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हास्य-व्यंग्य >> चकल्लस

चकल्लस

अमृतलाल नागर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1421
आईएसबीएन :9789350643976

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नागर जी की चुनी हुई श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य रचनाएं...

Rajendra Yadav Sankalit Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अमृतलाल नागर के लेखन की एक बड़ी विशेषता हास्य-व्यंग्य की उनकी रचनाएं हैं जो अपने ढंग की अनोखी हैं और जिनकी संख्या भी कुछ कम नहीं है। यह समय-समय पर विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं तथा संग्रहों में निकलीं। लोगों ने इन्हें पसंद किया तो चकल्लस के नाम से उन्होंने एक पत्र भी निकाला जिसका साहित्य के इतिहास में अपना एक विशेष स्थान बन गया।
हिन्दी में हास्य-व्यंग्य की श्रेष्ठ रचनाओं की सदा कमी रही है परंतु प्रख्यात लेखक अमृतलाल नागर ने इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान किया है- उन्होंने चकल्लस नाम से एक पत्रिका भी निकाली थी जो काफी सफल रही। चकल्लस में नागर जी की चुनी हुई श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य रचनाएं।

 

भूमिका

ये संकलित रचनाएँ कुछ तो विनोदी मौजों में लिखी गई थीं और कुछ आकाशवाणी तथा कुछ पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी। इस संग्रह का नाम मैंने इसीलिए मूलतः रंग-तंरग रखा था किन्तु भाई विश्वनाथ जी को इसमें मेरी मनोसंगति ‘चकल्लस’ शब्द से शायद कुछ अधिक सटीक बैठती नज़र आई। खैर। मुझे यह नाम भी सादर, सप्रेम स्वीकार है। वैसे मेरी इच्छा थी कि अपने चकल्लस पत्र की पुरानी फाइलों का एक संग्रह अलग से प्रकाश में आता तो रसिक पाठकों के मनोरंजनार्थ हास्य-विनोद और व्यंग्य के कई बहारदार नमूने फिर से सुलभ हो जाते। चकल्लस के ‘भाभी अंक’ और ‘एप्रिल फूल अंक’ में पुराने साहित्य महारथियों की अनेक रचनाएं अब भी पढ़ने पर मज़ा दे जाती हैं। ‘चकल्लस’ के इन्हीं दो विशेषांकों पर मुझे आचार्य महावीर प्रसाद जी द्विवेदी से दो सर्टिफिकेट भी प्राप्त हुए थे।

मैंने आज की शैली के अनुसार विशुद्ध व्यंग्य नहीं लिखा, सहज मस्ती-भरा मन पाया, जब जैसी मौज आई वैसी ही रंग तरंगों में स्वयं बहकर अपने पाठकों को भी बहाता रहा। इस संग्रह की अनेक रचनाओं पर मुझे सराहना के मौखिक और लिखित शब्द पदक प्राप्त हुए थे। उन्हीं से प्रेरित होकर इन रचनाओं को पुस्तक रूप में प्रकाशित कराने की इच्छा भी हुई। मेरे छोटे पुत्र डॉ. शरद नागर ने इन रचनाओं को श्रम से सहेजकर रखा और संजोया, इसके लिए वह मेरे आशीर्वाद के पात्र हैं।
अमृतलाल नागर

 

तथागत नई दिल्ली में

 

कुशीनारा में भगवान बुद्ध की विश्राम करती हुई मूर्ति के चरणों में बैठकर चैत्रपूर्णिमा की रात्रि में आनंद ने कहा-‘‘शास्ता, अब समय आ गया है।’’
भगवान बुद्ध की मूर्ति ने अपने चरणों के निकट बैठे इस जन्म के बृषभ देह आनंद से पूछा-‘‘कैसा समय आवुस्स?’’
‘दिल्ली चलने का भगवान।’’
भगवान थोड़ी देर मौन सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘आवुस्स युग के प्रभाव से मैं जड़ हो गया हूँ। देखते नहीं मूर्ति के रूप में मैं यहां जैसा लिटा दिया गया, वैसा ही लेटा हूं, जहां जिसने बैठा दिया बैठा हूं, खड़ा किया तो खड़ा हूं, तोड़ डाला गया तो टूटा पड़ा हूं। इस जड़ता के कारण मेरी स्मृति समाधिस्थ है आनंद, उसे निर्वाण निद्रा से जगाओ तभी सम्यक सम्बुद्ध तुम्हारी बात पर विचार कर पायेंगे।’’

