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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


‘मेहता की तरफ से जो बाहर निकलता है, वही मर जाता है।’

एक क्षण के बाद उसने पूछा–क्या इस खेल में हाफ टाइम नहीं होता?

खन्ना को शरारत सूझी। बोले–आप चले थे मिर्ज़ा से मुकाबला करने। समझते थे, यह भी फिलासफी है।’

मैं पूछती हूँ, इस खेल में हाफ टाइम नहीं होता?’

खन्ना ने फिर चिढ़ाया–अब खेल ही खतम हुआ जाता है। मज़ा आयेगा तब, जब मिर्ज़ा मेहता को दबोचकर रगड़ेंगे और मेहता साहब ‘चीं ‘बोलेंगे।’

मैं तुमसे नहीं पूछती। राय साहब से पूछती हूँ।’

राय साहब बोले–इस खेल में हाफ टाइम! एक ही एक आदमी तो सामने आता है।’

‘अच्छा, मेहता का एक आदमी और मर गया।’

खन्ना बोले–आप देखती रहिए! इसी तरह सब मर जायँगे और आखिर में मेहता साहब भी मरेंगे।

मालती जल गयी–आपकी हिम्मत न पड़ी बाहर निकलने की।

‘मैं गँवारों के खेल नहीं खेलता। मेरे लिए टेनिस है।’

‘टेनिस में भी मैं तुम्हें सैकड़ों गेम दे चुकी हूँ।’

‘आपसे जीतने का दावा ही कब है?’

‘अगर दावा हो, तो मैं तैयार हूँ।’

मालती उन्हें फटकार बताकर फिर अपनी जगह पर आ बैठी। किसी को मेहता से हमदर्दी नहीं है। कोई यह नहीं कहता कि अब खेल खत्म कर दिया जाय। मेहता भी अजीब बुद्धू आदमी हैं, कुछ धाँधली क्यों नहीं कर बैठते। यहाँ अपनी न्याय-प्रियता दिखा रहे हैं। अभी हारकर लौटेंगे, तो चारों तरफ से तालियाँ पड़ेंगी। अब शायद बीस आदमी उनकी तरफ और होंगे और लोग कितने खुश हो रहे हैं।

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