भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी नाटक उद्भव और विकास हिन्दी नाटक उद्भव और विकासदशरथ ओझा
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प्रस्तुत है संशोधित तथा परिवर्द्धति संस्करण....
Hindi Natak Udbbhav Aur Vikas
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारत के विभिन्न लोक-नाट्यों, संस्कृत-अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी, पुरानी राजस्थानी, पुरानी गुजराती में विरचित एवं असम से पंचनद तथा नेपाल से कर्नाटक तथा अभिनीत प्राचीन नाट्य-साहित्य की खोज का ऐसा प्रमाणिक शोध-कार्य अभी तक किसी अन्य भारतीय भाषा में प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। असम के अंकिया नाटक एवं वैष्णव-जैन रास नाटकों की भाषा, उनकी अभिनय कला का विश्लेषण ग्रन्थ की महत्ता को अखिल भारतीय स्तर पर पहुँचा देता है।
आचार्य क्षितिमोहन सेन
भूमिका
यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि मेरे मित्र डॉ० दशरथ ओझा की यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी नाटकः उद्भव और विकास’ प्रकाशित हो रही। पुस्तक मूल रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय की पी० एच-डी० उपाधि के लिए निबन्ध-रूप में प्रस्तुत की गई थी। विश्वविद्यालय ने सन्तुष्ट होकर उन्हें यह उपाधि प्रदान की। अब यह बृहत्तर पाठक-सामाज के सामने आ रही है।
ओझाजी संस्कृत और हिन्दी के गम्भीर विद्वान् हैं। केवल विद्वान ही नहीं, रचनात्मक रस-साहित्य के निर्माता भी हैं। उन्होंने कई उत्तम नाटक लिखे हैं। वे दीर्घकाल से हिन्दी और संस्कृत साहित्य का अध्यापन करते हैं। उनके अध्यापन और अनुभव दोनों ही व्यापक हैं। परन्तु इन सबके ऊपर है ओझाजी का शील और सौजन्य। विद्या और शील के मणिकांचन योग ने उनके व्यक्तित्व को अद्भुत गरिमा दी है। उनके दुर्बल शरीर में जो कल्पों और उपवासों से प्रतिवर्ष कुछ और क्षीण हो जाया करता है- विचित्र कार्यकारी क्षमता है। सबकी सहायता करने को प्रस्तुत, सबके लिए सदा कुछ न कुछ करने को बद्ध-परिकर !
प्रस्तुत पुस्तक में ओझाजी ने हिन्दी नाटकों की दीर्घकालीन परम्परा और उनकी विशाल पृष्ठभूमि का अध्ययन किया है। यद्यपि हिन्दी में नये ढंग से बहुत नाटक हाल में लिखे जाने लगे है, परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि हिन्दी नाटकों की परम्परा नई शुरू हई है। हिन्दी के लोकनाट्य की परम्परा बहुत पुरानी है। संस्कृत-साहित्य से हम उसके अंश-मात्र से परिचित हो सकते हैं। परन्तु पूरी लोक परम्परा का ज्ञान हमें उस साहित्य के द्वारा नहीं हो सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि संस्कृत के साहित्यकार लोक-परम्परा के बहुत-से रूपकों और उपरूपकों का भी आकलन अपने ग्रन्थों में कर लेते थे- कई रूपक-भेदों के तो उदाहरण भी संस्कृत-साहित्य में नहीं मिलते, क्योंकि मूलतः वे लोकप्रचलित मनोरंजन-मात्र थे—
