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परिक्रमा

कमलेश्वर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1415
आईएसबीएन :81-7028-425-x

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दूरदर्शन के सबसे लोकप्रिय जीवंत कार्यक्रम पर आधारित....

Parikrama by Kamleshwar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुछ साल पहले भारतीय दूरदर्शन पर कमलेश्वर ने परिक्रमा के अन्तर्गत ऐसे कार्यक्रम दिये थे जो न केवल शीघ्र ही लोकप्रिय हो गए बल्कि जिन्होंने समाज सेवा को एक बिलकुल नई दृष्टि तथा आयाम भी दिया। जानकारों का यहाँ तक कहना है कि इन्हीं के कारण प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें दूरदर्शन का एडिशनल डायरेक्टर जनरल बनाने का फैसला किया। इनमें समाज की वास्तविक समस्याओं पर ऐसी गहरी रोशनी डाली गई थी कि दर्शक चकित रह गये।
इनमें से कुछ चुने हुए प्रसंग इस पुस्तक में पहली बार प्रकाशित किये जा रहे हैं। ये समाज का चारों तरफ घूमता बेबाक आईना है। जिन समस्याओं को इनमें उभारा गया है, वे आज भी उसी तरह प्रासंगिक हैं। इन प्रस्तुतियों का ऐतिहासिक महत्व है और इनमें कमलेश्वर की तीखी, नश्तर की तरह चीरती शैली बड़ी प्रखरता के साथ अभिव्यक्त हुई है।

 

यह परिक्रमा

मैं बम्बई दूरदर्शन पर परिक्रमा प्रोग्राम पेश किया करता था। यह साप्ताहिक कार्यक्रम था, जो अपनी लोकप्रियता के कारण सात वर्ष तक लगातार पेश किया जाता रहा। सच कहूँ तो इस कार्यक्रम में जब हाशिये पर पड़े लोगों के त्रासद यथार्थ से सामना होता था, तो मेरा दिल दहल जाता था। अखबारी भाषा में उसे बड़े-बड़े विशेषणों से नवाजा जाता था, पर प्रोग्राम पेश करते हुए जिस यथार्थ से मेरा सामना होता था, उससे मेरा दिल बुझ जाता था। प्रोग्राम समाप्त करके स्टूडियो से निकलते हुए मैं उस ‘सक्सेसफुल’ प्रोग्राम को लेकर सबसे ज्यादा दुःखी व्यक्ति होता था। मैं टीवी स्टेशन के बाथरूम में जाकर रोता था और मुँह धोकर, आँखें सुखाकर बाहर निकलता था। यह प्रोग्राम ‘लाइव’ होता था, साथ-साथ रिकॉर्ड होता, फिर भारत के दूसरे टीवी स्टेशनों को भेजा जाता था।

सरदार सुरिन्दर सिंह (मशहूर गायक ‘सिंह बन्धुओं’ में से एक और इनकम टैक्स कमिश्नर) प्रति सप्ताह इस पर ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ में लिखते थे और अँग्रेज़ी के प्रख्यात कवि निसीम एज़िकिल प्रति सप्ताह ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में कमेंट किया करते थे। मैं पच्चीस वर्ष बाद इन दोनों का आभार प्रकट करता हूँ। अँग्रेजी की लगातार पत्रिका ‘इम्प्रिंट’ इन कार्यक्रमों को रेकार्ड करके, इनका अँग्रेजी अनुवाद लगातार छापती थी। सन् 1978 में जनता पार्टी की केन्द्रीय सरकार द्वारा राजनीतिक कारणों से ‘परिक्रमा’ कार्यक्रम बन्द कर दिया गया। यह एक लम्बी कहानी है। ‘सारिका’ पत्रिका का सम्पादन छोड़ने और ‘परिक्रमा’ कार्यक्रम को बन्द करने के लिए मुझे एक समयावधि में बाध्य किया गया।

