संस्कृति >> रामायण के महिला पात्र रामायण के महिला पात्रपांडुरंग राव
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प्रस्तुत है रामायण के प्रमुख महिला पात्रों का वर्णन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय जन-जीवन के साथ रामकथा का बहुत गहरा सम्बन्ध है। रामकथा के प्रथम
प्रवक्ता महर्षि वाल्मीकि ने इसे इतनी रमणीय शैली में प्रस्तुत किया था कि
वह न केवल परवर्ती कवियों के लिए अक्षय सम्बन्ध प्रदान करती रही, बल्कि
साधारण जनता भी अपनी दिनचर्चा की कई जटिल समस्याओं को सुलझाने में इसके
विभिन्न प्रसंगों और पात्रों से प्रेरणा लेती रही है। रामकथा के समालोचक
इन प्रसंगों और पात्रों को कई दृष्टियों से समझने और समझाने का प्रयास
करते रहे। फिर भी यह क्षेत्र इतना उर्वर और विस्तृत है कि इस संबंध में
जितना कहा जाय उतना और कहने को रह जाता है। इसी दिशा में एक अभिनव प्रयास
है-प्रस्तुत कृति रामायण के महिला पात्र’।
इसमें वाल्मीकि रामायण के मात्र प्रमुख महिला पात्रों का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टिकोण से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। ये पात्र हैं-जानकी, कैकेयी, कौशल्या, सुमित्रा, अहल्या अनसूया, शबरी, स्वयंप्रभा, तारा, मन्दोदरी, त्रिजटा और शूर्पणखा। इन पात्रों की सृष्टि के पीछे महर्षि की मनोभूमिका को हृदयंगम करने में, आशा है, पाठकों को इस कृति से एक नयी दृष्टि मिलेगी।
इसमें वाल्मीकि रामायण के मात्र प्रमुख महिला पात्रों का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टिकोण से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। ये पात्र हैं-जानकी, कैकेयी, कौशल्या, सुमित्रा, अहल्या अनसूया, शबरी, स्वयंप्रभा, तारा, मन्दोदरी, त्रिजटा और शूर्पणखा। इन पात्रों की सृष्टि के पीछे महर्षि की मनोभूमिका को हृदयंगम करने में, आशा है, पाठकों को इस कृति से एक नयी दृष्टि मिलेगी।
आमुख
डॉ. पाण्डुरंग राव की कृति रामायण के महिलापात्र (वीमेन इन वाल्मीकि) में
रामायण के बारह महत्त्वपूर्ण महिला पात्रों की भूमिका का विद्वत्तापूर्ण
और रोचक विश्लेषण है। इन पात्रों का चयन करते समय लेखक ने इनके महत्त्व के
साथ-साथ कुछ ऐसे विलक्षण गुणों को भी दृष्टि में रखा है। जिनके ये प्रतीक
या प्रतिनिधि हैं। ‘रामायण के महिला पात्र’ में
परस्पर विरोधी
प्रवृत्तियों के पात्रों का हृदय ग्राही चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
समस्त सद्गुणों की आदर्श प्रतिमा तथा सभी दृष्टियों से जानकी की ठीक
विपरीत प्रतिकृति शूर्पणखा के साथ इसका समापन करना सर्वथा समीचीन लगता है।
दशरथ की सबसे छोटी रानी कैकेयी भी इसमें है जो अपनी पापदर्शिता की आप
शिकार बन जाती है और साथ में वह कौशल्या भी है जो सत्य और धर्म के प्रति
अपनी धीर गम्भीर निष्ठा के बल पर संकटपूर्ण परिस्थिति में अपनी उद्गिन
भावुकता पर विजय पाती है।
