सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
गोबर को भी अपनी राय बदलनी पड़ी। बोला–माता का आदर करना तो सबका धरम ही है भाई। माता से कौन उरिन हो सकता है?
कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता दिया। आज वह किसी तरह लखनऊ नहीं पहुँच सकता। कोस दो कोस जाते-जाते साँझ हो जायगी। रात को कहीं न कहीं टिकना ही पड़ेगा।
गोबर ने विनोद दिया–लुगाई मान गयी?
‘न मानेगी तो क्या करेगी।’
‘मुझे तो उसने ऐसी फटकार बतायी कि मैं लजा गया।’
‘वह खुद पछता रही है। चलो, जरा माता जी को समझा देना। मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता। उन्हें भी सोचना चाहिए कि बहू को बाप-भाई की गाली क्यों देती हैं। हमारी ही बहन है। चार दिन में उसकी सगाई हो जायगी। उसकी सास हमें गालियाँ देगी, तो उससे सुना जायगा? सब दोस लुगाई ही का नहीं है। माता का भी दोस है। जब हर बात में वह अपनी बेटी का पच्छ करेंगी, तो हमें बुरा लगेगा ही। इसमें इतनी बात अच्छी है कि घर से रूठकर चली जाय; पर गाली का जवाब गाली से नहीं देती।’
गोबर को रात के लिए कोई ठिकाना चाहिए था ही। कोदई के साथ हो लिया। दोनों फिर उसी जगह आये जहाँ युवती बैठी हुई थी। वह अब गृहिणी बन गयी थी। जरा-सा घूँघट निकाल लिया था और लजाने लगी थी।
कोदई ने मुस्कराकर कहा–यह तो आते ही न थे। कहते थे, ऐसी डाँट सुनने के बाद उनके घर कैसे जायँ?
युवती ने घूँघट की आड़ से गोबर को देखकर कहा–इतनी ही डाँट में डर गये? लुगाई आ जायगी, तब कहाँ भागोगे?
गाँव समीप ही था। गाँव क्या था, पुरवा था; दस-बारह घरों का, जिसमें आधे खपरैल के थे, आधे फूस के। कोदई ने अपने घर पहुँचकर खाट निकाली, उस पर एक दरी डाल दी, शर्बत बनाने को कहा, चिलम भर लाया। और एक क्षण में वही युवती लोटे में शर्बत लेकर आयी और गोबर को पानी का एक छींटा मारकर मानो क्षमा माँग ली। वह अब उसका ननदोई हो रहा था। फिर क्यों न अभी से छेड़-छाड़ शुरू कर दे!
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गोबर मुँह अँधेरे ही उठा और कोदई से बिदा माँगी। सबको मालूम हो गया था कि उसका ब्याह हो चुका है; इसलिए उससे कोई विवाह-सम्बन्धी चर्चा नहीं की। उसके शील-स्वभाव ने सारे घर को मुग्ध कर लिया था। कोदई की माता को तो उसने ऐसे मीठे शब्दों में और उसके मातृपद की रक्षा करते हुए, ऐसा उपदेश दिया कि उसने प्रसन्न होकर आशीवार्द दिया था।’
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