उन्हीं दिनों डॉ. महावीर अधिकारी द्वारा सम्पादित और अय्यूब सैयद द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक ‘करंट’ में मैं ‘परिक्रमा’ के ही नाम से कॉलम भी लिखता था। तो इस पुस्तक परिक्रमा’ में टीवी कार्यक्रम परिक्रमा के साथ ही कालम वाले कुछ आलेख भी शामिल हैं और कुछ घटना प्रसंग भी। यह सारी सामग्री बहुत बिखरी हुई थी। कुछेक कार्यक्रम मुझे अँग्रेज़ी पत्रिका ‘इम्प्रिंट’ से मिल सके और जो इधर-उधर मराठी, गुजराती की पत्र-पत्रिकाओं ने छापे थे वे ही मुझे मिल सके। कुछेक के प्रसंग मुझे याद थे, उन्हें मैंने संक्षेप में स्मृति के सहारे लिख दिया। उनमें से कुछ मेरी स्मृति वाले वे संक्षिप्त अंश मेरी पुस्तक ‘महफ़िल’ में भी मौजूद हैं। हैं तो वे दो या तीन ही, पर उनके रिपीटीशन के लिए पाठक मुझे क्षमा कर देंगे।
पर यह सारे प्रसंग हाशिये पर पड़ी उस ज़िन्दगी से जुड़े हुए हैं, जिसका मैंने सात वर्षों तक प्रति सप्ताह साक्षात्कार किया है। अब ये आपके सुपुर्द हैं !
16-12-2003
5/116, ईरोज़ गार्डन
सूरजकुंड रोड, दिल्ली-110044

 

कमलेश्वर

 

परिक्रमा

 

 

16 अगस्त की सुबह, सन् ज़रूरी नहीं, बस इतना याद रखना ज़रूरी है कि भारत के एक प्रधान मन्त्री लाल किले की प्राचीर से, 15 अगस्त का भाषण दे चुके थे। मैं 16 की सुबह दिल्ली पहुँचा। टैक्सी ली। कुछ देर कोई बात नहीं हुई पर टैक्सी वाले को सिर्फ ड्राइवर मान कर बात न करना अच्छा नहीं लगा। आखिर वह भी तो संसार के सबसे बड़े इस लोकतन्त्र का नागरिक है। योरुप या अन्य देशों में टैक्सी वाले बराबरी से बात करते हैं। साथ बैठकर नाश्ता करते या खाते हैं। साम्यवादी देशों में तो यह बात समझ में आती है। योगोस्लाविया में यह अनुभव किया था—सन् 1971 में। और फिर अभी सन् 1989 में चीन में।
तो, बात करने के लिए पूछा—कल आपने प्रधान मन्त्री का भाषण सुना था।
-सुना था।
-कैसा लगा ?
-ठीक था।
-उन्होंने कहा कि वे गरीबी खत्म करके रहेंगे !
-हाँ।
-आपको यह बात कैसी लगी ?
-सब यही कहते हैं।
-पर यह तो नए प्रधान मन्त्री हैं।