इनके अलावा अहल्या, तारा और मन्दोदरी भी हैं जो पंच कन्याओं के अन्तर्गत आती है और अचंचल भक्ति-भावना की भव्य मूर्ति शबरी भी है। लंका में जानकी की रखवाली करने वाली त्रिजटा भी है जो राक्षसी होते हुए भी रामायण की भावी घटनाओं को प्रतिभासित करने वाले स्वप्न के दर्शन से अपने को अनुगृहीत मानती है। इनके अलावा भी कुछ और पात्र हैं जिनका इस महाकाव्य में अपना महत्त्व है।
इस छोटी-सी पुस्तक के सभी पात्र लेखक की जानकारी, सूझ-बूझ और प्रशस्य पारदर्शिता से प्रसूत हैं। अब तक अनेक कृतियों के कृतित्व से कृतकृत्य डॉ. पाण्डुरंग राव की लेखनी को यह रचना नयी शोभा प्रदान करती है।
इनके अलावा अहल्या, तारा और मन्दोदरी भी हैं जो पंच कन्याओं के अन्तर्गत आती है और अचंचल भक्ति-भावना की भव्य मूर्ति शबरी भी है। लंका में जानकी की रखवाली करने वाली त्रिजटा भी है जो राक्षसी होते हुए भी रामायण की भावी घटनाओं को प्रतिभासित करने वाले स्वप्न के दर्शन से अपने को अनुगृहीत मानती है। इनके अलावा भी कुछ और पात्र हैं जिनका इस महाकाव्य में अपना महत्त्व है।
इस छोटी-सी पुस्तक के सभी पात्र लेखक की जानकारी, सूझ-बूझ और प्रशस्य पारदर्शिता से प्रसूत हैं। अब तक अनेक कृतियों के कृतित्व से कृतकृत्य डॉ. पाण्डुरंग राव की लेखनी को यह रचना नयी शोभा प्रदान करती है।
16 मई 1978
बी.डी. जत्ती
निवेदन
(प्रथम संस्करण से)
भारतीय चिन्तन के क्षेत्र में विख्यात अर्थवेत्ता व परमार्थवेत्ता श्री
चिन्तामणि देशमुख और उनकी पत्नी श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख की प्रेरणा से
प्रस्तुत रचना का प्रणयन हुआ था। आज से लगभग 14 वर्ष पहले की बात है जब
श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख ने अपनी संस्था ‘आन्ध्र महिला
सभा’
के मुख पत्रिका ‘विजय दुर्गा’ के लिए एक विचारवर्धक
लेख लिखने
का मुझसे अनुरोध किया था। अंग्रेजी और तेलुगु में प्रकाशित इस पत्रिका के
लिए मैंने अंग्रेजी में लेख भेजा था जिसका शीर्षक था : ‘जानकी
इन
वाल्मीकि’। देशमुख दम्पती को यह लेख इतना अच्छा लगा कि वे इसे
लेखमाला का रूप देना चाहते थे। उनकी इच्छा के अनुसार जानकी से आरम्भ कर
शूर्पणखा तक रामायण के विभिन्न महिला पात्रों पर मैंने कुल मिलाकर बारह
लेख दिये। यह लेखमाला विजयदुर्गा के बारह अंकों में लगातार एक वर्ष तक
प्रकाशित हुई और पाठकों की प्रशंसा से प्रेरित होकर ‘आन्ध्र
महिला
सभा’ ने उसे ‘वीमेन इन वाल्मीकि’ के नाम से
पुस्तकाकार
में प्रकाशित किया। लेखमाला के रूप में पहली बार अंग्रेजी में प्रकाशित इस
रचना के प्रबुद्ध पाठकों में से प्रमुख थे भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति
श्री बी.डी. जत्ती जिनका ‘आमुख’ इस प्रयास का प्रभाषक
है। यह
सारा काम 1976 में हुआ था।
बाद में अखिल भारतीय रामायण सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए जब मैं चित्रकूट गया तो वहाँ पर महात्मा गाँधी के अनुयायी और ‘गाँधी मार्ग’ के सम्पादक बाबू भवानी प्रसाद मिश्र से भेंट हुई। इस अंग्रेजी पुस्तक पर उनकी सुरुचिपूर्ण दृष्टि पड़ी तो उन्होंने इसका हिन्दी रूपान्तर गाँधी मार्ग में लेखमाला के रूप में प्रकाशित किया। भवानी बाबू की भव्य भावना का परिणाम है प्रस्तुत रचना-‘रामायण के महिला पात्र।’ न मालूम, किस समाहित क्षण में इस रचना की परिकल्पना मेरे मन में उदित हुई, और उसी का प्रभाव है कि आज यह रचना तेलुगु, कन्नड़ और बांग्ला में भी उपलब्ध हो रही है।
