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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


मेहता ने एक बार फिर उठने की चेष्टा की; पर मिर्ज़ा ने उनकी गर्दन दबा दी।

मालती ने उनका हाथ पकड़कर घसीटने कोशिश करके कहा–यह खेल नहीं, अदावत है।

‘अदावत ही सही।’

‘आप न छोड़ेंगे?’

उसी वक्त जैसे कोई भूकम्प आ गया। मिर्ज़ा साहब जमीन पर पड़े हुए थे और मेहता दौड़े हुए पाली की ओर भागे जा रहे थे और हजारों आदमी पागलों की तरह टोपियाँ और पगड़ियाँ और छड़ियाँ उछाल रहे थे। कैसे यह काया पलट हुई, कोई समझ न सका।

मिर्ज़ा ने मेहता को गोद में उठा लिया और लिये हुए शामियाने तक आये। प्रत्येक मुख पर यह शब्द थे–डाक्टर साहब ने बाजी मार ली। और प्रत्येक आदमी इस हारी हुई बाजी के एकबारगी पलट जाने पर विस्मित था। सभी मेहता के जीवट और धैर्य का बखान कर रहे थे।

मजदूरों के लिए पहले से नारंगियाँ मँगा ली गयी थीं। उन्हें एक-एक नारंगी देकर विदा किया गया। शामियाने में मेहमानों के चाय-पानी का आयोजन था। मेहता और मिर्ज़ा एक ही मेज पर आमने-सामने बैठे। मालती मेहता के बगल में बैठी।
 
मेहता ने कहा–मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। महिला की सहानुभूति हार को जीत बना सकती है।

मिर्ज़ा ने मालती की ओर देखा–अच्छा! यह बात थी! जभी तो मुझे हैरत हो रही थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गये।

मालती शर्म से लाल हुई जाती थी। बोली–आप बड़े बेमुरौवत आदमी हैं मिर्ज़ाजी! मुझे आज मालूम हुआ।

‘कुसूर इनका था। यह क्यों ‘चीं’ नहीं बोलते थे?’

‘मैं तो ‘चीं’ न बोलता, चाहे आप मेरी जान ही ले लेते।’

कुछ देर मित्रों में गप-शप होती रही। फिर धन्यवाद के और मुबारकवाद के भाषण हुए और मेहमान लोग बिदा हुए। मालती को भी एक विजिट करनी थी। वह भी चली गयी। केवल मेहता और मिर्ज़ा रह गये। उन्हें अभी स्नान करना था। मिट्टी में सने हुए थे। कपड़े कैसे पहनते। गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त नहाने लगे।

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