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खिंचाइयाँ

गंगाधर गाडगिल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :227
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1389
आईएसबीएन :81-263-0651-3

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श्री गंगाधर गाडगिल मराठी साहित्य की बहुत बड़ी हस्ती हैं

Khinchaiyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

खिंचाई से पहले

श्री गंगाधर गाडगिल मराठी साहित्य की बहुत बड़ी हस्ती हैं, ग़जब के शैलीकार हैं, गद्य की नयी धार हैं, विकट अन्वेषी उपन्यासकार हैं, मराठी व्यंग्य साहित्य की नयी दिशाओं के अद्भुत दिशासूचक यन्त्र हैं, राष्ट्रीय साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष भी हैं (अब तो कहना होगा कि रह चुके हैं) वग़ैरह-वग़ैरह...यह सब तो मैंने बहुत बाद में जाना, सबसे पहले मैंने उन्हें खिंचाईकार के रूप में जाना और इस नाते मैंने उनकी खिंचाइयों पर कुछ लिख सकने का ‘पुश्तैनी हक़’ जैसा माना। मेरा यह आलेख उसी ‘पुश्तैनी हक़’ की अदायगी का नतीजा है।

उनकी खिंचाइयों का पहला शिकार मेरी निगाह में भारतीय हिन्दुस्तानी संगीत हुआ। क़िस्सा ज़रा पुराना है ज़्यादा नहीं चालीस साल पुराना। मैं ताज़ा-ताज़ा मुम्बई विश्वविद्यालय की प्राध्यापकी छोड़कर धर्मवीर भारती के साथ सम्पादकीय विभाग में दाख़िल हुआ था। भारती जी ‘धर्मयुग’ को साहित्य, कला, राजनीति, अर्थशास्त्र, खेलकूद, साज-श्रृंगार यहाँ तक कि रसोईघर के व्यंजनों तक के नये आस्वाद से भरना चाहते थे, मैं उनकी इस मुहिम में सहायक बनकर टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में दाखिल हुआ था। चूँकि ज़्यादा दिन विश्वविद्यालय की नौकरी में नहीं गुज़रे थे, केवल विभागाध्यक्ष तक की सीढ़ियाँ ही चढ़ा था, इसलिए पढ़ने लिखने की आदत से पूरी तरह छुटकारा नहीं पा सका था। सो मैं ऐरिक फ्रॉम, आर्नल्ड टॉयनबी, ऑर्थर कोस्लर, बोर्खे़स जैसे विदेशी दिमाग़ों की खँगाल तो करता ही रहता था, अपने देश में विभिन्न भारतीय भाषाओं के उन लोगों के लेखन पर भी निगाह रखता था जो लीक को तोड़कर खुरदरे रास्तों पर चलने में यक़ीन रखते थे। मुम्बई, जो तब तक बम्बई था, आज भी मराठी लेखन का ‘मक्का-मदीना’ माना जाता है। उस समय पु. भा. भागवत, विन्दा करन्दीकर, मंगेश पाडगाँवकर, बसन्त बापट, पु.ल. देशपाण्डे, गंगाधर गाडगिल, विजय तेन्दुलकर जैसे नाम साहित्य में चमक रहे थे। मैं एक दिन बम्बई विश्वविद्यालय लाइब्रेरी के अध्यक्ष जी के साथ बैठा एल ग्रेको, मतीस, रोदाँ, वान गॉग जैसे विश्वप्रसिद्ध कलाकारों से सम्बन्धित एक श्रृंखला को ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित करने के लिए सामग्री जुटाने के चक्कर में मार्शल साहब से बातचीत कर रहा था कि मेरी निगाह ‘एटलाण्टिक’ पत्रिका के कवर पर पड़ गयी। उसमें गंगाधर गाडगिल का लिखा भारतीय संगीत पर एक लेख था जिसे प्रमुखता के कारण भी कवर पर स्थान दिया गया था। अँग्रेज़ी की विश्वप्रसिद्ध पत्रिका में भारतीय संगीत पर मराठी का लेखक लिख रहा है और जिसका कवर पर उल्लेख है ! मेरी दिलचस्पी बढ़ी। मैं मार्शल साहब से माँगकर पत्रिका ले आया। लेख को पढ़ा तो हँसते-हँसते पेट में बल पड़ने लगे गायक के मंच पर आने से लेकर तानपूरा और तबला मिलने और आलाप शुरू करने तक ‘वक़्त की बरबादी’ का जो जीवन्त नज़ारा गाडगिल साहब ने खींचा, उसने मुझे डॉ. भारती के केबिन में दाख़िल किया। मैंने सुझाव दिया कि इस लेख का अनुवाद ‘धर्मयुग’ में हमें छापना चाहिए, भारतीय संगीत की अद्भुत खिंचाई की गयी है। भारती जी ऐसे आलेखों को लपकने में माहिर थे। हिदायत यह ज़रूर थी कि अनुवाद में इस आनन्द की आत्मा बरक़रार रहनी चाहिए। और इस चक्कर में उसके अनुवाद की ज़िम्मेदारी भी मुझे उठानी पड़ी। अनुवाद की भाषा में कठिनाई नहीं थी, बात खिंचाई के मुहावरे की थी।

