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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


‘क्या कहा पण्डित ने?’

‘कहते हैं, मेरा तुमसे कोई वास्ता नहीं।’

‘अच्छा! ऐसा कहते हैं!’

‘समझते होंगे, इस तरह अपने मुँह की लाली रख लेंगे; लेकिन जिस बात को दुनिया जानती है, उसे कैसे छिपा लेंगे। मेरी रोटियाँ भारी हैं, न दें। मेरे लिए क्या? मजूरी अब भी करती हूँ, तब भी करूँगी। सोने को हाथ भर जगह तुम्हीं से माँगूँगी तो क्या तुम न दोगे?’
धनिया दयार्द्र होकर बोली–जगह की कौन कमी है बेटी! तू चल मेरे घर रह।
होरी ने कातर स्वर में कहा–बुलाती तो है, लेकिन पण्डित को जानती नहीं?
धनिया ने निर्भीक स्वर में कहा–बिगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लेंगे, और क्या करेंगे। कोई उनकी दबैल हूँ। उसकी इज्जत ली, बिरादरी से निकलवाया, अब कहते हैं, मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। आदमी है कि कसाई। यह उसी नीयत का आज फल मिला है। पहले नहीं सोच लिया था। तब तो विहार करते रहे। अब कहते हैं, मुझसे कौन वास्ता।

होरी के विचार में धनिया गलती कर रही थी। सिलिया के घरवालों ने मतई को कितना बेधरम कर दिया, यह कोई अच्छा काम नहीं किया। सिलिया को चाहे मारकर ले जाते, चाहे दुलारकर ले जाते। वह उनकी लड़की है। मतई को क्यों बेधरम किया?

धनिया ने फटकार बताई–अच्छा रहने दो, बड़े न्यायी बने हो। मर्द-मर्द सब एक होते हैं। इसको मतई ने बेधरम किया तब तो किसी को बुरा न लगा। अब जो मतई बेधरम हो गये, तो क्यों बुरा लगता है?  क्या सिलिया का धरम, धरम ही नहीं? रखी तो चमारिन, उस पर नेमी-धर्मी बनते हैं। बड़ा अच्छा किया हरखू चौधरी ने। ऐसे गुंडों की यही सजा है। तू चल सिलिया मेरे घर। न-जाने कैसे बेदरद माँ-बाप हैं कि बेचारी की सारी पीठ लहूलुहान कर दी। तुम जाके सोना को भेज दो। मैं इसे लेकर आती हूँ।

होरी घर चला गया और सिलिया धनिया के पैरों पर गिरकर रोने लगी।

28

सोना सत्रहवें साल में थी और इस साल उसका विवाह करना आवश्यक था। होरी तो दो साल से इसी फिक्र में था, पर हाथ खाली होने से कोई काबू न चलता था। मगर इस साल जैसे भी हो, उसका विवाह कर देना ही चाहिए, चाहे कर्ज लेना पड़े, चाहे खेत गिरों रखने पड़ें। और अकेले होरी की बात चलती तो दो साल पहले ही विवाह हो गया होता। वह किफायत से काम करना चाहता था। पर धनिया कहती थी, कितना ही हाथ बाँधकर खर्च करो; दो-ढाई सौ लग ही जायँगे। झुनिया के आ जाने से बिरादरी में इन लोगों का स्थान कुछ हेठा हो गया था और बिना सौ दो-सौ दिये कोई कुलीन वर न मिल सकता था। पिछले साल चैती में कुछ न मिला। था तो पण्डित दातादीन से आधा साझा; मगर पण्डित जी ने बीज और मजूरी का कुछ ऐसा ब्योरा बताया कि होरी के हाथ एक चौथाई से ज्यादा अनाज न लगा। और लगान देना पड़ गया पूरा। ऊख और सन की फसल नष्ट हो गयी। सन तो वर्षा अधिक होने और ऊख दीमक लग जाने के कारण। हाँ, इस साल की चैती अच्छी थी और ऊख भी खूब लगी हुई थी। विवाह के लिए गल्ला तो मौजूद था; दो सौ रुपए भी हाथ आ जायँ, तो कन्या-ऋण से उसका उद्धार हो जाय। अगर गोबर सौ रुपए की मदद कर दे, तो बाकी सौ रुपए होरी को आसानी से मिल जायँगे। झिंगुरीसिंह और मँगरू साह दोनों ही अब कुछ नर्म पड़ गये थे। जब गोबर परदेश में कमा रहा है, तो उनके रुपए मारे न पड़ सकते थे।

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