इस जन्म के वृषभ देह आनंद बोले-‘‘जागिए भगवान स्मरण कीजिए कि परिनिर्वाण प्राप्त करने के लिए जब आप वैशाली छोड़कर इस छोटे से जंगली और झाड़ झंझाड़ वाले जंगल कुशीनारा में पदार्पण का विचार करने लगे तब आपका यह विचार मुझे पसंद नहीं आया था। मैं चाहता था कि आपके परिनिर्वाण प्राप्त करने के योग्य स्थान कोई बड़ा नगर ही होना चाहिए। जैसे चम्पा, राजगृह, श्रावास्ती, साकेत, कोशाम्बी, वाराणसी आदि थे, वहां उस समय आपके अनेक महाधनी क्षत्रिय ब्राह्मण और वैश्य शिष्य थे वे आपके शरीर की पूजा किया करते।’’
मूर्ति रूप भगवान ने उत्तर दिया-‘‘मेरी स्मृति जाग उठी है आवुस्स। तुम अपनी स्मरण शक्ति को भी जगाओ आनंद। मैंने तुमसे कहा था, तथागत की शरीर पूजा कर तुम अपने आपको बाधा में मत डालो। सच्चे पदार्थ के लिए प्रयत्नशील बनो। अपने आपको ही शरण बनाओ अपने से अतिरिक्त दूसरे की शरण मत जाओ। आप दीवो भव।’’

वही दिया जलाए बैठा था शास्ता। पर आपकी ढाई हज़ारवीं जयंती की तैयारियों में भारत सरकार ने इतने दिए जलाए हैं कि आत्मदीप अब मुझे टिमटिमाता सा लग रहा है।’’ कहते-कहते वृषभ देह आनंद की आंखों में आंसू झलक आए। रंभाती हुई वाणी करुणा के दलदल में फंस गई। उस दलदल से वाणी के शकट को खींचते हुए आनंद ने कहा-‘‘इस जन्म में हाथ नहीं हैं प्रभु इसलिए पैर जोड़कर कहता हूँ आप आनंद की प्रार्थना एक बार स्वीकार कर लें। कौशल, कौशाम्बी, वारणसी न सही, एकबार अब दिल्ली अवश्य चले चलें।’’
‘‘दिल्ली में क्या होगा आवुस्स ?’’
‘‘दिल्ली में आपकी पूजा होगी प्रभु। आपकी ढाई हज़ारवीं जयंती मनाई जा रही है। हे शास्ता, जैसे आपका मैं हूं वैसे ही भगवान गांधी के नेहरू भी हैं। और वह आपको जगा रहे हैं तथागत। इसलिए ऐसे अवसर पर यदि आप मेरी प्रार्थना स्वीकार कर दिल्ली चलेंगे तो मेरा बड़ा यश फैलेगा।’’

‘‘आवुस्स, तेरी इच्छा पूरी हो। आनंद तथागत दिल्ली जाएंगे किन्तु तुम न जा सकोगे आनंद !’’
वृषभदेह आनंद ने एक ठंडी साँस भरी कहा-‘‘अनुशासन में हूं शास्ता। मैं यहीं आत्मदीप जगाकर आपके दिल्ली अवतरण के दर्शन करूंगा। इतनी कृपा अवश्य कीजिएगा कि अपने किसी धनी शिष्य को आदेश देकर एक रेडियो सेट भिजवा दीजिएगा जिससे मैं आपको दिल्ली की रनिंग कमेंट्री सुन सकूं।’’
‘‘ऐसा ही होगा आनंद।’’ कहकर भगवान ने पूर्ण चन्द्र की ओर देखा, चांदनी उनके तेज में समा गई। सूर्य उदय हो गया। शास्ता के दूसरे संकेत पर मध्याह्न हुआ। कुशीनारा में अनेक वर्षों से पेड़ से न उतरने वाले भगवान के एक जापनी शिष्य के कन्दमूल खाने का समय आ गया, फिर भगवान के तीसरे संकेत पर सूर्य देव इतने ढल गए कि शहरों में दफ्तरों के कमरे सूने होने लगे, सड़के साइकिलों से भर गई। नई दिल्ली के ए.बी.सी.डी. आदि श्रम के क्वारटरों और बंगलों में चाय का समय हो गया, बच्चे पार्कों में खेलने लगे।