-ये भी गरीबी तो खत्म नहीं कर पाएंगे..पर हम गरीबों को खत्म कर देंगे !
-सब मुझसे ही पूछते-से लगते हैं, साफ-साफ कोई कहता तो नहीं...यही कि मैंने अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर दी ! पर आज तक किसी ने नदी से पूछा कि कितना पानी बरबाद किया है उसने ? औरत की ज़िंदगी और नदी में फ़र्क ही क्या है ?
सन् 1971, शायद नवम्बर का महीना था। वीयना यूनिवर्सिटी में सभा थी। मुझे बंग्ला देश में हुई क्रांति पर बोलना था। प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी भी उसी दिन वीयना में थीं। हमारी एक मीटिंग वीयना यूनिवर्सिटी में रखी गई तो उनकी सुविधा के लिए हमारी सभा का समय उन्हें दिया गया और हमारा समय आगे बढ़ा दिया गया।
उनकी सभा में मौजूद रहना मुझे अच्छा लगा। वे बंगला देश का निर्माण करने के बाद पहली बार विदेश आई थीं। दो राष्ट्रों के सिद्धान्त को उन्होंने ग़लत साबित कर दिया था। पर विदेशी तो विदेशी। उनके बोल चुकने के बाद प्रश्नोत्तर शुरू हुआ। एक विदेशी ने पहले प्रश्न के दिए गए उत्तर के संबंध में उन से चीख कर पूछा—बट ह्वाट अबाउट योर काऊज़ (Cows) ?
इन्दिरा जी ने कुछ गोलमोल-सा उत्तर देकर धार्मिक अन्धतावाद को कोसा।
दस मिनट बाद वहीं हमारी सभा शुरू हुई। आधे श्रोता वही थे। हमें इन्दिरा जी की सभा के कारण अधिक श्रोता मिल गए थे।

हॉल के एक भाग में ही इन्दिरा जी के लिए त्वरित चाय का इन्तजाम था। वे शायद तब चाय पी रही थीं। मुझे मालूम नहीं था क्योंकि वह खण्ड हॉल का हिस्सा होते हुए भी अलग था।
मैं उनसे पूछे गए सवाल पर विक्षुब्ध था...गाय औसत भारतीय की धर्मांधता का हिस्सा नहीं है। विदेशी खुद भारत को लेकर अंधविश्वास ग्रस्त हैं। मैं बोलने खड़ा हुआ तो, काफी वही चेहरे देखकर मैंने घुमा-फिरा कर वही सवाल उठाया और उसे संदर्भ से जोड़ते हुए मैंने श्रोताओं से पूछा—एण्ड ह्वाट अबाउट यार डॉग्स- (dogs) ?
क्या आप उन्हें मार कर खाते हैं ? आप उन्हें अपने साथ विस्तर पर सुलाते हैं, रोज़ अलस्सुबह उन्हें दिशा-मैदान के लिए शहर की पटरियों पर ले जाते हैं—सारा शहर बदबू से भरा होता है, फिर वह धोया जाता है और जब आपके कुत्ते मरते हैं तो आप उन्हें दफनाते हैं....भारत में गाय की अलग स्थिति है। हमारा कृषि-प्रधान देश है। गाय हमारा इकोनॉमिक युनिट है। वह हमें खेत जोतने के लिए बैल देती है। दूध से हम घी, मक्खन और दही बनाते हैं। गाय के गोबर से हमें खाद और ईधन मिलता है, इसलिए हम गाय को नहीं मारते !
चाय पीते हुए इन्दिरा जी यह भाषण सुन रही थीं। वहाँ लम्बे भाषण तो होते नहीं। बंगला देश क्रांति पर बोल कर मैं उतर आया।

तभी इन्दिरा जी के लश्कर से एक सज्जन आए—आपको प्रधान मन्त्री बुली रही हैं !
मैं गया उन्हें प्रणाम किया।
-मैं अभी आपकी कुछ बातें सुनीं ! इन्दिरा जी बोलीं—आप जैसे लोगों को तो भारत में होना चाहिए....पता नहीं आप लोग देश छोड़कर क्यों चले जाते हैं ? वे मुझे अप्रवासी भारतीय (N. R. I.) समझी थीं।
-जी, ऐसा तो नहीं है, पर मुश्किल सिर्फ यह है कि जब हम अपने देश के मंचों पर बोलते हैं तो बेकार समझे जाते हैं। पर विदेशी भूमि पर खड़े होकर बोलते हैं तो कारगर और समझदार समझे जाते हैं ! पता नहीं आधारभूत ग़लती कहाँ हुई है ? मैंने कहा—मैं तो भारत में ही रहता हूँ !
उन्होंने एक पल सोचा। फिर कहा—जब आप भारत लौटें तो मुझसे मिलिए !
यह इन्दिरा जी से मेरी पहली मुलाकात थी।