वास्तव में रामायण पिछले तीस वर्षों से लगभग मेरे बहिःप्राण के समान मुझे सहारा देती रही है। रामकथा का भारतीय जनजीवन के साथ भी लगभग इसी प्रकार का सम्बन्ध रहा है। प्राचेतस की प्रतिभा ने इस कथा को इतना रमणीय और मानवीय शैली में प्रस्तुत किया कि यह केवल कथा न रहकर गाथा बन गयी है। देनन्दिन जीवन में मानव मन को सम्बल और मनोबल प्रदान करने वाली अक्षयनिधि इस महाकाव्य में निहित है। रामकथा के पात्र केवल कवि कल्पना से प्रसूत कमनीय पात्र नहीं हैं बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षण में हमारे अनुभव में आने वाले यथार्थ और माननीय पात्र हैं। रामकथा के समालोचक इन पात्रों को कई दृष्टियों से परखने, समझने और समझाने का प्रयास करते रहे। समीक्षण का यह क्षेत्र इतना उर्वर और व्यापक है कि इस सम्बन्ध में जितना कहा जाये, उतना और कहने को रह जाता है। प्रस्तुत विश्लेषण में मैंने इसी समीक्षण को आत्म-निरीक्षण का रूप देने का विनम्र प्रयास किया है।
रचना का नाम ‘रामायण के महिला पात्र’ रखा गया है, हालाँकि यहाँ पर रामायण शब्द से केवल ‘वाल्मीकि रामायण’ ही अभिप्रेत है। इसमें प्रत्येक पात्र का परिशीलन वाल्मीकि रामायण के आधार पर ही किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी ‘रामायण’ शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग करते हुए कहा था-‘‘यद् रामायणे निगदितं क्वचिन्यतोऽपि’’। जैसे गीता कहने मात्र से श्रीमद्भागवत गीता का और सहस्रनाम का उल्लेख करने से ‘श्री विष्णु सहसर्नाम’ का बोध होता है, उसी प्रकार ‘रामायण’ से केवल वाल्मीकि रामायण का ही बोध होना चाहिए, क्योंकि ‘रामायण’ शब्द वाल्मीकि की निजी उद्भावना है। आदि कवि की आर्ष भावना के अनुसार रामायण केवल रामकथा नहीं है, बल्कि यह प्रमुखतः राम का अयन हैं और इसी दृष्टि से उन्होंने रामकथा को प्रस्तुत किया है। अयन शब्द से गतिशीलता का बोध होता है और यही गतिशीलता रामकथा की प्राण नाड़ी है। राम की जीवन यात्रा का सूक्ष्म विश्लेषण कर देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि उनके जीवन में गति ही गति है। बाल्यकाल में ही महर्षि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने उनके साथ चल पड़ना इस गतिशीलता का शुभारम्भ है।
राजतिलक का प्रसंग भी देवयोग से टल जाता है। जो राम अयोध्या में आराम से राजभोग का अनुभव कर सकते थे, उन्हें अचानक वनवास की आज्ञा मिलती है। इसे इयनप्रिय राम लोक कल्याण के उदात्त परिप्रेक्ष्य में आँक कर जीवन का स्वर्णिम अवसर मानते हैं। अपनी सहज निर्लिप्त सात्विकता को स्वर देते हुए सत्य पराक्रम राम कहते हैं-‘‘राज्य वा वनवासो वा वनवासो महोदयः।’’ राज्य और वनवास में अयनशील राम को कोई अन्तर दिखाई नहीं देता, बल्कि उनका अन्तर्मन कहता है कि वनवास में लोककल्याण की जो सम्भावना है, वह सम्भवतः राज्य के पालन में नहीं है। यही अयनशीलता या गतिशीलता राम के जीवन की मौलिक चेतना है। जिसे आदिकवि वाल्मीकि ने अपनी कृति के नामकरण में अभिमंत्रित करते हुए उसका नाम रखा था-‘रामायण’। इस प्रकार उनकी कृति ने सर्वप्रथम ‘रामायमण’ की संज्ञा से अभिहित होने का गौरव प्राप्त किया था। बाद में जितने राम काव्य लिखे गए, उनको अयनशील बनाने की प्रेरणा इसी आदि काव्य से मिली है। इसी दृष्टि से प्रस्तुत रचना के नामकरण में केवल ‘रामायण’ शब्द का प्रयोग कर उससे ‘वाल्मीकि रामायण’ का बोध कराने का प्रयास किया गया है।
