सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
‘जब अपनी गरज सताती थी, तब मनाने जाते थे लाला! मेरे दुलार से नहीं जाते थे।’
‘इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता हूँ।’
वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं, और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी है। उसके बाद विश्राममय सन्ध्या आती है, शीतल और शान्त, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं जहाँ नीचे का जन-रव हम तक नहीं पहुँचता।
धनिया ने आँखों में रस भरकर कहा–चलो-चलो, बड़े बखान करनेवाले। जरा-सा कोई काम बिगड़ जाय, तो गरदन पर सवार हो जाते हो।
होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा–ले, अब यही तेरी बेइंसाफी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया! भोला से पूछ, मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा था?
धनिया ने बात बदलकर कहा–देखो, गोबर गाय लेकर आता है कि खाली हाथ।
चौधरी ने पसीने में लथ-पथ आकर कहा–महतो, चलकर बाँस गिन लो। कल ठेला लाकर उठा ले जाऊँगा। होरी ने बाँस गिनने की जरूरत न समझी। चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बाँस बेसी ही काट लेगा, तो क्या। रोज ही तो मँगनी बाँस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मंडप बनाने के लिए लोग दरजनों बाँस काट ले जाते हैं। चौधरी ने साढ़े सात रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिये। होरी ने गिनकर कहा–और निकालो। हिसाब से ढाई और होते हैं। चौधरी ने बेमुरौवती से कहा–पन्द्रह रुपये में तय हुए हैं कि नहीं?
‘पन्द्रह रुपए में नहीं, बीस रुपये में।’
‘हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पन्द्रह रुपये कहे थे। कहो तो बुला लाऊँ।’
‘तय तो बीस रुपये में ही हुए थे चौधरी! अब तुम्हारी जीत है, जो चाहो कहो। ढाई रुपये निकलते हैं, तुम दो ही दे दो।’
मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न खेला था। अब उसे किसका डर। होरी के मुँह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहे, माथा ठोंककर रह गया। बस इतना बोला–यह अच्छी बात नहीं है, चौधरी, दो रुपए दबाकर राजा न हो जाओगे।
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