सन् 1971....पाकिस्तान होते हुए योरुप यात्रा। ईस्ट पाकिस्तान ख़त्म हो चुका था, बंगला देश बन चुका था। मैं क़ायदे-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना की शानदार मज़ार देखने गया। उसकी बाहरी दीवार पर किसी ने बड़े-बड़े हरुफों में कुछ लिख दिया था, जिसे शैम्पू करके मिटाया जा रहा था। मैं इतना ही पढ़ सका—...अहसान हमने उतार दिया ! शुरू के हरूफ धुल चुके थे। मैंने वहां खड़े एक आदमी के पास जाकर पूछा—यह क्या मिटाया जा रहा है ?
वह हँसने लगा, फिर हँसते हुए ही बोला—बंगला देश बन गया न इसलिए किसी मनचले ने मज़ार पर लिख दिया था-कायदे-आज़म आपका आधा अहसान हमने उतार दिया।
एक बातचीत।
-जब से पंजाब में आतंकवादियों का दौर चला है, रोज़ 15-20 लोगों की हत्या की ख़बर आती है—जेबकतरी, चोरी, बलात्कार वगैरह की कोई खबर ही नहीं आती। लगता है जैसे इस तरह के क्राइम अब पंजाब में होते ही नहीं !
-जी हाँ, इसलिए कि पंजाब पुलिस आतंकवादियों को लेकर बिज़ी है, उसके पास वक्त ही नहीं है !
दिल्ली-30-6-90. घनघोर मानसून का पहला दिन—
जमना पार का इलाका। गर्मी की ज्यादती और बिजली-पानी की कमी। झुग्गी वालों को तो पानी महीनों नसीब नहीं था।
मानसून आया। गलियां और पतली सड़कें पानी से भर गईं। गंदला पानी। बच्चे बतखों की तरह पानी में उतर गए। एक मां ने गोद से बच्चे को पानी में उतारते हुए कहा—ले नहा बेटा...खूब नहा....अब भगवान् का दिया सब पानी हमारा है !
दफ्तर। नया-नया है। बिजली गई। 

इधर-उधर की बातचीत ने एक कोई भयानक सपना सुनाया।
कमेंट : पता है सपने क्यों आते हैं ?
-क्यों ?
‘कब्ज़ के कारण !
-पर आदमी खुली आँख भी तो सपने देखता है !
-वह आते हैं गरीबी के कारण !
पढ़े-लिखे लोगों की जमात, घूमते-घामते बात राष्ट्रीय मोर्चा सरकार पर आई। बढ़ती कीमतों पर बात भी हुई थी। दिन बढ़ती कीमतों और बारिश के।
–विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार मूल्य आधारित नीतियों की बात करती है।
-इसीलिए मूल्य बढ़ रहे हैं ! टमाटर आठ रुपये किलो से बीस रुपए किलो हो गया !
वहीं, दूसरा टुकड़ा—
-सरकार राष्ट्रीय मोर्चे की है !
-तभी तो सरकार वाले एक-दूसरे से मोर्चा लगाए बैठे हैं !

सन् ’93....केंद्र में कांग्रेस सरकार। चार राज्यों की बी.जे.पी. सरकारें बर्खास्त, जनता दल के अलग-अलग धड़े, मुलायमसिंह यादव, देवीलाल, ओमप्रकाश चौटाला, वी.पी. सिंह, जार्ज फर्नांडिस, मधु दण्डवते, रामकृष्ण हेगड़े, रामविलास पासवान, शरद यादव, अजित सिंह, बीजू पटनायक आदि—सवाल एक नेता से—क्या कभी जनतादल एक हो सकता है ?
उत्तर : यह करिश्मा जादूगर तो छोड़ो....भगवान भी नहीं कर सकता !
जम्मू-कश्मीर, आंतरिक सुरक्षा का मसला। गृह मंत्री का दौरा, भयानक आतंक का माहौल....पाकिस्तान-पोषित आतंकवादियों का इलाका—बारामूला और कुपवाड़ा, बी.एस.एफ. के जवान, खरतों के बीच।
मंत्री—आप लोगों को कोई दिक्कत तो नहीं ?

