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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।


जॉन स्टुअर्ट मिल : व्यक्तित्व और विचार



मिल की पुस्तक और स्त्री-प्रश्न पर उनके विचारों की चर्चा के पहले उनकी राजनीतिक-वैचारिक अवस्थितियों से एक संक्षिप्त परिचय जरूरी है, क्योंकि स्त्री-प्रश्न पर उनके विचार उनकी बुनियादी सैद्धान्तिक धारणाओं के ही अंग और उत्पाद थे।

जॉन स्टुअर्ट मिल अपने समय के एक प्रसिद्ध राजनीतिक व्यक्ति थे, लेकिन सबसे पहले वे एक दार्शनिक, राजनीतिक विचारक और अर्थशास्त्री थे। वे एक ऐसे समय में वैचारिक रूप से सक्रिय हए थे जब यूरोप में बर्जआ जनवादी क्रान्तियाँ निर्णायक विजय हासिल कर रही थीं, बुर्जुआ सत्ताएँ स्वयं को सुदृढ़ीकृत कर रही थीं तथा पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक संरचनाएँ तेजी से अपना वर्चस्व स्थापित कर रहीं थीं। पूँजीवाद अभी इतिहास को आगे ले जाने की क्षमता रखता था, अभी पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों के सीमान्तों में उत्पादक शक्तियों के विकास का 'स्कोप' बचा हुआ था, लेकिन पूँजीवाद का शोषक-उत्पीड़क चरित्र और उसके सभी अन्तरविरोध भी एकदम उजागर हो चुके थे। यह साफ हो चुका था कि बुर्जुआ वर्ग प्रबोधनकालीन आदर्शों को त्यागकर, मुक्ति और समता के लाल झण्डे को धूल में फेंक चुका है और मेहनतकशों को हर कीमत पर निचोड़ना माल-उत्पादन की नई व्यवस्था की बुनियादी शर्त है। बुर्जुआ वर्ग अभी सामन्ती अभिजनों से लड़ाई समाप्त भी नहीं कर पाया था कि उजरती गलामों ने धूल में पड़ा मुक्ति का झण्डा उठाकर उसके विरुद्ध लड़ना शुरू कर दिया।

जॉन स्टुअर्ट मिल के चिन्तन में तत्कालीन पूँजीवाद के सभी अन्तरविरोध स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं-पूँजीवाद की बची हुई ऐतिहासिक ऊर्जस्विता भी और उसकी प्रतिगामिता भी। उनके दार्शनिक और आर्थिक विचार प्रत्यक्षवादी दर्शन और क्लासिकी बुर्जुआ अर्थशास्त्र में कुछ जोड़ने-सुधारने के उपक्रम के तौर पर, सार रूप में प्रतिगामी थे। पर समसामयिक राजनीतिक-सामाजिक मसलों पर वे आमूलगामी सुधारों के उत्कट पक्षधर थे। पूँजीवादी आर्थिक-सामाजिक ढाँचे की तमाम बुराइयों (पैसे की पूजा, सम्पत्ति की असमानता, मेहनतकशों का नारकीय जीवन आदि) के वे मुखर आलोचक थे और यदा-कदा पूरे ढाँचे में कुछ बुनियादी बदलावों की बात भी करते थे, लेकिन पूँजीवाद की ऊर्जस्वी तरुणाई के प्रतिनिधि विचारक के रूप में वे यह विश्वास रखते थे कि पूँजीवाद को “सुधारकर" जनकल्याणकारी बनाया जा सकता है। मजदूर वर्ग, उसके संघर्षों, संगठनों और विचारों (उस समय भाँति-भाँति के समाजवादी विचारों से आगे मार्क्स-एंगेल्स प्रवर्तित वैज्ञानिक समाजवाद का विचार अस्तित्व में आ चुका था) की ओर उनका कोई झुकाव नहीं था। समाजवाद को उन्होंने कभी भी विकल्प के रूप में नहीं देखा। पूँजीवादी संसदीय प्रणाली और वैधिक म से परिवर्तन के प्रति वे आस्थावान थे। उनका विचार था कि समाज की चेतना उन्नत करके और जनमत का दबाव बनाकर तथा सार्विक मताधिकार को सच्चे अर्थों में प्रभावी बनाकर पूँजीवादी जनवाद को आदर्श जनवाद बनाया जा सकता है। इस दिशा में अपने उद्यमों-उपक्रमों का वैचारिक आधार वे क्लासिकी बुर्जुआ अर्थशास्त्र और प्रत्यक्षवाद (पॉज़िटिविज्म) के दर्शन में ढूँढ़ते थे और जहाँ इन्हें नाकाफी पाते थे वहाँ भ्रमरवृत्ति से या बहुविचारग्राही (एक्लेक्टिक) ढंग से इनमें कुछ “संशोधन" की कोशिश भी करते थे।

