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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


गोविन्दी ने विनोद किया–बच्चा ही लाइएगा, या उसकी माँ भी?

मेहता ने विनोद-भरी निराशा से सर हिलाकर कहा–ऐसी औरत तो कहीं मिलती ही नहीं।

‘क्यों, मिस मालती नहीं हैं? सुन्दरी, शिक्षित, गुणवती, मनोहारिणी; और आप क्या चाहते हैं?’

‘मिस मालती में वह एक बात भी नहीं है जो मैं अपनी स्त्री में देखना चाहता हूँ।’

गोविन्दी ने इस कुत्सा का आनन्द लेते हुए कहा–उसमें क्या बुराई है, सुनूँ। भौंरे तो हमेशा घेरे रहते हैं। मैंने सुना है, आजकल पुरुषों को ऐसी ही औरतें पसन्द आती हैं। मेहता ने बच्चे के हाथों से अपनी मूँछों की रक्षा करते हुए कहा–मेरी स्त्री कुछ और ही ढंग की होगी। वह ऐसी होगी, जिसकी मैं पूजा कर सकूँगा।

गोविन्दी अपनी हँसी न रोक सकी–तो आप स्त्री नहीं, कोई प्रतिमा चाहते हैं। स्त्री तो ऐसी आपको शायद कहीं मिले।

‘जी नहीं, ऐसी एक देवी इसी शहर में है।

‘सच! मैं भी उसके दर्शन करती, और उसी तरह बनने की चेष्टा करती।’

‘आप उसे खूब जानती हैं। वह एक लखपती की पत्नी है, पर विलास को तुच्छ समझती है; जो उपेक्षा और अनादर सह कर भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होती, जो मातृत्व की वेदी पर अपने को बलिदान करती है, जिसके लिए त्याग ही सबसे बड़ा अधिकार है, और जो इस योग्य है की उसकी प्रतिमा बनाकर पूजी जाय।’

गोविन्दी के हृदय में आनन्द का कम्पन हुआ। समझकर भी न समझने का अभिनय करती हुई बोली–ऐसी स्त्री की आप तारीफ करते हैं। मगर मेरी समझ में तो वह दया की पात्र है। वह आदर्श नारी है और जो आदर्श नारी हो सकती है, वही आदर्श पत्नी भी हो सकती है।

मेहता ने आश्चर्य से कहा–आप उसका अपमान करती हैं।

‘लेकिन वह आदर्श इस युग के लिए नहीं है।’

‘वह आदर्श सनातन है और अमर है। मनुष्य उसे विकृत करके अपना सर्वनाश कर रहा है।’

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