परन्तु फिर भी उससे पूरी लोक-परम्परा का ज्ञान नहीं होता, केवल इस प्रकार की विशाल परम्परा का आभास मात्र मिल जाता है। ओझाजी ने परिश्रम के साथ उन संकेतों को ढूँढ़ा है और प्राकृत, अपभ्रंश आदि पूर्ववर्ती और बंगला, गुजराती आदि पार्श्ववर्ती साहित्यकारों में पाए जानेवाले संकेतों के आधार पर नाटकीय परम्परा के छिन्न सूत्रों को खोज निकालने का प्रयास किया है। रास-लीला के उद्भव और विकास का उन्होंने नवीन रूप में अध्ययन किया और महत्वपूर्ण निष्कर्षों पर पहुँचे हैं। हिन्दी नाटकों के अध्ययन के लिए जिस प्रकार पुराने साहित्य के इंगित सहायक हैं, उसी प्रकार लोक-परम्परा के अनेक मनोरंजक नाट्यरूप भी सहायक हैं। ओझाजी ने सावधानी से दोनों परम्पराओं के सम्भावित प्रभावों के
अध्ययन का प्रयास किया है। बिलकुल आरम्भिक हिन्दी नाट्य-परम्परा के संबंध में ओझा जी का कहना है कि :
‘‘तेरहवीं शताब्दी में एक ओर तो कण्हप-काल से चली आने वाली स्वांग की नाट्य-परम्परा थी, जिसके नाटक डोम और डोमनियों द्वारा अभिनीत होते थे, दूसरी परम्परा रास की थी, जिसका अभिनय बहुरूपिए अथवा जिन-सेवक किया करते थे। पहली परम्परा समाज में उतनी समादृत न थी, जितनी दूसरी। यह दूसरी परम्परा ही मध्यमवर्ग और धार्मिक जनता का मनोरंजन तथा रुचि तथा परिमार्जन कर रही थी। बहु-रूपियों द्वारा नाटकों का अभिनय मन्दिरों के बाहर होता था, किन्तु जैन-मंदिरों में अभिनयकर्ता जैन धर्म के सेवक हुआ करते थे। प्रमाण के लिए ‘जम्बूस्वामी चरित’ का उद्धवरण देखिए—
ओझाजी संस्कृत और हिन्दी के गम्भीर विद्वान् हैं। केवल विद्वान ही नहीं, रचनात्मक रस-साहित्य के निर्माता भी हैं। उन्होंने कई उत्तम नाटक लिखे हैं। वे दीर्घकाल से हिन्दी और संस्कृत साहित्य का अध्यापन करते हैं। उनके अध्यापन और अनुभव दोनों ही व्यापक हैं। परन्तु इन सबके ऊपर है ओझाजी का शील और सौजन्य। विद्या और शील के मणिकांचन योग ने उनके व्यक्तित्व को अद्भुत गरिमा दी है। उनके दुर्बल शरीर में जो कल्पों और उपवासों से प्रतिवर्ष कुछ और क्षीण हो जाया करता है- विचित्र कार्यकारी क्षमता है। सबकी सहायता करने को प्रस्तुत, सबके लिए सदा कुछ न कुछ करने को बद्ध-परिकर !
प्रस्तुत पुस्तक में ओझाजी ने हिन्दी नाटकों की दीर्घकालीन परम्परा और उनकी विशाल पृष्ठभूमि का अध्ययन किया है। यद्यपि हिन्दी में नये ढंग से बहुत नाटक हाल में लिखे जाने लगे है, परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि हिन्दी नाटकों की परम्परा नई शुरू हई है। हिन्दी के लोकनाट्य की परम्परा बहुत पुरानी है। संस्कृत-साहित्य से हम उसके अंश-मात्र से परिचित हो सकते हैं। परन्तु पूरी लोक परम्परा का ज्ञान हमें उस साहित्य के द्वारा नहीं हो सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि संस्कृत के साहित्यकार लोक-परम्परा के बहुत-से रूपकों और उपरूपकों का भी आकलन अपने ग्रन्थों में कर लेते थे- कई रूपक-भेदों के तो उदाहरण भी संस्कृत-साहित्य में नहीं मिलते, क्योंकि मूलतः वे लोकप्रचलित मनोरंजन-मात्र थे—
