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उपन्यास की संरचना

गोपाल राय

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :490
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14356
आईएसबीएन :9788126710867

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हिंदी में उपन्यास की संरचना के विवेचन का यह पहला गंभीर प्रयास है।

उपन्यास एक अभूर्त रचना-वस्तु है। 'वस्तु' है तो उसका 'रूप' भी होगा ही। 'रूप' का एक पक्ष वह है, जिसे उपन्यासकार निर्मित करता है। उसका दूसरा पक्ष वह है जिसे पाठक अपनी चेतना में निर्मित करता है। पर उपन्यास का 'रूप' चाहे जितना भी अमूर्त और 'पाठ-सापेक्ष' हो, वह होता जरूर है। उसकी संरचना को समझना आलोचक के लिए चुनौती है, पर वह सर्वथा पकड़ के बाहर है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अंग्रेजी और यूरोप की अन्य भाषाओँ में इसके प्रयास हुए हैं और इस विषय पर अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। पर उन आलोचकों ने स्वभावतः अपनी भाषाओँ के उपन्यासों को ही अपने विवेचन का आधार बनाया है। यहाँ तक कि भारतीय साहित्य में उपलब्ध कथा-रूपों की और भी उनकी दृष्टि नहीं गई है। हिंदी आलोचना भी उपन्यास की और विगत कुछ दशकों से ही उन्मुख हुई है। पर आलोचकों की दृष्टि जितनी उसके कथ्य पर रही है, उतनी उसकी संरचना पर नहीं। उपन्यास किस प्रकार 'बनता' है, पाठक की चेतना मेन वह कैसे 'रूप' ग्रहण करता है, इस किताब में इसी की तलाश लेखक का उद्देश्य है। आरंभिक दो परिच्छेदों में औपन्यासिक संरचना का सैद्धांतिक विवेचन करने के बाद परवर्ती आठ परिच्छेदों में लगभग दो दर्जन हिंदी उपन्यासों की संरचना का सविस्तार विवेचन किया गया है। विवेच्य रचनाओं के चयन में ध्यान इस बात का रखा गया है कि वे किसी संरचनाविशेष का प्रतिनिधित्व करती हों। हिंदी में उपन्यास की संरचना के विवेचन का यह पहला गंभीर प्रयास है। पर यह कितना सफल है, इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे।

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