दिल्ली के पथरीले सेक्रेटेरिएट में काम करने वाले विनयनगर एरिया के सीक्लास क्वारटर खाली क्लर्क मिस्टर सोहन लाल ने अपनी श्रीमती के साथ चाय पीते हुए कमरे के कोने में रखे संदूकों की ओर देखा। उनकी भवें और नाक सिकुड़ गईं। चाय से गीले होंठ भी बिचक गए। पत्नी से कहने लगे-‘‘ये कोना अच्छा मालूम नहीं पड़ता यहां सजावट की कुछ कमी है।’’
मिसेज़ प्रेमलता ने भी चाय से गीले अपने लाल होंठ खोले बोली-‘‘फील तो मैं भी करती हूं जी। चलो मार्केट चलकर कोई डेकोरेशन पीस खरीद लाया जाए। मगर क्या इस बेतुके कमरे में...। हमारा नसीब भी कितना खराब है, न बंगला, न मोटर न ड्राइंगरूम...।’’ मिसेज़ प्रेमलता के लाल होंठ आपस में जुड़ गए, नाक से ठंडी आह निकालकर उन्होंने अपनी गर्दन डाल दी। ‘डोन्ट वरी डार्लिंग। सोशलिज्म में ब्यूरोक्रेसी खतम होकर ही रहेगी तब हम बंगले में रहेंगे।

मिस्टर सोहनलाल और मिसेज प्रेमलता आज के युग के पढ़े-लिखे शरीफ आदमी अर्थात् कुल्चरवर्णी साहब और मेम साहब थे, उनपर नई दिल्ली का रंग भी चढ़ा हुआ था। वह नई दिल्ली जो स्वतन्त्रता के बाद नए सिरे से नई हो गई है जहां चीनी, रूसी, बर्मी, ईरानी, तूरानी, उजबेक, खुरसानी, इंग्लिश, जापनी, अमरीकी आदि भांति-भांति के तमाशे नित्य हुआ करते हैं, जहां तिरुवेन्दिरम से लेकर श्रीनगर तक और कच्छ से लेकर नागा पहाड़ियों तक के लोकगीत लोक नृत्य आदि आए दिन उसी तरह देख सुन पड़ते हैं जिस तरह छोटे शहरों में बीड़ी और सिनेमा वालों के नाचते गाते जुलूस।

नई दिल्ली के अफसरी जूते दर जूते हर जूते के नीचे दबा हुआ, ‘कुल्चरवर्णी’ साहब और उनकी मेमसाहब दोनों ही सेक्रेटरियों (जॉएण्ट एडीशनल और अण्डर सहित) के बंगलों, बंगलियों के रहन-सहन की हसरत मन में लेकर अपने सी क्लास वाले क्वाटर की सजावट करते थे। साइकिल और बस पर चढ़कर वे ठंडी आह के साथ मोटरों को निहारते, मेमसाहब भी सस्ते रेशमी कुर्ते शलवार लिपिस्टिक और नकली सोने मोती के जेवर पहन कर अर्दली, बैरा, चपरासियों के अभाव में अपना साहब को ही अग्रेजी में फटकार कर कलेजे को ठंडा कर लिया करती थीं। दोनों ही को इस बात की सख्त शिकायत थी कि इस कुल्चर युग में वे धन और ओहदे के अभाव में उस एवरेस्ट पर नहीं चढ़ पाते जहां पहुंचकर आज के मनुष्य को आन, बान, शान तीनों परम वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं। इसलिए वे आम मध्यवर्गीय की तरह कांटे की नोक पर हर घड़ी ऐसे विचार प्रकट किया करते थे जो समाजवादी, साम्यवादी, हिन्दूवादी, प्रांतीयतावादी, जातीयतावादी, कुंठावादी, बकवासी किस्म के होते हैं।

