आलोचना >> हिंदी का गद्यपर्व हिंदी का गद्यपर्वनामवर सिंह
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इस पुस्तक में अलग-अलग अवसरों पर लिखी गई पाँच समीक्षाएँ भी मौजूद हैं।
प्रो. नामवर सिंह हिन्दी का चेहरा हैं। उनमें हिन्दी समाज, साहित्य-परम्परा और सर्जना की संवेदना रूपायित होती है। वे न सीमित अर्थों में साहित्यकार हैं और न आलोचक। वे हिन्दी में मानवतावादी, लोकतांत्रिक और समाजवादी विचारों की व्यापक स्वीकृति के लिए सतत संघर्षशील प्रगतिशील आन्दोलन के अग्रणी विचारक हैं। प्रो. नामवर सिंह ने इस वर्ष हिन्दी आलोचना में साठ वर्ष पूरे कर लिये हैं। यह पुस्तक साक्ष्य है नामवर जी के सक्रिय साठ वर्षों कादृएक दस्तावेजी साक्ष्य! इसमें उनका पहला प्रकाशित निबन्ध है और अभी तक लिखित अंतिम निबन्ध ‘द्वा सुपर्णा...’ और ‘पुनर्नवता की प्रतिमूर्ति’ भी। अंतिम दोनों निबन्ध 2008 में लिखे गए हैं। पूर्व प्रकाशित ख्यातिनाम और लोकप्रिय पुस्तकों के बावजूद इस तरह की पुस्तक का विशेष महत्व इसलिए भी है कि इस एक अकेली पुस्तक में नामवर जी की विकास-यात्रा के प्रायः सभी पड़ावों की झलक मौजूदहै। निबन्धों के लेखन काल की ही तरह उनके विषय भी विस्तृत क्षेत्र में फैले हैं। परंतु इस पुस्तक के कंेद्र में हैदृआलोचना। वैश्विक पृष्ठभूमि वाले आलोचकों जॉर्ज लूकॉच, लूसिएॅ गोल्डमान और रेमंड विलियम्स से लेकर भारतीय परम्परा को पुनर्नवा करने वाले गौरव नक्षत्रों, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और डॉ. रामविलास शर्मा पर लिखे गए निबन्ध यहाँ एक साथ मौजूद हैं। दीर्घ सक्रियता की अवधि में नामवर जी ने पुस्तक समीक्षाएँ प्रायः नहीं लिखी हैं। इस पुस्तक में अलग-अलग अवसरों पर लिखी गई पाँच समीक्षाएँ भी मौजूद हैं।
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