वास्तव में रामायण केवल राम का अयन नहीं है; बल्कि रामा (सीता) का भी अयन है। दोनों का यह समन्वित अयन है इस बात को मैंने जानकी के विश्लेषण में स्पष्ट किया है। दशरथनन्दन राम और जनकतनया जानकी एक ही तत्त्व के दो रूप हैं। सीता पृथ्वी की पुत्री है और राम आकाश के स्वामी आदित्य के वंशज हैं। पृथ्वी और आकाश अलग- अलग दिखाई देने पर भी तत्त्वतः एक हैं, एक ही ब्रह्माण्ड के पिण्ड हैं। सीता राम की भावना में भी यही अभेद देखकर गोस्वामी तुलसीदास ने कहा था।
बाद में अखिल भारतीय रामायण सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए जब मैं चित्रकूट गया तो वहाँ पर महात्मा गाँधी के अनुयायी और ‘गाँधी मार्ग’ के सम्पादक बाबू भवानी प्रसाद मिश्र से भेंट हुई। इस अंग्रेजी पुस्तक पर उनकी सुरुचिपूर्ण दृष्टि पड़ी तो उन्होंने इसका हिन्दी रूपान्तर गाँधी मार्ग में लेखमाला के रूप में प्रकाशित किया। भवानी बाबू की भव्य भावना का परिणाम है प्रस्तुत रचना-‘रामायण के महिला पात्र।’ न मालूम, किस समाहित क्षण में इस रचना की परिकल्पना मेरे मन में उदित हुई, और उसी का प्रभाव है कि आज यह रचना तेलुगु, कन्नड़ और बांग्ला में भी उपलब्ध हो रही है।
वास्तव में रामायण पिछले तीस वर्षों से लगभग मेरे बहिःप्राण के समान मुझे सहारा देती रही है। रामकथा का भारतीय जनजीवन के साथ भी लगभग इसी प्रकार का सम्बन्ध रहा है। प्राचेतस की प्रतिभा ने इस कथा को इतना रमणीय और मानवीय शैली में प्रस्तुत किया कि यह केवल कथा न रहकर गाथा बन गयी है। देनन्दिन जीवन में मानव मन को सम्बल और मनोबल प्रदान करने वाली अक्षयनिधि इस महाकाव्य में निहित है। रामकथा के पात्र केवल कवि कल्पना से प्रसूत कमनीय पात्र नहीं हैं बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षण में हमारे अनुभव में आने वाले यथार्थ और माननीय पात्र हैं। रामकथा के समालोचक इन पात्रों को कई दृष्टियों से परखने, समझने और समझाने का प्रयास करते रहे। समीक्षण का यह क्षेत्र इतना उर्वर और व्यापक है कि इस सम्बन्ध में जितना कहा जाये, उतना और कहने को रह जाता है। प्रस्तुत विश्लेषण में मैंने इसी समीक्षण को आत्म-निरीक्षण का रूप देने का विनम्र प्रयास किया है।
रचना का नाम ‘रामायण के महिला पात्र’ रखा गया है, हालाँकि यहाँ पर रामायण शब्द से केवल ‘वाल्मीकि रामायण’ ही अभिप्रेत है। इसमें प्रत्येक पात्र का परिशीलन वाल्मीकि रामायण के आधार पर ही किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी ‘रामायण’ शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग करते हुए कहा था-‘‘यद् रामायणे निगदितं क्वचिन्यतोऽपि’’। जैसे गीता कहने मात्र से श्रीमद्भागवत गीता का और सहस्रनाम