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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


‘दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था; पर चुप्पी साधे बैठा रहा। बाप भी ऐसे बेहया होते हैं!’

‘वह क्या जानता था, इनके बीच में क्या खिचड़ी पक रही है।’

‘जानता क्यों नहीं था। गोबर रात-दिन घेरे रहता था तो क्या उसकी आँखें फूट गयी थीं। सोचना चाहिए था न, कि यहाँ क्यों दौड़-दौड़ आता है।’

‘चल मैं झुनिया से पूछता हूँ न।’

दोनों मँड़ैया से निकलकर गाँव की ओर चले। होरी ने कहा–पाँच घड़ी रात के ऊपर गयी होगी।

धनिया बोली–हाँ, और क्या; मगर कैसा सोता पड़ गया है। कोई चोर आये, तो सारे गाँव को मूस ले जाय।

‘चोर ऐसे गाँव में नहीं आते। धनियों के घर जाते हैं।’

धनिया ने ठिठक कर होरी का हाथ पकड़ लिया और बोली–देखो, हल्ला न मचाना; नहीं सारा गाँव जाग उठेगा और बात फैल जायगी। होरी ने कठोर स्वर में कहा–मैं यह कुछ नहीं जानता। हाथ पकड़कर घसीट लाऊँगा और गाँव के बाहर कर दूँगा। बात तो एक दिन खुलनी ही है, फिर आज ही क्यों न खुल जाय। वह मेरे घर आयी क्यों? जाय जहाँ गोबर है। उसके साथ कुकरम किया, तो क्या हमसे पूछकर किया था?

धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे से बोली–तुम उसका हाथ पकड़ोगे, तो वह चिल्लायेगी।

‘तो चिल्लाया करे।’

‘मुदा इतनी रात गये इस अँधेरे सन्नाटे रात में जायगी कहाँ, यह तो सोचो।’

‘जाय जहाँ उसके सगे हों। हमारे घर में उसका क्या रखा है!’

‘हाँ, लेकिन इतनी रात गये घर से निकालना उचित नहीं। पाँव भारी है, कहीं डर-डरा जाय, तो और आफत हो। ऐसी दशा में कुछ करते-धरते भी तो नहीं बनता!’

‘हमें क्या करना है, मरे या जीये। जहाँ चाहे जाय। क्यों अपने मुँह में कालिख लगाऊँ। मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूँगा।’

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