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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


‘जितना तू माँगे।’

‘मैं क्या माँगूँ। आप जो चाहे दे दें।’

‘हम तुम्हें पन्द्रह रुपए देंगे और खूब कसकर काम लेंगे।’

गोबर मेहनत से नहीं डरता। उसे रुपए मिलें, तो वह आठों पहर काम करने को तैयार है। पन्द्रह रुपए मिलें, तो क्या पूछना। वह तो प्राण भी दे देगा। बोला–मेरे लिए कोठरी मिल जाय, वहीं पड़ा रहूँगा।

‘हाँ-हाँ, जगह का इन्तजाम मैं कर दूँगा। इसी झोपड़ी में एक किनारे तुम भी पड़ रहना।’

गोबर को जैसे स्वर्ग मिल गया।

15

होरी की फसल सारी की सारी डाँड़ की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पाँच-पाँच पेट खानेवाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर-पेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है! उधार ले तो किससे! गाँव के सभी छोटे-बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करे, तो किसकी। जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी; लेकिन खाली पेट मेहनत भी कैसे हो!

साँझ हो गयी थी। छोटा बच्चा रो रहा था। माँ को भोजन न मिले, तो दूध कहाँ से निकले? सोना परिस्थिति समझती थी; मगर रूपा क्या समझे! बार-बार रोटी-रोटी चिल्ला रही थी। दिन-भर तो कच्ची अमिया से जी बहला; मगर अब तो कोई ठोस चीज चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार माँगने गया था; पर वह दूकान बन्द करके पैठ चली गयी थी। मँगरू साह ने केवल इनकार ही न किया, लताड़ भी दी–उधार माँगने चले हैं, तीन साल से धेला सूद नहीं दिया, उस पर उधार दिये जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती है, तो यही हाल होता है। भगवान् से भी यह अनीति नहीं देखी जाती। कारकुन की डाँट पड़ी, तो कैसे चुपके से रुपए उगल दिये। मेरे रुपए, रुपए ही नहीं हैं। और मेहरिया है कि उसका मिजाज ही नहीं मिलता।

वहाँ से रुआँसा होकर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आयी। रसोई के द्वार पर जाकर देखा तो अँधेरा पड़ा हुआ था। बोली–आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभी जी? अब तो बेला हो गयी।

जब से गोबर भागा था, पुन्नी और धनिया में बोलचाल हो गयी थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियाँ देती थी–हत्यारा, गऊ-हत्या करके भागा। मुँह में कालिख लगी है, घर कैसे आये? और आये भी तो घर के अन्दर पाँव न रखने दूँ। गऊ-हत्या करते इसे लाज भी न आयी। बहुत अच्छा होता, पुलिस बाँधकर ले जाती और चक्की पिसवाती!

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