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प्रतिनिधि कविताएं: भगवत रावत

भगवत रावत

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 14189
आईएसबीएन :9788126726639

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भगवत रावत की काव्य-चिंता के मूल में बदलाव के लिए बेचैनी और अकुलाहट है। इसीलिए उनकी कविता में संवादधर्मिता की मुद्राएँ सर्वत्र व्याप्त हैं, जो उनके उत्तरवर्ती लेखन में क्रमश: संबोधन शैली में बदल गई हैं।

भगवत रावत की काव्य-चिंता के मूल में बदलाव के लिए बेचैनी और अकुलाहट है। इसीलिए उनकी कविता में संवादधर्मिता की मुद्राएँ सर्वत्र व्याप्त हैं, जो उनके उत्तरवर्ती लेखन में क्रमश: संबोधन शैली में बदल गई हैं। पर उनकी कविता में कहीं भी नकचढ़ापन, नकार, मसीही अंदाज और क्रांति की हड़बड़ी नहीं दिखायी देती। भगवत रावत शुरू से अन्त तक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी कवि के रूप में सामने आते हैं। सोवियत संघ के विघटन के बावजूद मार्क्सवाद के प्रति उनकी आस्था और विश्वास खंडित नहीं हुआ। हाँ उनका यह मत जरूर था कि अगर विचारधारा मैली हो गई है तो पूरी निर्ममता के साथ उसकी सफाई करो। मैल जमने मत दो। भगवत रावत को सबसे ज्यादा विश्वास 'लोक' में है। उनकी कविताओं से गुजरते हुए आपको लगेगा कि इस कवि का लोक से नाभिनाल रिश्ता है। लेकिन उनकी कविता लोक से सिर्फ हमदर्दी, सहानुभूति, दया, कृपा-भाव पाने के लिए नहीं जुड़ती बल्कि इसके उलट वह लोक की ताकत और उसके स्वाभिमान को जगह-जगह उजागर करती है। उनकी उत्तरवर्ती कविताओं को पढ़ते हुए साफ जाहिर होता है कि उन्हें सही बात कहने से कोई रोक नहीं सकता—न दुनिया, न समाज, न व्यवस्था, न कोई ताकतवर सत्ता-पुरुष। आजादी के बाद प्रगतिशील कविता के इतिहास में लोकजीवन को आवाज देने और उसके हक की लड़ाई लड़ने वाले कवियों को जब याद किया जायेगा तो भगवत की कविताएँ हमें बहुत प्यार से पास बुलाएगी और कहेगी—'आओ, बैठो, बोलो तुम्हें क्या चाहिए।'

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