जॉन स्टुअर्ट मिल प्रख्यात ब्रिटिश इतिहासकार, दार्शनिक और अर्थशास्त्री जेम्स मिल के पुत्र थे और दर्शन एवं अर्थशास्त्र में उन्हीं की विचार-परम्परा को कुछ रैडिकल सुधारवादी ढंग से आगे विकसित करने वाले योग्य शिष्य भी। उनका जन्म 20 मई, 1806 को लन्दन में हुआ और मृत्यु 8 मई, 1873 को एवीन्यॉन (फ्रांस) में हुई, पेरिस कम्यून के ठीक दो वर्ष बाद। उनकी वैचारिक-राजनीतिक सक्रियता का पूरा दौर यूरोपीय इतिहास का एक अत्यन्त उथल-पुथल भरा कालखण्ड था।

स्टुअर्ट मिल का प्रारम्भिक वैचारिक प्रशिक्षण पिता जेम्स मिल के मार्गदर्शन में हुआ था। पिता के ही माध्यम से वे बेन्थम, हयूम, बर्कले और हार्टले के दर्शन, राजनीतिक विचार और इतिहास दष्टि से तथा रिकार्डो के राजनीतिक अर्थशास्त्र से प्रभावित हुए।

स्टुअर्ट मिल ने परिघटनाशास्त्रीय प्रत्यक्षवाद (फेनॉमेनॉलाजिकल पॉजिटिविज़्म) की सापेक्षतः अधिक वैज्ञानिक अवस्थिति अपनाकर इंग्लैण्ड के दार्शनिक हलकों में प्रचलित प्रागनुभववाद (अप्रॉयरिज्म) का खण्डन किया। कोम्त के प्रत्यक्षवाद की बहुतेरी दार्शनिक और तार्किक निष्पत्तियों से सहमत होते हुए भी मिल उनके सामाजिक-राजनीतिक विचार-समुच्चय में अन्तर्निहित आध्यात्मिक और राजनीतिक निरंकुशतंत्र की पक्षधरता तथा मानव-स्वतन्त्रता और व्यक्ति की स्वतंत्र अस्मिता या वैयक्तिकता की अवहेलना के प्रखर विरोधी थे। इसी की तार्किक परिणति के तौर पर, कोम्त द्वारा स्त्रियों की सामाजिक-घरेलू दासता के जैविक-समाजशास्त्रीय आधार पर औचित्य-प्रतिपादन के ठीक विपरीत, मिल ने स्त्रियों को पुरुषों के समान सामाजिक-राजनीतिक अधिकार देने की पुरजोर और तर्कपूर्ण वकालत की।

नीतिशास्त्र के क्षेत्र में मिल बेन्थम के प्रत्यक्षवाद से प्रभावित थे जिनका मानना था कि मानव व्यवहार का नैतिक मूल्य इसके द्वारा प्राप्त होने वाले आनन्द से तय होता है। अपने पूर्ववर्ती प्रत्यक्षवादियों की ही तरह मिल ने भी नैतिक अनुभूतियों-आदर्शों के प्रयोगात्मक मूल की अवधारणा से ही प्रस्थान किया लेकिन व्यक्ति की समाज-विमुखता का विरोध करते हुए उन्होंने यह स्थापना दी कि विकसित नैतिक अनभति का प्रकटीकरण अधिकतम व्यक्तिगत सख की कामना में नहीं बल्कि "सर्वाधिक साझा भलाई" की कामना में होता है।