चाय पीकर मिसेज प्रेमलता डांटते हुए बोली-‘‘छोड़ो अपनी यह बकवास। चलना है तो चलो। कोई डेकोरेशन पीस खरीद लाएं। मेरे ख्याल में लार्डरामा, लार्डक्रिश्ना, लार्ड बुद्धा या लार्ड नटराजा की आर्टिस्टिक मूर्ति ले लें। इस वक्त तो यही फैशन है।’’
रामा ? लार्ड उहूं।’’ साहब ने बहुत मुँह बनाकर कहा ‘‘रामा बहोत ही प्लारिटेरियरिएट गॉड है। हिन्दुस्तान में जिसे देखो वही राम-राम करता है। इसलिए अब वह लार्ड नहीं हो सकते। अब हर पुराने राजा की वकत नहीं रही-सिर्फ राजप्रमुखों को छोड़कर। मेरे ख्याल में लार्ड बुद्धा को ही खरीदा जाए। इस वक्त वह लेटेस्ट फैशन में है। उनकी ढाई हजारवीं जयंती भी मनाई जा रही है। हमारे प्राइम मिनिस्टर खुद अपना इन्टेरेस्ट ले रहे हैं। इसलिए खरीदना है तो बुद्धा को खरीदों।’’
अणु परमाणुओं में लीन स्वचेता भगवान बुद्ध ने सुना और सुनकर मुस्करा दिए। आनंद इस जन्म में पुंगव है उसकी बैलबुद्धि की बात मानकर तथागत फिर ढाई हजार वर्ष पुरानी देह धारण कर रहे हैं तो तथागत को देह भोग भी भोगना ही पड़ेगा। भगवान ने सोचा। और अणु परमाणुओं में लीन भगवान बुद्ध नई दिल्ली के वातावरण में प्रविष्टि गए।

साहब सोहनलाल और प्रेमलता मेमसाहब मारकेट से सैण्डिल, साड़ी, ब्लाउज और बुद्ध खरीदकर लौट रहे थे। मेम साहब ने कहा-‘‘आज बड़ा खरचा हो गया तुम्हारी वजह से।’’
‘‘मेरी वजह से क्यों, ये साड़ी ब्लाउज क्या मैं पहनूंगा ?’’
तुम नहीं पहनोगे, मगर खर्च तो तुम्हारे कारण ही हुआ।’’ मेमसाहब की आवाज मे सख्ती आ गई।
साहब ने दबी ठंडी खींचकर कहा-‘‘जब तुम कहती हो तो अवश्य हुआ होगा। ये तुम्हारे सैण्डिल शायद मेरी खोपड़ी के लिए खरीदे गए-’’
मैं इतनी मूर्ख नहीं कि अठारह रुपए का माल तुम्हारी निकम्मी खोपड़ी पर तोड़ दूं। मगर मैं कहती हूं कि तुम्हें जरा भी बुद्धि नहीं। बुद्धि होती तो महीने के आखीर में बुद्धा को खरीदने की बात ही न उठाते। हिश, तुम्हें जरा भी समझ नहीं।’’ मेमसाहब के कदम झुंझलाहट में तेज पड़ने लगे।’’
बट डार्लिंग मेरा बुद्धा तो सिर्फ अठन्नी के हैं।’’
‘‘अठन्नी की क्या कीमत ही नहीं होती ? इस एक अठन्नी के कारण मेरे तैतालीस रुपए खर्च हो गए। शर्म नहीं आती बहस करते हुए भरे बाजार में।’’ मेमसाहब का स्वर इतना ऊँचा हो गया था कि सड़क पर आसपास चलते लोगो— अन्य साहबों मेमों ने भी सुन लिया और सोहनलाल साहब को देखकर मुस्कराए।

