सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
‘हाँ, मालूम तो यही होता है।’
‘वह मुझे जलील करना चाहती है।’
‘आप शिलान्यास के एक दिन पहले बाहर चले जाइएगा।’
‘मुश्किल है राय साहब! कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी। उस दिन तो मुझे हैजा भी हो जाय तो वहाँ जाना पड़ेगा।’
राय साहब आशा बाँधे हुए कल आने का वादा करके ज्यों ही निकले कि खन्ना ने अन्दर जा कर गोविन्दी को आड़े हाथों लिया–तुमने इस व्यायामशाला की नींव रखना क्यों स्वीकार किया? गोविन्दी कैसे कहे कि यह सम्मान पाकर वह मन में कितनी प्रसन्न हो रही थी, उस अवसर के लिए कितने मनोनियोग से अपना भाषण लिख रही थी और कितनी ओजभरी कविता रची थी। उसने दिल में समझा था, यह प्रस्ताव स्वीकार करके वह खन्ना को प्रसन्न कर देगी। उसका सम्मान तो उसके पति ही का सम्मान है। खन्ना को इसमें कोई आपत्ति हो सकती है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी। इधर कई दिन से पति को कुछ सदय देखकर उसका मन बढ़ने लगा था। वह अपने भाषण से, और अपनी कविता से लोगों को मुग्ध कर देने का स्वप्न देख रही थी।
यह प्रश्न सुना और खन्ना की मुद्रा देखी, तो उसकी छाती धक-धक करने लगी। अपराधी की भाँति बोली–डाक्टर मेहता ने आग्रह किया, तो मैंने स्वीकार कर लिया।
‘डाक्टर मेहता तुम्हें कुएँ में गिरने को कहें, तो शायद इतनी खुशी से न तैयार होगी।’
गोविन्दी की जबान बन्द।
तुम्हें जब ईश्वर ने बुद्धि नहीं दी, तो क्यों मुझसे नहीं पूछ लिया? मेहता और मालती, दोनों यह चाल चलकर मुझसे दो-चार हज़ार ऐंठने की फिक्र में हैं। और मैंने ठान लिया है कि कौड़ी भी न दूँगा। तुम आज ही मेहता को इनकारी खत लिख दो।’
गोविन्दी ने एक क्षण सोचकर कहा–तो तुम्हीं लिख दो न।
‘मैं क्यों लिखूँ? बात की तुमने, लिखूँ मैं!’
‘डाक्टर साहब कारण पूछेंगे, तो क्या बताऊँगी?’
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