अपने इन्हीं गहरे और 'जेनुइन' मानवतावादी सरोकारों के चलते मिल पूँजीवादी समाज की उन तमाम बुराइयों और मानवद्रोही प्रवृत्तियों के विरोधी थे जो उनके समय में एकदम नग्न रूप में सामने आ रहीं थीं। पर वे "अशिक्षित-असंस्कृत" मजदूरों की इतिहास-निर्माण की सर्जनात्मक शक्ति के प्रति संशयालु थे और उन्हें विश्वास था कि जनवाद के प्रबोधनकालीन आदर्शों को लागू करके तथा क्लासिकी पूँजीवादी अर्थशास्त्र के मूल सिद्धान्तों में कुछ सुधार करके पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय के उस "मेकेनिज़्म" को ठीक किया जा सकता है जो तमाम बुराइयों की जड़ में है। इसी दृष्टि से क्लासिकी बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र के तमाम अन्तर्निहित अन्तरविरोधों के समाधान के लिए उन्होंने जे.बी.से., एन. सीनियर और माल्थस के सिद्धान्तों के सरलीकृत संस्करणों से कुछ पैबन्द लगाने की कोशिशें भी की और श्रम-मूल्य के क्लासिकी सिद्धान्त के स्थान पर लागत-कीमत के भोंड़े सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की। इस सतही पल्लवग्राहिता के लिए कार्ल मार्क्स ने उनकी आलोचना भी की है।

बुर्जुआ उदारतावादी मिल अपने इरादों में निहायत नेक और व्यवहार में आदर्शवादी थे। प्रबोधनकालीन आदर्शों के प्रति वे आस्थावान थे और उनके विचार और व्यवहार में इतिहास का वह कालखण्ड अपने समस्त अन्तरविरोधों सहित प्रतिबिम्बित हो रहा था जब एक ओर यूरोप में, पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति के बचे-खुचे कार्यभार पूरे किये जा रहे थे, दूसरी ओर बुर्जुआ सत्ताएँ मेहनतकशों के आन्दोलनों के उभार को पूरी ताकत लगाकर कुचल रही थीं।

मिल अपने समय के यूरोप के उन तमाम तर्कणावादियों, मानवतावादियों और रैडिकल सुधारवादियों की सीमाओं और अन्तरविरोधों से मुक्त नहीं थे जिनके जनवादी विचारों के अमल की चौहद्दी “विकसित विश्व" से बाहर उपनिवेशों के “अँधेरे" में जी रहे लोगों तक कतई नहीं जाती थी। गौरतलब है कि अमेरिका में, जो ब्रिटेन की औपनिवेशिक दासता से मुक्त एक स्वतंत्र पूँजीवादी देश बन चुका था, जब दासता-विरोधी संघर्ष चल रहा था तो मिल ने इसका पुरजोर समर्थन किया। अमेरिकी गृहयुद्ध में दक्षिण के विरुद्ध उत्तर का समर्थन करते हुए वे पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति के समर्थक थे; लेकिन भारत में, जो ब्रिटेन का उपनिवेश था, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन काल के किसान संघर्षों और 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संघर्ष के सन्दर्भ में उनका यही रुख नहीं दीखता। स्पष्ट है कि उन्नीसवीं सदी के तमाम मानवतावादी, आमूलगामी सुधारवादी ब्रिटिश चिन्तकों की तरह मिल के मानस की निर्मिति भी यूरोकेन्द्रित थी। उपनिवेशों के लोगों तक "ज्ञान-विज्ञान" का आलोक फैलाना वे भी किसी न किसी रूप में "गौरांगों का उत्तरदायित्व" मानते थे और अंग्रेजों द्वारा भारत की अकूत लूट और भारतीयों पर ढाये जा रहे जुल्म के तथ्यों को नजरअन्दाज करने के आरोप से भी उन्हें मुक्त नहीं किया जा सकता।

अपने पिता की ही तरह जॉन स्टुअर्ट मिल भी 1823 से 1858 तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मुलाजिम रहे। 1856 में वे इण्डिया हाउस में 'एक्जामिनर्स ऑफिस' के प्रमुख थे। 1857 के भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के कुचले जाने के बाद, 1858 में विक्टोरिया की घोषणा द्वारा जब भारत को सीधे ब्रिटिश साम्राज्य में उपनिवेश के रूप में शामिल कर लिया गया और ईस्ट इण्डिया कम्पनी भंग कर दी गयी, तो नवगठित कौंसिल में भी मिल को स्थान प्रस्तावित किया गया जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया और पेंशनयाफ्ता जीवन बिताते हए सैद्धान्तिक कार्यों पर ज्यादा समय खर्च करने लगे। मिल की अवकाश-प्राप्ति के तत्काल बाद ही उनकी पत्नी श्रीमती हैरियट का एवीन्यॉन (फ्रांस) में देहान्त हो गया। इसके बाद मिल ने अपने जीवन का अधिकांश समय एवीन्यॉन के ही नजदीक सैंत-वीरों में बिताया। बीच-बीच में, हर साल वे कुछ समय के लिए ब्लैकहीथ स्थित अपने घर आते रहते थे।