परन्तु फिर भी उससे पूरी लोक-परम्परा का ज्ञान नहीं होता, केवल इस प्रकार की विशाल परम्परा का आभास मात्र मिल जाता है। ओझाजी ने परिश्रम के साथ उन संकेतों को ढूँढ़ा है और प्राकृत, अपभ्रंश आदि पूर्ववर्ती और बंगला, गुजराती आदि पार्श्ववर्ती साहित्यकारों में पाए जानेवाले संकेतों के आधार पर नाटकीय परम्परा के छिन्न सूत्रों को खोज निकालने का प्रयास किया है। रास-लीला के उद्भव और विकास का उन्होंने नवीन रूप में अध्ययन किया और महत्वपूर्ण निष्कर्षों पर पहुँचे हैं। हिन्दी नाटकों के अध्ययन के लिए जिस प्रकार पुराने साहित्य के इंगित सहायक हैं, उसी प्रकार लोक-परम्परा के अनेक मनोरंजक नाट्यरूप भी सहायक हैं। ओझाजी ने सावधानी से दोनों परम्पराओं के सम्भावित प्रभावों के
अध्ययन का प्रयास किया है। बिलकुल आरम्भिक हिन्दी नाट्य-परम्परा के संबंध में ओझा जी का कहना है कि :
‘‘तेरहवीं शताब्दी में एक ओर तो कण्हप-काल से चली आने वाली स्वांग की नाट्य-परम्परा थी, जिसके नाटक डोम और डोमनियों द्वारा अभिनीत होते थे, दूसरी परम्परा रास की थी, जिसका अभिनय बहुरूपिए अथवा जिन-सेवक किया करते थे। पहली परम्परा समाज में उतनी समादृत न थी, जितनी दूसरी। यह दूसरी परम्परा ही मध्यमवर्ग और धार्मिक जनता का मनोरंजन तथा रुचि तथा परिमार्जन कर रही थी। बहु-रूपियों द्वारा नाटकों का अभिनय मन्दिरों के बाहर होता था, किन्तु जैन-मंदिरों में अभिनयकर्ता जैन धर्म के सेवक हुआ करते थे। प्रमाण के लिए ‘जम्बूस्वामी चरित’ का उद्धवरण देखिए—
‘‘चंचरिया बांधि विरहउ सरसु, गाहज्जइ संतिउ तारू जसु,
नच्चिज्जइ जिणाजय सेवकहि, किउ राउस अम्बादेव यहिं।
नच्चिज्जइ जिणाजय सेवकहि, किउ राउस अम्बादेव यहिं।
‘‘इस उद्धवरण से यह ज्ञात होता है कि अम्बा देवी रास का अभिनय जिन-सेवकों के नृत्य द्वारा प्रदर्शित किया जाता था। इस काल के लगभग चार सौ रास ग्रन्थ उपल्बध हो चुके हैं, जिनके परिशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इनका कथानक होता था-
‘‘(1) धार्मिक,
(2) ऐतिहासिक,
(3) पौराणिक,
(4) आध्यात्मिक,
(5) नैतिक,
(6) लौकिक प्रेम-संबंधी।
‘‘उपर्युक्त विभाग कथानक की दृष्टि से किया गया है। वस्तु विभाग की दृष्टि से निम्नलिखित भेद किए जा सकते हैं—
‘‘(1) एकांकी, (2) दो अधिकार के नाटक (3) दो से अधिक खण्डों के नाटक, (4) मुख्यतः पाठ्यरास।
‘‘इन ग्रंथों में जो पद्धति सर्वत्र समान रूप से पायी जाती है, वह है संगीत की। सभी रास विविध छन्दों में राग-रागनियों के निर्देशन के साथ मंगलाचरण और प्रशस्ति-समन्वित हैं। आश्चर्य तो यह है कि यही पद्धति बंगाल में प्रचलित यात्रा-नाटकों में, महाराष्ट्र में अभिनीत दशावतारी नाटकों में तथा गुजरात में प्राप्त भवाई नाटकों में भी विद्यामान थी ! ऐसा प्रतीत होता है कि देश का जनमत उस काल में गद्य की अपेक्षा संगीतमय काव्य के पक्ष में अधिक था। यद्यपि किसी-किसी रास में रंगमंच-निर्देश गद्य में मिलता है, किन्तु ऐसे स्थल नगण्य हैं।’’