का उल्लेख करने से ‘श्री विष्णु सहसर्नाम’ का बोध होता है, उसी प्रकार ‘रामायण’ से केवल वाल्मीकि रामायण का ही बोध होना चाहिए, क्योंकि ‘रामायण’ शब्द वाल्मीकि की निजी उद्भावना है। आदि कवि की आर्ष भावना के अनुसार रामायण केवल रामकथा नहीं है, बल्कि यह प्रमुखतः राम का अयन हैं और इसी दृष्टि से उन्होंने रामकथा को प्रस्तुत किया है। अयन शब्द से गतिशीलता का बोध होता है और यही गतिशीलता रामकथा की प्राण नाड़ी है। राम की जीवन यात्रा का सूक्ष्म विश्लेषण कर देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि उनके जीवन में गति ही गति है। बाल्यकाल में ही महर्षि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने उनके साथ चल पड़ना इस गतिशीलता का शुभारम्भ है।
राजतिलक का प्रसंग भी देवयोग से टल जाता है। जो राम अयोध्या में आराम से राजभोग का अनुभव कर सकते थे, उन्हें अचानक वनवास की आज्ञा मिलती है। इसे इयनप्रिय राम लोक कल्याण के उदात्त परिप्रेक्ष्य में आँक कर जीवन का स्वर्णिम अवसर मानते हैं। अपनी सहज निर्लिप्त सात्विकता को स्वर देते हुए सत्य पराक्रम राम कहते हैं-‘‘राज्य वा वनवासो वा वनवासो महोदयः।’’ राज्य और वनवास में अयनशील राम को कोई अन्तर दिखाई नहीं देता, बल्कि उनका अन्तर्मन कहता है कि वनवास में लोककल्याण की जो सम्भावना है, वह सम्भवतः राज्य के पालन में नहीं है। यही अयनशीलता या गतिशीलता राम के जीवन की मौलिक चेतना है। जिसे आदिकवि वाल्मीकि ने अपनी कृति के नामकरण में अभिमंत्रित करते हुए उसका नाम रखा था-‘रामायण’। इस प्रकार उनकी कृति ने सर्वप्रथम ‘रामायमण’ की संज्ञा से अभिहित होने का गौरव प्राप्त किया था। बाद में जितने राम काव्य लिखे गए, उनको अयनशील बनाने की प्रेरणा इसी आदि काव्य से मिली है। इसी दृष्टि से प्रस्तुत रचना के नामकरण में केवल ‘रामायण’ शब्द का प्रयोग कर उससे ‘वाल्मीकि रामायण’ का बोध कराने का प्रयास किया गया है।
वास्तव में रामायण केवल राम का अयन नहीं है; बल्कि रामा (सीता) का भी अयन है। दोनों का यह समन्वित अयन है इस बात को मैंने जानकी के विश्लेषण में स्पष्ट किया है। दशरथनन्दन राम और जनकतनया जानकी एक ही तत्त्व के दो रूप हैं। सीता पृथ्वी की पुत्री है और राम आकाश के स्वामी आदित्य के वंशज हैं। पृथ्वी और आकाश अलग- अलग दिखाई देने पर भी तत्त्वतः एक हैं, एक ही ब्रह्माण्ड के पिण्ड हैं। सीता राम की भावना में भी यही अभेद देखकर गोस्वामी तुलसीदास ने कहा था।
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
वन्दौं सीताराम पद जिनहिं परमप्रिय खिन्न।।
वन्दौं सीताराम पद जिनहिं परमप्रिय खिन्न।।
आश्चर्य की बात यह है कि सीता-राम के जीवन में सुख-शान्ति कहीं दिखाई नहीं
देती। केवल दुख-ही-दुख है, विषाद-ही-विषाद है। लेकिन इसी विषाद को दोनों
की लोकोत्तर चेतना ने प्रसाद के रूप में स्वीकार किया है। विषाद को प्रसाद
बनाने की इस लोकोत्तर साधना में जानकी और दाशरथी का सारा जीवन समर्पित
रहा। रामायण इसी समर्पण की स्वर लहरी है जिसमें दोनों के स्वर समाहित और
समेकित हैं।
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