1865 से 1868 के बीच मिल 'हाउस ऑफ कामन्स' के सदस्य रहे। इस दौरान उन्होंने विविध उदारवादी और जनवादी सुधारों का समर्थन किया जिसके चलते आम नागरिकों के बीच उनकी लोकप्रियता काफी व्यापक हो गयी। वैसे पहले से ही उनके सम्मान और लोकप्रियता का आलम यह था कि वेस्टमिन्स्टर से चुनाव लड़ते समय समर्थकों के लाख आग्रह के बावजूद उन्होंने न तो अपना चुनाव प्रचार किया, न ही इसके लिये कोई एजेण्ट नियुक्त किया, अपने चुनाव क्षेत्र के व्यापारियों की मीटिंग में भाग लेने का अनुरोध भी उन्होंने ठुकरा दिया, लेकिन इसके बावजूद वे विजयी रहे।

बाद में मिल के रैडिकल विचारों से, और फ्रीथिंकर और रैडिकल राजनीतिज्ञ चार्ल्स ब्रैडलाफ का चुनावी खर्च उठाने के उनके फैसले से तथा जमैका के गवर्नर ई. जे. आयर की उनके द्वारा आलोचना से बुर्जुआ अभिजनों की सख्त नाराजगी के कारण 1868 के चुनाव में उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। इसके बाद राजनीतिक सक्रियता से अवकाश लेकर मिल एवीन्यॉन में रहते हुए दार्शनिक विषयों पर अपने चिन्तन और लेखन के कार्य में आखिरी साँस तक लगे रहे। साथ ही, मानवीय सरोकारों से प्रेरित उनकी छिटपुट गतिविधियाँ भी जारी रहीं, जिनमें स्त्रियों के अधिकारों के लिए जारी आन्दोलनों को उनका समर्थन भी प्रमुख था।

हाउस ऑफ कॉमन्स' की अपनी सदस्यता के दौरान मिल ने 1867 में स्त्रियों को मताधिकार देने का प्रस्ताव रखा था जो पारित नहीं हुआ। इसके तुरन्त बाद, 1867 में श्रीमती पी.ए. टेलर, एमिली डेवीज़ आदि के साथ मिलकर पहली स्त्री मताधिकार सोसाइटी की स्थापना भी मिल ने ही की थी। इसके बाद जल्दी ही यह एक देशव्यापी लहर बन गयी। _ अपनी पुस्तक 'स्त्रियों की पराधीनता' मिल 1861 में लिख चुके थे, लेकिन 1869 में वह पहली बार प्रकाशित हुई। प्रकाशित होते ही यह पुस्तक व्यापक चर्चा और विवाद का विषय बन गयी और कुछ ही वर्षों के भीतर पूरे यूरोप के पैमाने पर स्त्री आन्दोलन को एक नया संवेग देने में इसने सफलता हासिल की।

मिल की आखिरी सार्वजनिक गतिविधि भूमि काश्तकारी सुधार एसोसियेशन की स्थापना और भूमि-सुधारों के पक्ष में लेखन और भाषण देने जैसी कार्रवाइयाँ थीं जो उनकी मृत्यु के कुछ माह पहले तक चलती रहीं। उल्लेखनीय है कि अपने भूमि-कार्यक्रम में मिल ने भूमि पर अनर्जित बढ़ोत्तरी का राज्य द्वारा अधिग्रहण कर लेने तथा सहकारी खेती को बढ़ावा देने का प्रस्ताव रखा था जिसे वे पूरे यूरोप में आसन्न श्रम और पूँजी के बीच के संघर्ष को देखते हुए एक “समयानुकूल समझौता" मानते थे।

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