हिन्दी-नाट्यकारों में ओझाजी ने विशेष रूप से भारतेन्दु हरिशचन्द्र और प्रसादजी का अध्ययन किया है। सहृदय पाठक देखेंगे कि इस क्षेत्र में ओझाजी की दृष्टि में भी स्वकीयता है और नई सूचानाएँ भी उन्होंने दी हैं। भारतेन्दु हरिशचन्द्र के बारे में अपनी आलोचना का उपसंहार करते हुए वे लिखते हैं:
‘‘भारतेन्दुजी के एक-एक नाटक का हम विस्तृत विवेचन कर आए हैं। उस विवेचन से हम यह निष्कर्ष निकाल सके हैं कि भारतेन्दुजी ने परम्परागत भारतीय नाट्य पद्धति के प्रवाह में यूरोपीय नाट्य-कला की धारा संयुक्त कर दी। परीक्षा के लिए उन्होंने अपने प्रारम्भिक नाटकों में दोनों शैलियों को अलग किया और कथानक के अनुकूल जो पद्धति प्रतीत हुई, उसी को स्वीकार कर लिया। रचना शैली में उन्होंने माध्यम मार्ग पकड़ा-न तो अंग्रेजी नाटकों का अन्धानुकरण किया और न बंगला नाटकों की भारतीय शैली की नितान्त उपेक्षा ही की; साथ-साथ प्राचीन नाट्य-शास्त्र के गहन आवर्त में अपनी-नौका भी न फंसने दी। तात्पर्य यह कि नाटक के गतिरोध करने वालों सभी बन्धनों से उन्होंने अपने को मुक्त रखा। नाटक की सामग्री भी उन्होंने जीवन के विविध क्षेत्रों—श्रृंगार, शौर्य, करुणा आदि से ग्रहण की। इस विषय में उन्होंने अपनी दृष्टि इतनी व्यापाक रखी कि जिससे संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, सभी प्रकार के नाटक-रस से रस खींचा जा सके।’’
इस प्रकार काफी व्यापक दृष्टि लेकर उन्होंने हिन्दी नाटकों का अध्ययन किया है और बहुत ही महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों पर पहुँचे हैं। ये निष्कर्ष निस्सन्देह विद्वानों के परीक्षण और मनन की उपेक्षा रखते हैं। परन्तु इतना कहने में हमें कोई संकोच नहीं कि प्रथम बार इतनी विशाल पटभूमि पर रखकर हिन्दी के नाटक देखे बांचे गए हैं। मेरा विश्वास है कि इस पुस्तक से हिन्दी-नाटकों के अध्ययन को बहुत बल मिलेगा और यह हिन्दी-संसार के विद्यार्थियों द्वारा-मान प्राप्त करेगी।
‘‘(1) धार्मिक,
(2) ऐतिहासिक,
(3) पौराणिक,
(4) आध्यात्मिक,
(5) नैतिक,
(6) लौकिक प्रेम-संबंधी।
‘‘उपर्युक्त विभाग कथानक की दृष्टि से किया गया है। वस्तु विभाग की दृष्टि से निम्नलिखित भेद किए जा सकते हैं—
‘‘(1) एकांकी, (2) दो अधिकार के नाटक (3) दो से अधिक खण्डों के नाटक, (4) मुख्यतः पाठ्यरास।
‘‘इन ग्रंथों में जो पद्धति सर्वत्र समान रूप से पायी जाती है, वह है संगीत की। सभी रास विविध छन्दों में राग-रागनियों के निर्देशन के साथ मंगलाचरण और प्रशस्ति-समन्वित हैं। आश्चर्य तो यह है कि यही पद्धति बंगाल में प्रचलित यात्रा-नाटकों में, महाराष्ट्र में अभिनीत दशावतारी नाटकों में तथा गुजरात में प्राप्त भवाई नाटकों में भी विद्यामान थी ! ऐसा प्रतीत होता है कि देश का जनमत उस काल में गद्य की अपेक्षा संगीतमय काव्य के पक्ष में अधिक था। यद्यपि किसी-किसी रास में रंगमंच-निर्देश गद्य में मिलता है, किन्तु ऐसे स्थल नगण्य हैं।’’
हिन्दी-नाट्यकारों में ओझाजी ने विशेष रूप से भारतेन्दु हरिशचन्द्र और प्रसादजी का अध्ययन किया है। सहृदय पाठक देखेंगे कि इस क्षेत्र में ओझाजी की दृष्टि में भी स्वकीयता है और नई सूचानाएँ भी उन्होंने दी हैं। भारतेन्दु हरिशचन्द्र के बारे में अपनी आलोचना का उपसंहार करते हुए वे लिखते हैं:
