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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


मेहता ने कान पर हाथ रखकर कहा–नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। वहाँ सरोज मेरी जान खायगी। मैं इन लड़कियों से बहुत घबराता हूँ।

‘नहीं-नहीं, मैं ज़िम्मा लेती हूँ जो वह मुँह भी खोले।’

‘अच्छा आप चलिए, मैं थोड़ी देर में आऊँगा।’

‘जी नहीं, यह न होगा। मेरी कार सरोज को लेकर चल दी। आप मुझे पहुँचाने तो चलेंगे ही।’

दोनों मेहता की कार में बैठे। कार चली।

एक क्षण के बाद मेहता ने पूछा–मैंने सुना है, खन्ना साहब अपनी बीबी को मारा करते हैं। तब से मुझे उनकी सूरत से नफरत हो गयी। जो आदमी इतना निर्दयी हो, उसे मैं आदमी नहीं समझता। उस पर आप नारी जाति के बड़े हितैषी बनते हैं। तुमने उन्हें कभी समझाया नहीं?

मालती उद्विग्न होकर बोली–ताली हमेशा दो हथेलियों से बजती है, यह आप भूल जाते हैं।

‘मैं तो ऐसे किसी कारण की कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई पुरुष अपनी स्त्री को मारे।’

‘चाहे स्त्री कितनी ही बदजबान हो?’

‘हाँ, कितनी ही।’

‘तो आप एक नये किस्म के आदमी हैं।’

‘अगर मर्द बदमिजाज है, तो तुम्हारी राय में उस मर्द पर हंटरों की बौछार करनी चाहिए, क्यों?’

‘स्त्री जितनी क्षमाशील हो सकती है पुरुष नहीं हो सकता। आपने खुद आज यह बात स्वीकार की है।’

‘तो औरत की क्षमाशीलता का यही पुरस्कार है। मैं समझता हूँ, तुम खन्ना को मुँह लगाकर उसे और भी शह देती हो। तुम्हारा वह जितना आदर करता है, तुमसे उसे जितनी भक्ति है, उसके बल पर तुम बड़ी आसानी से उसे सीधा कर सकती हो; मगर तुम उसकी सफाई देकर स्वयं उस अपराध में शरीक हो जाती हो।’

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