बी.एस.एफ. का एक जवान-दिक्कत कोई नहीं, बस कई बार हमारी डेड बॉडी घर नहीं पहुँच पाती.....
सन् ’89-90, अयोध्या राम मंदिर, बाबरी मस्जिद का मामला तूल पर, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, आर.एस.एस., भाजपा की राजनीतिक मिलीभगत, जबरदस्त हिन्दुत्ववादी तूफान। लखनऊ, कपूरथला काम्प्लेक्स के पान की दुकान ! दुकान में प्रस्तावित राम मंदिर का नक्शा।
-तो इस बार तुम भारतीय जनता पार्टी को जितवाओगे ?
पानवाला—हम पागल नाहीं हैं साब ! मंदिर भारतीय जनता पार्टी से बनवाएंगे...सरकार कांग्रेस से चलवाएंगे !
फैज़ाबाद : राम जन्म भूमि तो मिल जाएगी, पर मातृभूमि चली जाएगी !
एक फाश फ़िल्मी बातचीत-सन् ’93-खलनायिका की शूटिंग, दिल्ली में—बातें वही....
शुरू : इंशाअल्ला ! कपड़े उठाए, खोला, देखा : सुभान अल्ला ! दाखिला : माशा अल्ला ! और फिर : अल्ला ! अल्ला ! अल्ला !

अनीता और गायत्री की बातचीत—अनीता की जुबानी-8-6-93.
गायत्री : हाँ इन्होंने डेन बना लिया है। सुबह से उसमें घुस जाते हैं—लिखने के लिए। लगता है कल तक उपन्यास खत्म कर देंगे...फिर मन उचटता है तो उठकर कहीं भी चले जाते हैं....
अनीता : तो पूछ तो लिया करो, कहाँ जा रहे हो ?
गायत्री : पूछ कर इन्हें मुश्किल में क्यों डालूँ !
वही दिल्ली। फ़िल्म खलनायिका की शूटिंग। जितेंद्र, जयप्रदा, अनु अग्रवाल, वर्षा उसगाँवकर और महमूद—शूटिंग देखने आए कुछ पाकिस्तानी। बातचीत में कुछ तनाव और अजीब-सा मोड़।
महमूद : सुनो ! हम तुमसे पैदा नहीं हुए हैं...तुम हमारे नुत्फे से पैदा हुए हो, हिन्दुस्तान से पाकिस्तान पैदा हुआ है...समझे !
वही फ़िल्मी शाम।
-पकड़े गए जनाब, एक प्राइवेट शो में माशूका का हाथ पकड़े बैठे थे। पीछे आकर बीवी बैठ गई ! हालत खराब।
-फिर ?
-फिर क्या, दूसरे हाथ से बीवी के पैर पकड़ लिए।

वही फ़िल्मी गुफ्तगू। एडीटर प्राण मेहरा। शादी। सर्दियां। कश्मीर में हनीमून।
बीवी-हाय रब्बा, तुसी तो कुल्फी मार दित्ती !

वही माहौल : कोई और जोड़ा। बीवी को पूरा अनुभव।
-फिर वही !
-नहीं...बिलीव भी।
-तब इतनी रात कहाँ से आए हो ?
-पार्टी में था।
-पार्टी में थे...ओके...आओ, बैडरूम में आओ !
-बैड रूम ! बैड...
-अब क्या हुआ ?
-सॉरी डार्लिंग ! इस बार माफ कर दो। मैं बहुत शर्मिंदा हूँ !

 

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