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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


मिर्ज़ाजी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले; मगर मुश्किल से पचास कदम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी; पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितिलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मजबूत किया और एक बीस कदम और चले। कम्बख़्त कहाँ रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। जरा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँ, तो मजा आये। मशक की तरह जो फूले चलते हैं, जरा उसका मजा भी देखें; लेकिन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे, बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास कदम में चीं बोल गए।

लकड़हारे ने चुटकी ली–कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं। बहुत हलका है न?

मिर्ज़ाजी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले–उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाये हो।

‘कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक!’

‘तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूँ!’

‘नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों; वह चट्टान हैं उस पर उतार दीजिए।’

‘मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ।’

‘मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें।’

मिर्ज़ा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतारकर रख दिया। वकील साहब भी आ पहुँचे। मिर्ज़ा ने दाना फेंका–अब आप को भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब! वकील साहब की नजरों में अब मिर्ज़ाजी का कोई महत्व न था। बोले–मुआफ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है।

‘बहुत भारी नहीं हैं सच।’

‘अजी रहने भी दीजिए।’

‘आप अगर इसे सौ कदम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ आप मेरे सामने जो तजवीज रखेंगे, उसे मंजूर कर लूँगा।’

‘मैं इन चकमों में नहीं आता।’

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