सोहनलाल साहब का सिर झुक गया, मन भारी हो गया। आदमी लाख साहब हो जाए पर क्लर्क का कलेजा पाकर वह डांट फटकार प्रूफ जरूर हो जाता है। लोगों की व्यंग्य भरी मुस्कानें देखकर सोहनलाल साहब का दिल टुकभारी तो हुआ, वैराग्य के किस्म के भाव जागे मगर फिर चिकने घड़े की तरह होकर मेमसाहब का साथ निबाहने के लिए साड़ी, सैण्डिल ब्लाउज, और बुद्ध के बोझ से लदे तेज कदम बढ़ाने लगे।
सड़क के किनारे सायबान पड़े लकडी के एक रिफ्यूजी रेस्टोरां से बुद्ध जयंती के मौसम में रेडियो सुना रहा था’’ बुद्ध शरण गच्छामि।’’ साहब सोचने लगे काश कि आज के दिन लार्ड बुद्धा होते तो वे दफ्तर और मेमसाहब को त्याग कर बुद्ध शरण गच्छामि हो जाते। हिन्दुस्तान आजाद हो गया मगर सोहनलाल साहब को अभी तक आजादी नहीं मिली। आधे मिनट के लिए वे चुल्लू भर दुख में डूब गए।
नई दिल्ली के वातावरण में व्याप्त भगवान् ने विचार कर देखा कि उनके प्रकट होने के लिए उपयुक्त परिस्थिति और क्षण उत्पन्न हो चुका है। तथागत राष्ट्रपति भवन में प्रकट होने के बजाय पीड़ित प्राणियों के बीच में प्रकट होना चाहते थे।
पत्नी और अफसरों द्वारा चिरप्रताड़ित बाबूवर्गीय कुल्चरणवर्ण के साहब सोहनलाल के दाहिने हाथ से अचानक वह कागजी डिब्बा उछल गया जिसमें भगवान की मूर्ति थी।

हाय मेरे बुद्धा। साहब घबराकर बोल उठे डिब्बे को जमीन पर गिरने से बचाने के लिए वे सुधबुध भूलकर लपके। मेमसाहब के साड़ी ब्लाउज का डिब्बा उनकी बगल से खिसक गया।
‘हाय, मेरा साड़ी ब्ला...। मेमसाहब की बात का हार्ट फेल हो गया, आती-जाती भीड़ आश्चर्य उभचुभ होकर ऊपर ताकने लगी और विनयनगरी साहब का तो अजब हाल था-उन्होंने देखा कि उनका बुद्धवाला डिब्बा जमीन पर गिरने के बजाय ऊपर उड़ गया और देखते ही देखते उसमें से एक प्रकाश पुंज निकलकर धरती के अन्दर बढ़ने लगा।
जनता आश्चर्य से देख रही थी। प्रकाश पुंज सिमटकर आकार ग्रहण करने लगा। काषायचीवरधारी भगवान अभयमुद्रा में धरती पर प्रकट हो गए। वे हूबहू म्यूजियमों में रक्खी स्वमूर्तियों जैसे ही थे। भेद केवल इतना था कि सिर घुंघराले केश नहीं थे। भिक्खुओं के समान शास्ता का सिर भी मुण्डित था।

आकाश से भगवान पर पुष्पवर्षा होने लगी। हवा में घंटा शंख आदि मंगलवाद्य गूंजने लगे, इतिहास की सैकड़ों सदियों ने ‘बुद्धं शरण गच्छामि’ का तिबाचा गुंजरित किया। जनता भगवान के पाद पद्मों में विह्वल होकर गिरने लगी। सड़कों पर ट्राफिक जाम हो गया। यह सब देखकर साहब सोहनलाल की प्रत्युपन्नमतिजागी। वे पास की किसी दुकान से प्राइममिनिस्टर को फोन करने के लिए लपके, बौना चांद को छू पाने का ऐसा सुनहरा अवसर भला क्योंकर छोड़ सकता था, खास तौर पर जबकि यह चमत्कार उसके लार्ड बुद्धा ने दिखलाया हो।
दस मिनट के अन्दर सारी दिल्ली में हुल्लड़ मट गया। सरकारी टेलीफोन एक दम से व्यस्त हो उठे।
सरकारी पुर्जों में सवाल जवाब लड़ने लगे :

