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महान व्यक्तित्व >> विश्व के महान वैज्ञानिक

विश्व के महान वैज्ञानिक

फिलिप केन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1418
आईएसबीएन :81-7028-462-7

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विश्वप्रसिद्ध महान वैज्ञानिकों के जीवन और अनुसंधानों का परिचय...

vishva ke mahan vaigyanik

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्वविख्यात 50 से अधिक वैज्ञानिकों द्वारा गणित, भौतिकी, चिकित्सा, रसायन, आदि क्षेत्रों में किये गये  आविष्कारों व अनुसंधानों का सरल भाषा में तथा चित्रों सहित वर्णन साथ ही उनके जीवन से जुड़ी प्रमुख घटनाओं की जानकारी।

पाइथागोरस

जैसी प्रसिद्धि पाइथागोरस के सिद्धान्त को मिली, वैसी गणित में किसी मौलिक नियम को शायद नहीं मिली हो। इस सिद्धांत को सबसे पहले मिस्रवासी अमल में लाए। परन्तु उनके पास इसके सही होने का कोई प्रमाण नहीं था। इसलिए इस नियम की सत्यता को गणित को अनुसार सर्वप्रथम प्रमाणित करने का श्रेय पाइथागोरस को दिया जाता है।
पाइथागोरस का सिद्धांत यह प्रमाणित करता है कि समकोण त्रिभुज की दोनों छोटी भुजाओं पर बनाए गए वर्गों के क्षेत्रफल का योग, उसी त्रिभुज की तीसरी भुजा के कर्ण पर बनाए गए वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर होता है। समकोण त्रिभुज का एक कोण 900 का होता है। यह सिद्धांत समस्त उद्योग विद्या का आधार है।

नाप-तोल के इतिहास में महत्त्वपूर्ण वह समकोण त्रिभुज है, जिसकी एक भुजा की लम्बाई यदि 3 इंच हो और दूसरी भुजा की 4 इंच की तो इस त्रिभुज की समकोण के सामने-वाली तीसरी भुजा (जिसे हाईपोटेनस अथवा कर्ण कहते हैं) 5 इंच लंबी होगी। आगे चित्र में यही बात और भी स्पष्ट हो जाती है। दोनों भुजाओं पर बने छोटे-छोटे वर्गों की संख्या क्रमशः 9 और 16 है, जबकि बड़ी भुजा पर बने उस किस्म के वर्ग संख्या में 25 हैं। अर्थात् 3 : 3 धन 4 : 4 बराबर 5 : 5। यह नियम किसी भी समकोण त्रिभुज के लिए सही उतरेगा। ज्यामिति में पाइथागोरस का यह सिद्धांत इतना मनोरंजक सिद्ध हुआ है कि उसकी सत्यता के प्रमाण में एक सौ एक से अधिक सबूत दिए जा चुके हैं। इनमें अमरीका के राष्ट्रपति गारफील्ड की एक मौलिक सिद्धि भी शामिल है।

पाइथागोरस का जन्म ग्रीस के सामोस द्वीप में ईसा से लगभग 582 साल पहले हुआ था। उसके व्यक्तिगत जीवन के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। सम्भवतः उसने भूमध्य सागर के उस पार मिस्र देश में जाकर वहां के विद्या-केन्द्रों का निरीक्षण किया था। 529 ई.पू. में अत्याचारी सम्राट पालीक्रैटीज़ ने पाइथागोरस को ग्रीस देश से निकाल दिया। तब वह इटली के दक्षिण में चला गया। वहां अपने अनुयायियों के साथ उसने एक सम्प्रदाय की नींव डाली। यह सम्प्रदाय एक ऐसा भ्रातृमण्डल था, जिसकी आस्था गणित-धर्म और दर्शन के अध्ययन में थी। इस मण्डल के सभी सदस्य धनी-मानी परिवारों के कुलीन व्यक्ति थे। उन्होंने मण्डल की कार्यवाही को गुप्त रखने की शपथ ली थी। जिसका परिणाम यह हुआ था कि आम जनता इस मण्डल के सदस्यों को सन्देह की दृष्टि से देखती थी। पाइथागोरस और उनके अनुयायियों का विचार था कि मनुष्य की आत्मा अमर है और वह बार-बार पृथ्वी पर आती है तथा विभिन्न लोगों में और विभिन्न देशों में जन्म लेती है। पाइथागोरस का विश्वास था कि मनुष्यों और पशुओं में कुछ स्वाभाविक सम्बन्ध होता है। अतः मनुष्य-आत्मा किसी पशु में भी उतर सकती है। परन्तु यदि मनुष्य सात्त्विक जीवन बिताए तो इस संकट से बच सकता है। इस विश्वास के परिणामस्वरूप भ्रातृमण्डल के नियमों में कुछ कठोरता आ गई थी : आत्मसंयम, आन्तरिक पवित्रता, मिताहार और आज्ञाकारिता—ये पाइथागोरस के सम्प्रदाय के प्रतीक थे।

