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आलोचना >> कुछ कहानियाँ: कुछ विचार कुछ कहानियाँ: कुछ विचारविश्वनाथ त्रिपाठी
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इतना कहना लेकिन जरूरी लगता है कि कुछ स्वातंत्रयोत्तर हिंदी कहानियों पर लिखी ये समीक्षाएँ पढने के बाद वे कहानियां फिर-फिर पढने को जी करता है।
रचना और पाठक के बीच समीक्षक या आलोचक नाम की तीसरी श्रेणी जरूरी है या नहीं, यह शंका पुराणी है। सामाजिक या राजनितिक जरूरत के रूप में यह श्रेणी अपनी उपादेयता बार-बार प्रमाणित करती रही है। लेकिन साहित्यिक जरूरत के रूप में यह ख़ास जरूरत दरअसल न हमेशा पेश आती है और न पूरी होती है। यह जरूरत तो बनानी पड़ती है। आलोचना या समीक्षा की विरली ही कोशिशें ऐसी होती हैं जो पाठक को रचना के और-और करीब ले जाती हैं, और-और उसे उसके रस में पगाती हैं। ये कोशिशें रचना के सामानांतर खुद में एक रचना होती हैं। मूल के साथ एक ऐसा रचनात्मक युग्म उनका बंटा है कि जब भी याद आती हैं, दोनों साथ ही याद आती हैं। इस पुस्तक में संकलित समीक्षाएँ ऐसी ही हैं। बड़बोलेपन के इस जमाने में विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक अपवाद की तरह हमेशा 'अंडरस्टेटमेंट' का लहजा अपनाया है। उनके लिखे पर ज्यादा कहना भी अनुचित के सिवाय और कुछ नहीं है। इतना कहना लेकिन जरूरी लगता है कि कुछ स्वातंत्रयोत्तर हिंदी कहानियों पर लिखी ये समीक्षाएँ पढने के बाद वे कहानियां फिर-फिर पढने को जी करता है। हमारे लिए वे वही नहीं रह जातीं, जो पहले थीं।
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