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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


मालती ने आकर द्वार खोल दिया और उनकी ओर जिज्ञासा की आँखों से देखा।

मेहता ने पूछा–क्या झुनिया नहीं उठी? यह तो बहुत रो रहा है।

मालती ने सम्वेदना भरे स्वर में कहा–आज आठवाँ दिन है पीड़ा अधिक होगी। इसी से।’
तो लाओ, मैं कुछ देर टहला दूँ, तुम थक गयी हो।’

मालती ने मुस्कराकर कहा–तुम्हें जरा ही देर में गुस्सा आ जायगा!

बात सच थी; मगर अपनी कमजोरी को कौन स्वीकार करता है?  मेहता ने जिद करके कहा–तुमने मुझे इतना हल्का समझ लिया है?  

मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उनकी गोद में जाते ही वह एकदम चुप हो गया। बालकों में जो एक अन्तर्ज्ञान होता है, उसने उसे बता दिया, अब रोने में तुम्हारा कोई फायदा नहीं। यह नया आदमी स्त्री नहीं, पुरुष है और पुरुष गुस्सेवर होता है और निर्दयी भी होता है और चारपाई पर लेटाकर, या बाहर अँधेरे में सुलाकर दूर चला जा सकता है और किसी को पास आने भी न देगा।

मेहता ने विजय-गर्व से कहा–देखा, कैसा चुप कर दिया।

मालती ने विनोद किया–हाँ, तुम इस कला में कुशल हो। कहाँ सीखी?

‘तुमसे।’

‘मैं स्त्री हूँ और मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता।’

मेहता ने लज्जित होकर कहा–मालती, मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, मेरे उन शब्दों को भूल जाओ। इन कई महीनों में मैं कितना पछताया हूँ, कितना लज्जित हुआ हूँ, कितना दुखी हुआ हूँ, शायद तुम इसका अन्दाज न कर सको।

मालती ने सरल भाव से कहा–मैं तो भूल गयी, सच कहती हूँ।

‘मुझे कैसे विश्वास आये?’

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