पाइथागोरस के शिष्यों ने ही कोपरनिकस को पहले-पहल यह संकेत दिया था कि ब्रह्मांड का केन्द्र सूर्य है। पाइथागोरस का विश्वास था कि ग्रह-नक्षत्रों की परिक्रमा का पथ वृत्ताकार ही होना चाहिए, क्योंकि उसके मतानुसार परिक्रमा का सर्वश्रेष्ठ पथ वृत्त के सिवाय दूसरा नहीं हो सकता। उसकी मान्यता थी कि पृथ्वी, तारे, नक्षत्र, ब्राह्माण्ड सभी वृत्ताकार हैं, क्योंकि स्थूल वस्तुओं में वृत्त ही सबसे अधिक परिपक्व-ठोस आकार के हैं।

भ्रातृमण्डल में नक्षत्रविद्या के पारखी और गणितज्ञ तो थे ही, जीवविद्याविद् और शरीरशास्त्री भी थे। इन शरीरवैज्ञानिकों ने खोज करके दृष्टि-तंत्रिका (आप्टिक नर्ब्ज़) तथा ‘त्रिपथगा’ (यूस्टेकियन ट्यूब्ज़) का पता लगाया था।

पाइथागोरस के शिष्य अपने गणित-सम्बन्धी ज्ञान को संगीत में भी उतार लाए। संगीत का स्वर मूलतः एक शुद्ध कर्णप्रिय ध्वनि होता है। कुछ तार-स्वर ऐसे होते हैं, जो एक साथ बजने पर मधुर लगते हैं, जबकि वे कुछ अन्य स्वरों के साथ बजने पर कटु लगते हैं। पाइथागोरस ने इसका कारण ढूंढ़ निकाला कि सितार के तारों की लम्बाई जब एक-दूसरे के साथ सरल अनुपात में होती है, तब उन्हें एक साथ छेड़ने से उठनेवाली आवाज़ में एक प्रकार की मधुर एकरसता होती है। उदाहरण के लिए, यदि एक तार दूसरे तार से दुगना लम्बा हो और दोनों की मुटाई और तनाव एक-सा हो, तो उन्हें एक साथ छेड़ने पर मधुर ध्वनि निस्सृत होगी। यही स्थिति उस समय भी रहेगी जब तारों की लम्बाई का अनुपात 2 : 3 अथवा 4 : 3 हो। संगीत की शब्दावली में 2 : 1 का अर्थ उस अष्टक से है, जो वाद्ययंत्र की कुंजियों को जोड़ता है। 3 : 2 शुद्ध पंचम है; 4 : 3 चतुर्थ शुद्ध स्वर है। संगीतज्ञ स्वरों के इस मेल को शुद्धतम ध्वनियां मानते हैं।

दो सौ वर्ष बाद एरिस्टॉटल (अरस्तु) ने पाइथागोरियन परम्परा के बारे में कहा था, ‘‘इन लोगों ने अपना जीवन ही गणित को समर्पित कर दिया था और इन्हीं के कारण गणित की प्रगति सम्भव हुई। इस वातावरण में पलते और बढ़ते हुए इनका विचार यह बन गया था कि संसार की हरेक वस्तु गणित के ही सिद्धांत पर आधारित होनी चाहिए।’’
आज का वैज्ञानिक विश्व के गणितीय सूत्रों की मान्यताओं को आबद्ध करने में लगे हुए हैं।

यूक्लिड


‘‘युवावस्था में इस किताब के हाथ लगते ही यदि किसीकी दुनिया एकदम बदल नहीं जाती थी तो हम यही समझते थे कि वह अन्वेषण की सूक्ष्म बुद्धि से वंचित है।’’ यह उक्ति आइन्सटाइन की है। आज इस किताब को लिखे दो हज़ार साल से अधिक हो गए हैं, फिर भी हाईस्कूल के विद्यार्थी आज भी इसे पढ़ते हैं।
आइन्सटाइन का संकेत यूक्लिड की ‘एलीमेंट्स’ (ज्यामिति-मूल्यतथ्य’ नामक जानी-मानी पुस्तक की ओर है। दुनिया की हर भाषा में इसका अनुवाद हो चुका है। अंग्रेजी में इसका पहला संस्करण 1570 में निकला था। यह अंग्रेज़ी अनुवाद लैटिन अनुवाद पर और लैटिन अनुवाद मूल ग्रीक के अरबी रूपान्तर पर आधारित है। मूल ग्रीक की रचना ईसा से लगभग 300 साल पहले हो गई थी।

