सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
गोबर की कमर में इस समय दो सौ रुपए थे। उसकी गर्मी यों भी कम न थी। यह हाल सुनकर तो उसके बदन में आग ही लग गयी।
बोला–तो फिर पहले मैं उन्हीं से जाकर समझता हूँ। उनकी यह मजाल कि मेरे द्वार पर से बैल खोल ले जायँ! यह डाका है, खुला हुआ डाका। तीन-तीन साल को चले जायँगे तीनों। यों न देंगे, तो अदालत से लूँगा। सारा घमंड तोड़ दूँगा।
वह उसी आवेश में चला था कि झुनिया ने पकड़ लिया और बोली–तो चले जाना, अभी ऐसी क्या जल्दी है? कुछ आराम कर लो, कुछ खा-पी लो। सारा दिन तो पड़ा है। यहाँ बड़ी-बड़ी पंचायत हुई। पंचायत ने अस्सी रुपए डाँड़ लगाये। तीन मन अनाज ऊपर। उसी में तो और तबाही आ गयी।
सोना बालक को कपड़े-जूते पहनाकर लायी। कपड़े पहनकर वह जैसे सचमुच राजा हो गया था। गोबर ने उसे गोद में ले लिया; पर इस समय बालक के प्यार में उसे आनन्द न आया। उसका रक्त खौल रहा था और कमर के रुपए आँच और तेज कर रहे थे। वह एक-एक से समझेगा। पंचों को उस पर डाँड़ लगाने का अधिकार क्या है? कौन होता है कोई उसके बीच में बोलनेवाला? उसने एक औरत रख ली, तो पंचों के बाप का क्या बिगाड़ा? अगर इसी बात पर वह फौजदारी में दावा कर दे, तो लोगों के हाथों में हथकड़ियाँ पड़ जायँ। सारी गृहस्थी तहस-नहस हो गयी। क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने!
बच्चा उसकी गोद में जरा-सा मुस्कराया, फिर जोर से चीख उठा जैसे कोई डरावनी चीज देख ली हो।
झुनिया ने बच्चे को उसकी गोद से ले लिया और बोली–अब जाकर नहा-धो लो। किस सोच में पड़ गये। यहाँ सबसे लड़ने लगो, तो एक दिन निबाह न हो। जिसके पास पैसे हैं, वही बड़ा आदमी है, वही भला आदमी है। पैसे न हों, तो उस पर सभी रोब जमाते हैं।
‘मेरा गधापन था कि घर से भागा। नहीं देखता, कैसे कोई एक धेला डाँड़ लेता है।’
‘सहर की हवा खा आये हो तभी ये बातें सूझने लगी हैं। नहीं, घर से भागते क्यों!’
‘यही जी चाहता है कि लाठी उठाऊँ और पटेश्वरी, दातादीन, झिंगुरी, सब सालों को पीटकर गिरा दूँ, और उनके पेट से रुपए निकाल लूँ।’
‘रुपए की बहुत गर्मी चढ़ी है साइत। लाओ निकालो, देखूँ, इतने दिन में क्या कमा लाये हो?’
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