‘‘भारतेन्दुजी के एक-एक नाटक का हम विस्तृत विवेचन कर आए हैं। उस विवेचन से हम यह निष्कर्ष निकाल सके हैं कि भारतेन्दुजी ने परम्परागत भारतीय नाट्य पद्धति के प्रवाह में यूरोपीय नाट्य-कला की धारा संयुक्त कर दी। परीक्षा के लिए उन्होंने अपने प्रारम्भिक नाटकों में दोनों शैलियों को अलग किया और कथानक के अनुकूल जो पद्धति प्रतीत हुई, उसी को स्वीकार कर लिया। रचना शैली में उन्होंने माध्यम मार्ग पकड़ा-न तो अंग्रेजी नाटकों का अन्धानुकरण किया और न बंगला नाटकों की भारतीय शैली की नितान्त उपेक्षा ही की; साथ-साथ प्राचीन नाट्य-शास्त्र के गहन आवर्त में अपनी-नौका भी न फंसने दी। तात्पर्य यह कि नाटक के गतिरोध करने वालों सभी बन्धनों से उन्होंने अपने को मुक्त रखा। नाटक की सामग्री भी उन्होंने जीवन के विविध क्षेत्रों—श्रृंगार, शौर्य, करुणा आदि से ग्रहण की। इस विषय में उन्होंने अपनी दृष्टि इतनी व्यापाक रखी कि जिससे संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, सभी प्रकार के नाटक-रस से रस खींचा जा सके।’’
इस प्रकार काफी व्यापक दृष्टि लेकर उन्होंने हिन्दी नाटकों का अध्ययन किया है और बहुत ही महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों पर पहुँचे हैं। ये निष्कर्ष निस्सन्देह विद्वानों के परीक्षण और मनन की उपेक्षा रखते हैं। परन्तु इतना कहने में हमें कोई संकोच नहीं कि प्रथम बार इतनी विशाल पटभूमि पर रखकर हिन्दी के नाटक देखे बांचे गए हैं। मेरा विश्वास है कि इस पुस्तक से हिन्दी-नाटकों के अध्ययन को बहुत बल मिलेगा और यह हिन्दी-संसार के विद्यार्थियों द्वारा-मान प्राप्त करेगी।
हजारी प्रसाद द्विवेदी
काशी
आभार प्रदर्शन
हिन्दी नाटक के उद्भव-स्रोत की प्रेरणा आचार्य द्विवेदी जी से शांति निकेतन में सन् 1947 में मिली। इसी खोज में संपूर्ण उत्तर भारत की यात्रा करते हुए असम, मिथिला, नेपाल, पंजाब, गुजरात, राजस्थान के हस्तलिखित ग्रंथों से अंकिया नाट, रास, यात्रा, नौटंकी आदि के प्रदर्शन से मूल-स्रोत का पता चला। आचार्य क्षितिमोहन सेन, आचार्य द्विवेदी, आचर्य बाजपेयी और जगदीशचन्द्र माथुर के समर्थन पर उद्भव का स्रोत मन में दृढ़ हो गया। आज सारा देश ही नहीं, अमेरिकन प्रोफेसर ‘नॉरविन हेन’ ने भी हमारे उद्भव संबंधी सिद्धान्तों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। मैं अपने इन दिवंगत मनीषियों के प्रति श्रद्धांजलि और नॉरविन हेन के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में आधुनिक काल के इतिहास की प्रेरणा विद्याव्यसनी प्रकाशक भाई विश्वनाथजी से मिली। वे अपने साहसिक कार्यों के संबंध में कई बार अमेरिका, रूस, चीन, यूरोप की यात्रा करते रहे हैं। छह वर्ष पहले एक बार वे पश्चिमी देशों के नाट्य-साहित्य और रंगमंच का विधिवत अध्ययन करके लौटे थे। उन्होंने विभिन्न देशों की नाट्यशालाओं में आर्थर मिलर’ टेनेसी विलियम, ब्रेख्त, बेकेट तथा रूसी एवं चीनी नाट्यकारों की कृतियों का प्रदर्शन अपनी आँखों से देखा था। उनसे इन देशों की नवीन गतिविधि की कितनी ही कौतुहलवर्धक बातें सुनने में आईं। उन्होंने विदेशी नव नाट्य-साहित्य का अध्ययन करने के लिए मुझे सामग्री दी।
