सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
‘रुपए गाड़कर रखेगी तो क्या नालिश न होगी?’
‘क्या बकती है। खेती से पेट चल जाय यही बहुत है। गाड़कर कोई क्या रखेगा।’
‘हीरा तो जैसे संसार ही से चला गया।’
‘मेरा मन तो कहता है कि वह आवेगा, कभी न कभी जरूर।’
दोनों सोये। होरी अँधेरे मुँह उठा तो देखता है कि हीरा सामने खड़ा है, बाल बढ़े हुए, कपड़े तार-तार, मुँह सूखा हुआ, देह में रक्त और मांस का नाम नहीं, जैसे कद भी छोटा हो गया है। दौड़कर होरी के कदमों पर गिर पड़ा।
होरी ने उसे छाती से लगाकर कहा–तुम तो बिलकुल घुल गये हीरा! कब आये? आज तुम्हारी बार-बार याद आ रही थी। बीमार हो क्या?
आज उसकी आँखों में वह हीरा न था जिसने उसकी जिन्दगी तल्ख़ कर दी थी, बल्कि वह हीरा था, जो बे-माँ-बाप का छोटा-सा बालक था। बीच के ये पचीस-तीस साल जैसे मिट गये, उनका कोई चिन्ह भी नहीं था।
हीरा ने कुछ जवाब न दिया। खड़ा रो रहा था।
होरी ने उसका हाथ पकड़कर गद्गद कंठ से कहा–क्यों रोते हो भैया, आदमी से भूल-चूल होती ही है। कहाँ रहा इतने दिन?
हीरा कातर स्वर में बोला–कहाँ बताऊँ दादा! बस यही समझ लो कि तुम्हारे दर्शन बदे थे, बच गया। हत्या सिर पर सवार थी। ऐसा लगता था कि वह गऊ मेरे सामने खड़ी है; हरदम, सोते-जागते, कभी आँखों से ओझल न होती। मैं पागल हो गया और पाँच साल पागल-खाने में रहा। आज वहाँ से निकले छः महीने हुए। माँगता-खाता फिरता रहा। यहाँ आने की हिम्मत न पड़ती थी। संसार को कौन मुँह दिखाऊँगा। आखिर जी न माना। कलेजा मजबूत करके चला आया। तुमने बाल-बच्चों को...
होरी ने बात काटी–तुम नाहक भागे। अरे, दारोगा को दस-पाँच देकर मामला रफे-दफे करा दिया जाता और होता क्या?
‘तुमसे जीते-जी उरिन न हूँगा दादा!’
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