अलेक्जेण्ड्रिया का निवासी यूक्लिड एक ग्रीक गणितज्ञ और अध्यापक था। उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ मालूम नहीं। आज तक ऐसे कोई भी कागजात नहीं मिले, जिनसे यूक्लिड की जन्म-तिथि या उसके जन्म-स्थान के बारे में जानकारी मिलती। हम इतना ही जानते हैं कि वह अलेक्ज़ेण्ड्रिया के राजकीय विद्यालय में गणित का अध्यापक था और उसकी लिखी पुस्तक की जितनी प्रतियां आज तक बिक चुकी हैं उतनी शायद बाइबल को छोड़कर किसी दूसरी पुस्तक की नहीं बिकीं।
यूक्लिड को ज्यामिति का जनक कहा जाता है, और यह सही है। उसने ज्यामिति के सभी ज्ञात तत्त्वों का संग्रह किया। व्यावहारिक आवश्यकताओं के कारण विकसित हुए इन सामान्यता विसंगत तत्त्वों को उसने सुबोध, सुसंगत और सुन्दर पद्धति से सुव्यवस्थित किया ताकि एक प्रमाण अगले प्रमाण की आधारभूमि बनता जाए। यह सब यूक्लिड ने इस खूबी के साथ किया कि एक प्रमेय दूसरे गणितीय प्रमाण का आधार बनता चला गया। और सिद्ध किया जा सका कि यदि मनुष्य अपनी विचार-शक्ति का उपयोग करे तो वह क्या नहीं कर सकता ?

मिस्र को ‘नील नदी का उपहार’ कहा जाता है। पुराने मिस्र की बहुत कुछ ख्याति इसी नदी के कारण हुई। नील नदी हर साल बाढ़ में अपने किनारों को तोड़कर सुदूर पहाड़ियों की काली उपजाऊ मिट्टी बहा लाती है। यही मिस्र की खेती-बाड़ी का रहस्य है। बाढ़ों से दौलत तो मिली, लेकिन बहुत-सी समस्याएँ भी सामने आईं। नील नदी हर साल आपना रुख बदलती है। इसलिए जमीन की सीमाएं बदल जाती हैं और अस्पष्ट हो जाती हैं। ज़मीन का कर वसूल करना कठिन होता है, क्योंकि हर आदमी के हक में आनेवाली जमीन की सीमा निश्चित नहीं होती। कर लगने के लिए यह बात ज़रूरी होती है।
ज्यमिति शब्द का मूल अर्थ है—‘ज़मीन नापना’। ज़मीन नापने के लिए ही ज्यमिति का विकास हुआ। जान पड़ता है कि मिस्रवासियों ने ज्यामिति के सैद्धान्तिक पक्ष पर विशेष ध्यान नहीं दिया। हालांकि वर्षों से वे उन्हीं सिद्धान्तों पर अमल कर रहे थे और अपना काम अच्छी तरह चला रहे थे। ज्यमिति संबंधी उनके ज्ञान में त्रुटियां भी थीं। असम ज़मीन को छोटे-छोटे त्रिभुजाकार टुकड़ों में बांटा जाता था। उनके क्षेत्रफल को जोड़कर पूरी तरह ज़मीन के क्षेत्रफल का हिसाब कर लिया जाता था। फल यह होता था कि कितने ही छोटे-छोटें ज़मींदार हर साल सरकारी खज़ाने में कुछ ज़्यादा ही रकम देते थे। लाचारी यों थी कि कि भू-सर्वेक्षक ज़मीन का रकबा निकालने के लिए गलत तरी़का अपनाते थे।

मिस्रवासी भू-सर्वेक्षण यंत्र के बिना ही समकोण बना लेते थे। हम खेल के मैदान बनाने या खेत पर मचान की नींव डालते समय आज भी वैसा ही करते हैं। समकोण बनाने के लिए एक रस्से के बने त्रिभुज को काम में लाते थे। इसकी भुजाएँ क्रमशः 3:4:5 होती थीं। जब इस रस्से को किनारों की गांठों के सहारे ताना जाता था तो 3:4 की लम्बाई के बीच बना हुआ समकोण बन जाता था। इसीलिए मिस्र के भू-सर्वेक्षकों को ‘रस्सा ताननेवाला’ कहा जाता था।

ग्रीक गणितज्ञ थेलीज़ ने जब मिस्रवासियों के इन ज्यामितीय नियमों के बारे में सुना तो उसे आश्चर्य हुआ कि उनका प्रयोग इतना सही कैसे उतरता है। ज्यामिती को विज्ञान के रूप में विकसित करने के लिए यही जिज्ञासा पहला कदम सिद्ध हुई। अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए थेलीज़ ने यह नियम बनाया कि किसी भी सिद्धान्त के निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए ज्ञात तथ्यों को ही आधार मनाना चाहिए और जहां तक हो सके इन्हीं के सहारे अपनी चिन्तन-प्रक्रिया में आगे बढ़ना चाहिए। थेलीज़ जानता था कि ज्यामिति एक व्यावहारिक विज्ञान है, जिसका उपयोग नौचालन और ज्योतिर्विज्ञान में उसी तरह किया जा सकता है; जिस तरह ज़मीन नापने या पिरामिड बनाने में। ज्यामिति के विकास में अगला कदम पाइथागोरस और उसके शिष्यों ने उठाया। उन्होंने ज्यामिति को व्यावहारिक पक्ष से अलग कर लिया। वे ज्यामिति तथ्यों के तर्कपूर्ण प्रमाण खोजने में ही लगे रहे। इस प्रणाली को उन्होंने इस प्रकार विकसित किया कि वह इतना समय बीत जाने के बाद आज भी स्थिर है।

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