उन पुस्तकों के अतिरिक्त रूसी, अमेरिकन, जर्मन और ब्रिट्रिश लाइब्रेरियों से नवीनतम ग्रन्थ उपलब्ध करता रहा। मेरे मित्र डॉ. के. एल. गाँधी रूस में वर्षों तक भारतीय दूतावास के उच्चाधिकारी थे। अतः रूसी नाटक और रंगमंच की नवीन गतिविधियों से साक्षात् परिचय प्राप्त करना उनके लिए सहज और सुगम था। उनके परिवार और रूसी मित्रों से रूसी नव नाट्यान्दोलन की गतिविधि समझने में बड़ी सहायता मिली। अमेरिका में दस वर्ष तक अध्यापन कार्य करने वाले प्रोफेसर अंजनिकुमार सिन्हा, मेरे घर पर कई दिन निवास करने वाले जर्मन नाट्य-प्रेमी श्री स्टाडिच (Stodich) आदि मित्रों से विदेशी नाटय-चिन्तन समझने में सहायता मिली। अतः इनका आभारी हूँ। भाई नेमिचन्द्र के सहयोग—परामर्श और कृतियों से मुझे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का योगदान स्पष्ट हुआ। हिन्दी की एक मात्र उच्चकोटि की नाट्य-पत्रिका ‘नटरंग’ उनके एकाकी प्रयास का परिणाम है। इसकी पुरानी प्रतियाँ इतिहास लेखक और नाटय-प्रेमियों के लिए सन्दर्भ ग्रंथ बन गयी हैं।
वेकेट, ब्रेख्त, आइवोनेस्को, ओनील, मिलर आदि के सम्बन्ध में मुझे इनके विचारों से बड़ी प्रेरणा मिली है। अतः मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। दिल्ली के अंग्रेजी प्रो० डॉ० उर्मिल खन्ना ने अनेक बार समय निकालकर ब्रिटेन और अमेरिका नाट्य प्रवृतियाँ समझाईं।
वह ब्रिट्रिश नाटकों पर नया ग्रन्थ लिख रही है, उनका आभार कैसे व्यक्त करूं। नेशनल ड्रामा को समद्ध बनाने में जीवन उत्सर्ग करने वाले स्वर्गीय जगदीशचन्द्र माथुर से भारतीय एवं विदेशी नाट्य गतिविधियां उनके जीवनकाल में स्पष्ट रहीं। उनके साथ प्राचीन भाषा नाटक पर दस वर्ष तक काम किया। यह संस्करण उनकी प्रेरणा का परिणाम है, अतः मैं उन्हें श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।
मेरा सौभाग्य रहा है कि अयोध्यासिंह उपाध्याय से लेकर आज के युवा प्रतिनिधि नाट्ययकारों के साथ मैं सीधा सम्पर्क कर पाया हूँ। 1930 में चित्तौड़ की देवी’ नामक मेरे नाटक को पढ़कर अयोध्यासिंह उपध्याय और जयशंकर प्रसाद ने मुझे नाट्य-क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा दी। उन्हीं लोगों के आशीर्वाद से मेरे कितने ही छात्र आज नाट्य-जगत के जाज्वल्य रत्न बन रहे हैं। अतः सभी जीवित नाट्यकारों से साक्षात् परिचय या पत्र-व्यहार करके यह नया संस्करण तैयार कर रहा हूँ। मैं इन सभी मित्रों का आभारी हूँ।
अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में आधुनिक काल के इतिहास की प्रेरणा विद्याव्यसनी प्रकाशक भाई विश्वनाथजी से मिली। वे अपने साहसिक कार्यों के संबंध में कई बार अमेरिका, रूस, चीन, यूरोप की यात्रा करते रहे हैं। छह वर्ष पहले एक बार वे पश्चिमी देशों के नाट्य-साहित्य और रंगमंच का विधिवत अध्ययन करके लौटे थे। उन्होंने विभिन्न देशों की नाट्यशालाओं में आर्थर मिलर’ टेनेसी विलियम, ब्रेख्त, बेकेट तथा रूसी एवं चीनी नाट्यकारों की कृतियों का प्रदर्शन अपनी आँखों से देखा था। उनसे इन देशों की नवीन गतिविधि की कितनी ही कौतुहलवर्धक बातें सुनने में आईं। उन्होंने विदेशी नव नाट्य-साहित्य का अध्ययन करने के लिए मुझे सामग्री दी।
उन पुस्तकों के अतिरिक्त रूसी, अमेरिकन, जर्मन और ब्रिट्रिश लाइब्रेरियों से नवीनतम ग्रन्थ उपलब्ध करता रहा। मेरे मित्र डॉ. के. एल. गाँधी रूस में वर्षों तक भारतीय दूतावास के उच्चाधिकारी थे। अतः रूसी नाटक और रंगमंच की नवीन गतिविधियों से साक्षात् परिचय प्राप्त करना उनके लिए सहज और सुगम था। उनके परिवार और रूसी मित्रों से रूसी नव नाट्यान्दोलन की गतिविधि समझने में बड़ी सहायता मिली। अमेरिका में दस वर्ष तक अध्यापन कार्य करने वाले प्रोफेसर अंजनिकुमार सिन्हा, मेरे घर पर कई दिन निवास करने वाले जर्मन नाट्य-प्रेमी श्री स्टाडिच (Stodich) आदि मित्रों से विदेशी नाटय-चिन्तन समझने में सहायता मिली। अतः इनका आभारी हूँ। भाई नेमिचन्द्र के सहयोग—परामर्श और कृतियों से मुझे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का योगदान स्पष्ट हुआ। हिन्दी की एक मात्र उच्चकोटि की नाट्य-पत्रिका ‘नटरंग’ उनके एकाकी प्रयास का परिणाम है। इसकी पुरानी प्रतियाँ इतिहास लेखक और नाटय-प्रेमियों के लिए सन्दर्भ ग्रंथ बन गयी हैं।
वेकेट, ब्रेख्त, आइवोनेस्को, ओनील, मिलर आदि के सम्बन्ध में मुझे इनके विचारों से बड़ी प्रेरणा मिली है। अतः मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। दिल्ली के अंग्रेजी प्रो० डॉ० उर्मिल खन्ना ने अनेक बार समय निकालकर ब्रिटेन और अमेरिका नाट्य प्रवृतियाँ समझाईं।
वह ब्रिट्रिश नाटकों पर नया ग्रन्थ लिख रही है, उनका आभार कैसे व्यक्त करूं। नेशनल ड्रामा को समद्ध बनाने में जीवन उत्सर्ग करने वाले स्वर्गीय जगदीशचन्द्र माथुर से भारतीय एवं विदेशी नाट्य गतिविधियां उनके जीवनकाल में स्पष्ट रहीं। उनके साथ प्राचीन भाषा नाटक पर दस वर्ष तक काम किया। यह संस्करण उनकी प्रेरणा का परिणाम है, अतः मैं उन्हें श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।
मेरा सौभाग्य रहा है कि अयोध्यासिंह उपाध्याय से लेकर आज के युवा प्रतिनिधि नाट्ययकारों के साथ मैं सीधा सम्पर्क कर पाया हूँ। 1930 में चित्तौड़ की देवी’ नामक मेरे नाटक को पढ़कर अयोध्यासिंह उपध्याय और जयशंकर प्रसाद ने मुझे नाट्य-क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा दी। उन्हीं लोगों के आशीर्वाद से मेरे कितने ही छात्र आज नाट्य-जगत के जाज्वल्य रत्न बन रहे हैं। अतः सभी जीवित नाट्यकारों से साक्षात् परिचय या पत्र-व्यहार करके यह नया संस्करण तैयार कर रहा हूँ। मैं इन सभी मित्रों का आभारी हूँ।
जन्माष्टमी, 2040
दशरथ ओझा
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