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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


गोबर देर में सोया था। अभी-अभी उठा था और आँखें मलता हुआ बाहर आ रहा था कि दातादीन की आवाज कान में पड़ी। पालागन करना तो दूर रहा, उलटे और हेकड़ी दिखाकर बोला–अब वह तुम्हारी मजूरी न करेंगे। हमें अपनी ऊख जो बोनी है।

दातादीन ने सुरती फाँकते हुए कहा–काम कैसे नहीं करेंगे? साल के बीच में काम नहीं छोड़ सकते। जेठ में छोड़ना हो छोड़ दें, करना हो करें। उसके पहले नहीं छोड़ सकते।

गोबर ने जम्हाई लेकर कहा–उन्होंने तुम्हारी गुलामी नहीं लिखी है। जब तक इच्छा थी, काम किया। अब नहीं इच्छा है, नहीं करेंगे। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं कर सकता।

‘तो होरी काम नहीं करेंगे?’

‘ना!’

‘तो हमारे रुपए सूद समेत दे दो। तीन साल का सूद होता है सौ रुपया। असल मिलाकर दो सौ होते हैं। हमने समझा था, तीन रुपए महीने सूद में कटते जायँगे; लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो मत करो। मेरे रुपए दे दो। धन्ना सेठ बनते हो, तो धन्ना सेठ का काम करो।’

होरी ने दातादीन से कहा–तुम्हारी चाकरी से मैं कब इनकार करता हूँ महाराज? लेकिन हमारी ऊख भी तो बोने को पड़ी है।

गोबर ने बाप को डाँटा–कैसी चाकरी और किसकी चाकरी? यहाँ तो कोई किसी का चाकर नहीं। सभी बराबर हैं। अच्छी दिल्लगी है। किसी को सौ रुपए उधार दे दिये और उससे सूद में जिन्दगी भर काम लेते रहे। मूल ज्यों का त्यों! यह महाजनी नहीं है, खून चूसना है।

‘तो रुपए दे दो भैया, लड़ाई काहे की। मैं आने रुपए ब्याज लेता हूँ। तुम्हें गाँवघर का समझकर आध आने रुपए पर दिया था।’

‘हम तो एक रुपया सैकड़ा देंगे। एक कौड़ी बेसी नहीं। तुम्हें लेना हो तो लो, नहीं अदालत से लेना। एक रुपया सैकड़े ब्याज कम नहीं होता।’

‘मालूम होता है, रुपए की गर्मी हो गयी है।’

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