‘‘यह खबर उड़ाई गई है। स्टंट है।’’
‘‘खबर की सच्चई जांच ली गई है। भारत में सब कुछ संभव है। बुद्धजयंती के अवसर पर भगवान बुद्ध का आना बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है। दुनिया में इण्डिया की प्रोस्टिज़ बढ़ जाएगी।’’
‘‘मगर पहले इस बात की जांच कर लेनी चाहिए कि भगवान बुद्ध अपनी मूर्तियों जैसे सुन्दर हैं या नहीं। क्योंकि अगर उनकी पर्सनालिटी वीक हुई तो बुद्ध जयंती का सारा शो बिगड़ जाएगा। लोगों पर बड़ा खराब इम्प्रेशन पडे़गा।
‘ठीक है। मगर यह भी जांच लेना चाहिए कि उनके विचार अब भी वैसे ही हैं और वे हमारी प्रेजेन्ट नेशनल और इन्टरनेशनल पालिसी से मेल खाते हैं या नहीं ?’’
‘‘मगर पहले उनका स्वागत।’’
‘‘कैसे हो सकता है स्वागत ? वह हमारे प्लान में नहीं। और बुद्ध जी को इस तरह लिखा-पढ़ी किए वगैर प्रकट नहीं होना था।’’

लाल फीते पर दौड़ने वाले पुरजे हर कदम पर वैधानिक गांठों से अटकने लगे।
उधर भगवान निरंतर उमड़ते अथाह जन समुद्र के हड़कम्पी जोश से घिरते ही जा रहे थे। बड़े-बड़े धनी धोरियों की डीलक्स लिमोसीन कारें हार्न बजाते और होड़ा-हाड़ी करते हुए भगवान की सेवा में पहुंचने के लिए भक्तों की भीड़ चीरे डाल रही थीं। हर लक्ष्मी-पुत्र चाहता था कि सबसे आगे पहुंचकर वही भगवान को अपना मेहमान बना ले। और इन्हीं लक्ष्मी पुत्रों की भीड़ में लखपति करोड़पतियों को ढकेलते, प्राइम मिनिस्टर को फोन कर लौटे हुए विनयनगरी साहब सोहनलाल भी ठीक उसी प्रकार आगे बढ़े जा रहे थे जिस प्रकार ढाई हजार और कुछ बरस पहले वैशाली के राजपथ पर लिच्छवि कुमारों के रथों से टकराते हुए अम्बपाली का रथ आगे बढ़ा था।
सेठों ने धक्के खाकर कोध और उपेक्षा से सोहनलाल साहब की तरह देखकर कहा-‘‘ए बाबू, अपनी हैसियत देखकर होड़ लो। परे हटो।’’

भगवान के भरोसे विनयनगरी साहब भी आज अकड़ गए बोले-‘‘सोशलिज्म आ गया है जानते हो। भगवान अब तुम्हारी मोनोपली नहीं रही। यू डर्टी कैपिटैलिस्ट।’’
पीड़ित प्राणी को सान्त्वना देने के लिए भगवान विनयनगर पधारे। भगवान की कृपा से विनयनगर इस समय शान नगर बन गया।
इतनी देर में वैधानिक आलस्य और प्रतिबन्धों की फांस काटकर राष्ट्रपति एवं प्रधान मंत्री स्वयं भगवान की सेवा में उपस्थित हुए एवं राष्ट्रपति भवन के मुगलाराम में विहार करने की प्रार्थना की। सोहनलाल साहब की ओर एक दृष्टि डालकर भगवान बोले-‘‘आवुस्स एक दिन इसके यहाँ ही विहार करूँगा। राष्ट्रपति भवन में जनता न पहुंच सकेगी।’’
‘‘भक्तों को भगवान से अलग रखने का विधान आपके देश में अब तक लागू नहीं हुआ प्रभु आप भले पधारे।’’
भगवान ने अत्यन्त विनयशील राष्ट्रपति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
सोहनलाल और प्रेमलता के चेहरे उतर गए। खैर इतनी देर ही सही, भगवान उनके घर ठहरे यही क्या कम है। प्रेमलता मेमसाहब ने साहब के कान में फूंका। भगवान से कहो सिफारिश कर देंगे। साहब तुरन्त भगवान के पास पहुंचे। उनसे कान में प्रार्थना करने लगे : ‘‘आप नेहरू जी से कह दें। वे मुझे सेकेटरी नहीं तो जाएण्ट इडीशनल या अण्डर-’’
‘‘ये क्या—ये क्या बदतमीज़ी है ? आप भगवान बुद्ध के कान में बात करने की गुस्ताखी कर रहे हैं। जाइये यहां से।’’ जवाहरलाल जी नाराज़ हुए।

