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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


राय साहब ने सहानुभूति के भाव से सिर हिलाकर कहा–सुन चुका हूँ, और बार-बार इच्छा हुई कि उनसे मिलूँ; लेकिन फुरसत न मिली। उस मिल में आग लगना उनके सर्वनाश का कारण हो गया।

‘जी हाँ। अब वह एक तरह से दोस्तों की दया पर अपना निर्वाह कर रहे हैं। उस पर गोविन्दी महीनों से बीमार है। उसने खन्ना पर अपने को बलिदान कर दिया, उस पशु पर जिसने हमेशा उसे जलाया; अब वह मर रही है। और मालती रात की रात उसके सिरहाने बैठी रह जाती है, वही मालती जो किसी राजा रईस से पाँच सौ फीस पाकर भी रात-भर न बैठेगी। खन्ना के छोटे बच्चों को पालने का भार भी मालती पर है। यह मातृत्व उसमें कहाँ सोया हुआ था, मालूम नहीं। मुझे तो मालती का यह स्वरूप देखकर अपने भीतर श्रद्धा का अनुभव होने लगा, हालाँकि आप जानते हैं, मैं घोर जड़वादी हूँ। और भीतर के परिष्कार के साथ उसकी छवि में भी देवत्व की झलक आने लगी है। मानवता इतनी बहुरंगी और इतनी समर्थ है, इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। आप उनसे मिलना चाहें तो चलिए, इसी बहाने मैं भी चला चलूँगा।’

राय साहब ने सन्दिग्ध भाव से कहा–जब आप ही मेरे दर्द को नहीं समझ सके, तो मालती देवी क्या समझेंगी, मुफ्त में शर्मिन्दगी होगी; मगर आपको पास जाने के लिए किसी बहाने की जरूरत क्यों! मैं तो समझता था, आपने उनके ऊपर अपना जादू डाल दिया है।

मेहता ने हसरत भरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया–वह बात अब स्वप्न हो गयी। अब तो कभी उनके दर्शन भी नहीं होते। उन्हें अब फुरसत भी नहीं रहती। दो-चार बार गया। मगर मुझे मालूम हुआ, मुझसे मिलकर वह कुछ खुश नहीं हुईं, तब से जाते झेंपता हूँ। हाँ, खूब याद आया, आज महिला-व्यायामशाला का जलसा है, आप चलेंगे?

राय साहब ने बेदिली के साथ कहा–जी नहीं, मुझे फुरसत नहीं है। मुझे तो यह चिन्ता सवार है कि राजा साहब को क्या जवाब दूँगा। मैं उन्हें वचन दे चुका हूँ।

यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए और मन्दगति से द्वार की ओर चले। जिस गुत्थी को सुलझाने आये थे, वह और भी जटिल हो गयी। अन्धकार और भी असूझ हो गया। मेहता ने कार तक आकर उन्हें बिदा किया।

राय साहब सीधे अपने बँगले पर आये और दैनिक पत्र उठाया था कि मिस्टर तंखा का कार्ड मिला। तंखा से उन्हें घृणा थी, और उनका मुँह भी न देखना चाहते थे; लेकिन इस वक्त मन की दुर्बल दशा में उन्हें किसी हमदर्द की तलाश थी, जो और कुछ न कर सके, पर उनके मनोभावों से सहानुभूति तो करे। तुरन्त बुला लिया। तंखा पाँव दबाते हुए, रोनी सूरत लिये कमरे में दाखिल हुए और जमीन पर झुककर सलाम करते हुए बोले–मैं तो हुजूर के दर्शन करने नैनीताल जा रहा था। सौभाग्य से यहीं दर्शन हो गये! हुजूर का मिज़ाज तो अच्छा है।

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