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गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...

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मिर्ज़ा खुर्शेद का हाता क्लब भी है, कचहरी भी, अखाड़ा भी। दिन भर जमघट लगा रहता है। मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी। मिर्ज़ा ने एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनावा दिया है; वहाँ नित्य सौ-पचास लड़न्तिये आ जुटते हैं। मिर्ज़ाजी भी उनके साथ जोर करते हैं। मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं। मियाँ-बीवी और सास-बहू और भाई-भाई के झगड़े-टंटे यहीं चुकाये जाते हैं। मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही केन्द्र है और राजनीतिक आन्दोलन का भी। आये दिन सभाएँ होती रहती हैं। यहीं स्वयंसेवक टिकते हैं, यहीं उनके प्रोग्राम बनते हैं, यहीं से नगर का राजनीतिक संचालन होता है। पिछले जलसे में मालती नगर-काँग्रेस-कमेटी की सभानेत्री चुन ली गयी है। तब से इस स्थान की रौनक और भी बढ़ गयी है।

गोबर को यहाँ रहते साल भर हो गया। अब वह सीधा-साधा ग्रामीण युवक नहीं है। उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली और संसार का रंग-ढंग भी कुछ-कुछ समझने लगा है। मूल में वह अब भी देहाती है, पैसे को दाँत से पकड़ता है, स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता, और परिश्रम से जी नहीं चुराता, न कभी हिम्मत हारता है; लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गयी है। उसने पहले महीने तो केवल मजूरी की और आधा पेट खाकर थोड़े से रुपए बचा लिये। फिर वह कचालू और मटर और दही-बड़े के खोंचे लगाने लगा। इधर ज्यादा लाभ देखा, तो नौकरी छोड़ दी। गमिर्यों में शर्बत और बर्फ की दूकान भी खोल दी। लेन-देन में खरा था इसलिए उसकी साख जम गयी। जाड़े आये, तो उसने शर्बत की दूकान उठा दी और गर्म चाय पिलाने लगा। अब उसकी रोजाना आमदनी ढाई-तीन रुपए से कम नहीं। उसने अँग्रेजी फैशन के बाल कटवा लिए हैं, महीन धोती और पम्प-शू पहनता है, एक लाल ऊनी चादर खरीद ली और पान सिगरेट का शौकीन हो गया है। सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निन्दा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है। आये दिन की पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहाँ घर से दूर, मुँह छिपाये पड़ा हुआ है, उसी तरह की, बल्कि उससे भी कहीं निन्दास्पद बातें यहाँ नित्य हुआ करती हैं, और कोई भागता नहीं। फिर वही क्यों इतना डरे और मुँह चुराये!

इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा। वह माता-पिता को रुपए-पैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता। वे लोग तो रुपए पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे। दादा को तुरन्त गया करने की और अम्माँ को गहने बनवाने की धुन सवार हो जायगी। ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपए नहीं हैं। अब वह छोटा-मोटा महाजन है। पड़ोस के एक्केवालों गाड़ीवानों और धोबियों को सूद पर रुपए उधार देता है। इस दस-ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं लाकर रखने की बात सोच रहा है।

तीसरे पहर का समय है। वह सड़क के नल पर नहाकर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिर्ज़ा खुर्शेद आकर द्वार पर खड़े हो गये। गोबर अब उनका नौकर नहीं है; पर अदब उसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है। द्वार पर जाकर पूछा–क्या हुक्म है सरकार?

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