दुनिया भर के हवाई जहाज़ पालम हवाई अड्डे पर उतरने लगे। देश-देश की टेलीविज़न फिल्म यूनिट पहुंच गई। चीन, जापान, जावा, सुमात्रा, इण्डोनशिया, थाइलैण्ड बरमा, श्रीलंका, तिब्बत और भारत के कोने-कोने से बौद्ध भिक्षु ‘चलो दिल्ली’ का नारा लगाने धर्म चक्र घुमाते पहुंचनें लगे। दिल्ली काषयचीवरों और मुण्डित मस्तकों से भर गई। त्रिपिटकाचार्य महापण्डित राहुल सांस्कृत्यान और प्रगतिशील कवि नागार्जुन गृहस्थाश्रमी वेष में अपने भिक्क्षु हृदय संभाले दौड़े चले आए। मार्क्सवादी विद्वान डा. राम विलास शर्मा को चूंकि भाषा विज्ञान का मोहन जोदारो खोदते हाल ही में यह पता चल गया है कि भगवान बुद्ध की भाषा में अवधी शब्दों की भरमार है, इसलिए वे भी श्रद्धा पूर्वक भागे चले आए।

पण्डित बनारसी दास जी चतुर्वेदी भगवान के प्रोपेगडार्थ हिन्दी भवन में स्वागत समारोह का प्रबन्ध करने लगे। बुद्ध अभिनंदन ग्रन्थ के चक्कर में डा. नगेन्द्र की मोटर का चक्का अनवरत गति से घूमने लगा। गांधी जी के समान बुद्ध जी का प्रोर्ट्रेट बनवाने के लिए जैनेन्द्र जी दिल्ली के हर मूंगफली वाले की दूकान से छिलके बटोरने के काम में संलग्न हो गए। हिन्दी जगत में, सारे देश के साहित्यिक जगत में नई प्रेरणा का साइक्लोन उठ आया। ‘यशोधरा’ के रचयिता राष्ट्रकवि स्लेट बत्ती लेकर तुरन्त यशोधरा-सर्वस्व नामक महाकाव्य रचने बैठ गए। निरालाजी को भगवान बुद्ध के नाम स्वामी रामकृष्ण परमहंस का पत्र कविता लिखते देख सरकारी पंडे सरकार से लिखापढ़ी करने लगे कि महाकवि भगवान बुद्ध को चायपार्टी देना चाहते हैं इसलिए रुपये लाओ। पंत जी का मेडीटेशन एक घंटे से बढ़कर कई घंटो का हो गया और वे स्वर्ण सूर्य की अवतारणा करने लगे। दिनकर जी बुद्ध जीवन के चार अध्याय लिखने के लिए दिल्ली में अण्डरग्राउण्ड चले गए। नवीन जी, महादेवी जी, सियाराम शरण जी, रामकुमार जी, बच्चन जी, नरेश जी, सभी एक भाव से बुद्ध चिन्तन में रत हो गए। प्रयोगवादी कवियों ने भी बुद्ध जी पर अनेक प्रयोग कर डाले।

प्रेस कान्फ्रेंस हुई। भगवान से तरह-तरह के प्रश्न पूछे गए। स्टालिन के प्रति रूस के रवैये को आप किस दृष्टि से देखते हैं ? क्या आप प्रेजिडेन्ट आइजन हावर से शान्ति की अपील करने अमेरिका जाना पसन्द करेंगे ? अपने और नेहरू जी के पंचशील की तुलना कीजिए। सारिपुत और महायोग्यलायन की पवित्र अस्थियों के बारे में आपके क्या विचार है ? बम्बई महाराष्ट्र को मिलना चाहिए अथवा नहीं ? उत्तर प्रदेश के सेल्सटैक्स आर्डिनैंस पर आपके क्या विचार है ? हिन्दी में प्रयोगवाद के बाद क्या आएगा ? आदि अनंत प्रश्नों की झड़ी लग गई। अनेक यूनिवर्सिटियों ने डाक्टरेट की डिगरियां देने का निश्चय कर डाला : भगवान को नोबुल शान्ति पुरस्कार और स्टालिन शान्ति पुरस्कार देने की बात भी बड़ी जोर से उठी। कुछ प्रभावशाली लोगों ने यह आपत्ति उठाई कि स्टालिन चूंकि इधर बदनाम हो गए हैं इसलिए उनके नाम का पुरस्कार न दिया जाए।


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