सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
सहसा सोना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आयीं और एक साथ बोलीं–भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय, पीछे-पीछे भैया हैं।
रूपा ने पहले गोबर को आते देखा था। यह खबर सुनाने की सुर्खरूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती है, यह उससे कैसे सहा जाता।
उसने आगे बढ़कर कहा–पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा।
सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली–तूने भैया को कहाँ पहचाना। तू तो कहती थी, कोई गाय भागी आ रही है। मैंने ही कहा, भैया हैं।
दोनों फिर बाग की तरफ दौड़ीं, गाय का स्वागत करने के लिए। धनिया और होरी दोनों गाय बाँधने का प्रबन्ध करने लगे। होरी बोला–चलो, जल्दी से नाँद गाड़ दें। धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी–नहीं, पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोलकर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जाकर नाँद गाड़ो, मैं घोलती हूँ।
‘कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूँढ़ ले। उसके गले में बाँधेंगे।’
‘सोना कहाँ गयी। सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मँगवा लो, गाय को नजर बहुत लगती है।’
‘आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गई।’
धनिया अपने हार्दिक उल्लास को दबाये रखना चाहती थी। इतनी बड़ी सम्पदा अपने साथ कोई नयी बाधा न लाये, यह शंका उसके निराश हृदय में कम्पन डाल रही थी। आकाश की ओर देखकर बोली–गाय के आने का आनन्द तो जब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान् के मन की बात है।
मानो वह भगवान् को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान् को भी दिखाना चाहती थी कि इस गाय के आने से उसे इतना आनन्द नहीं हुआ कि ईर्ष्यालु भगवान् सुख का पलड़ा ऊँचा करने के लिए कोई नयी विपत्ति भेज दें।
वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय को लिये बालकों के एक जुलूस के साथ द्वार पर पहुँचा। होरी दौड़कर गाय के गले से लिपट गया। धनिया ने आटा छोड़ दिया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़कर गाय के गले में बाँध दिया।
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