सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
धनिया ने प्रसन्न मुख होकर जवाब दिया–बिलकुल गोबर को पड़ा है। सच!
‘रिष्ट-पुष्ट तो है?’
‘हाँ, अच्छा है।’
13
रात को गोबर झुनिया के साथ चला, तो ऐसा काँप रहा था, जैसे उसकी नाक कटी हुई हो। झुनिया को देखते ही सारे गाँव में कुहराम मच जायगा, लोग चारों ओर से कैसी हाय-हाय मचायेंगे, धनिया कितनी गालियाँ देगी, यह सोच-सोचकर उसके पाँव पीछे रहे जाते थे। होरी का तो उसे भय न था। वह केवल एक बार झाड़ेंगे, फिर शान्त हो जायँगे। डर था धनिया का, जहर खाने लगेगी, घर में आग लगाने लगेगी। नहीं, इस वक्त वह झुनिया के साथ घर नहीं जा सकता।
लेकिन कहीं धनिया ने झुनिया को घर में घुसने ही न दिया और झाड़ू लेकर मारने दौड़ी, तो वह बेचारी कहाँ जायगी। अपने घर तो लौट ही नहीं सकती। कहीं कुएँ में कूद पड़े या गले में फाँसी लगा ले, तो क्या हो। उसने लम्बी साँस ली। किसकी शरण ले।
मगर अम्माँ इतनी निर्दयी नहीं हैं कि मारने दौड़ें। क्रोध में दो-चार गालियाँ देंगी! लेकिन जब झुनिया उसके पाँव पड़कर रोने लगेगी, तो उन्हें जरूर दया आ जायगी। तब तक वह खुद कहीं छिपा रहेगा। जब उपद्रव शान्त हो जायगा, तब वह एक दिन धीरे से आयेगा और अम्माँ को मना लेगा, अगर इस बीच उसे कहीं मजूरी मिल जाय और दो-चार रुपए लेकर घर लौटे, तो फिर धनिया का मुँह बन्द हो जायगा।
झुनिया बोली–मेरी छाती धक-धक कर रही है। मैं क्या जानती थी, तुम मेरे गले यह रोग मढ़ दोगे। न जाने किस बुरी साइत में तुमको देखा। न तुम गाय लेने आते, न यह सब कुछ होता। तुम आगे-आगे जाकर जो कुछ कहना-सुनना हो, कह-सुन लेना। मैं पीछे से जाऊँगी।
गोबर ने कहा–नहीं-नहीं, पहले तुम जाना और कहना, मैं बाजार से सौदा बेचकर घर जा रही थी। रात हो गयी है, अब कैसे जाऊँ। तब तक मैं आ जाऊँगा।
झुनिया ने चिन्तित मन से कहा–तुम्हारी अम्माँ बड़ी गुस्सैल हैं। मेरा तो जी काँपता है। कहीं मुझे मारने लगें तो क्या करूँगी।
गोबर ने धीरज दिलाया–अम्माँ की आदत ऐसी नहीं। हम लोगों तक को तो कभी एक तमाचा मारा नहीं, तुम्हें क्या मारेंगी। उनको जो कुछ कहना होगा मुझे कहेंगी, तुमसे तो बोलेंगी भी नहीं।
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