कोई चीज नहीं। मेरे तो अगर सौ प्राण होते, तो वह तुम्हारे चरणों पर न्यौछावर कर देता।
‘मुझ पर! जिसने स्वार्थ-सेवा के सिवा कुछ जाना ही नहीं।’
‘तुम्हारे त्याग का एक टुकड़ा भी मैं पा जाता, तो अपने को धन्य समझता। तुम देवी हो।’
‘पत्थर की, इतना और क्यों नहीं कहते?’
‘त्याग की, मंगल की, पवित्रता की।’
‘तब तुमने मुझे खूब समझा। मैं और त्याग! मैं तुमसे सच कहती हूँ, सेवा या त्याग का भाव कभी मेरे मन में नहीं आया। जो कुछ करती हूँ, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वार्थ के लिए करती हूँ। मैं गाती इसलिए नहीं कि त्याग करती हूँ, या अपने गीतों से दुखी आत्माओं को सान्त्वना देती हूँ; बल्कि केवल इसलिए कि उससे मेरा मन प्रसन्न होता है। इसी तरह दवा-दारू भी गरीबों को दे देती हूँ; केवल अपने मन को प्रसन्न करने के लिए। शायद मन का अहंकार इसमें सुख मानता है। तुम मुझे ख्वाहमख्वाह देवी बनाये डालते हो। अब तो इतनी कसर रह गयी है कि धूप-दीप लेकर मेरी पूजा करो।’
मेहता ने कातर स्वर में कहा–वह तो मैं बरसों से कर रहा हूँ, मालती, और उस वक्त तक करता जाऊँगा जब तक वरदान न मिलेगा।
मालती ने चुटकी ली–तो वरदान पा जाने के बाद शायद देवी को मन्दिर से निकाल फेंको।
मेहता सँभलकर बोले–तब तो मेरी अलग सत्ता ही न रहेगी; उपासक उपास्य में लय हो जायगा।
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