बहरहाल; अनुवाद छपा और गा़डगिल साहब मुझे अनुवाद के लिए धन्यवाद देने ‘धर्मयुग’ के दफ़्तर आये। धन्यवाद का लहज़ा गाडगिलीय था, ‘‘तो आप भी किसी संगीत-सम्मेलन में फँस चुके हैं ! ज़रूर किसी संगीतकार के सताये हुए हैं वरना ऐसी जली-कटी ज़बान अनुवाद में आ ही नहीं सकती थी।’’
मैंने उन्हें बताया कि ‘घायल की गति घायल जाने’ का मुहावरा इसीलिए ईजाद किया गया है।....और हम दोनों ने दफ़्तरी माहौल को शाइस्तगी से बचाकर एक-एक ठहाका लगा लिया। तब से आज तक इन चालीस सालों में मुझे याद नहीं पड़ता कि गाडगिल साहब ने मेरी खिंचाई में किसी एक मुलाक़ात में भी कोई कोताही की हो। जब से मैं दिल्ली आ गया, उनकी खिंचाइयों का ताल्लुक़ दिल्ली की राजनीतिक उठापटक और सरगर्मियों से भी जुड़ गया, साहित्य और सामान्य जीवन तो था ही। जब भी दिल्ली में कोई राजनीतिक गड़बड़ होती है गाडगिल साहब मुझे पूरी गम्भीरता से बधाई देने की कोशिश करते हैं और मैं अपनी समस्त गम्भीरता की चाशनी डालते हुए उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश करता हूँ कि मेरे रहते उन्हें कोई परेशानी महसूस नहीं करनी चाहिए। मैं अपने तईं पूरी कोशिश करूँगा कि स्थितियाँ ठीक न होने पावे।....यह एक तरह से हम दोनों की दुआ-सलाम का एक सिलसिला है जिसके बाद हमारे ठहाकों से टेलीफ़ोन के तारों के ‘डिस्प्लेसमेण्ट’ का ख़तरा पैदा हो जाता है। एक बार तो स्थिति टेलीफ़ोन की ख़राबी को लेकर ऐसी बनी कि गाडगिल साहब ने संचार मन्त्री तक को मेरी शिकायत लिखने की धमकी दी कि वे संचार मन्त्री को लिखेंगे कि आपके टेलीफ़ोन के तार जब सामान्य बातचीत का संवहन कर पाने में कमज़ोर हैं तो यह शख़्स इतने ज़ोर-ज़ोर के ठहाकों के आदान-प्रदान से आपकी लाइनों पर अतिरिक्त ज़ोर डाल रहा है इसलिए इसके टेलीफ़ोन की दरों में इज़ाफ़ा किया जाना चाहिए।

टेलीफ़ोन की दरों में इज़ाफ़ा तो नहीं हुआ, अलबत्ता हमारी दोस्ती में इज़ाफ़ा ज़रूर होता रहा। इसका असली आधार उनकी ‘खिंचाइयाँ’ रही हैं, जिसे मराठी के पाठक नियमित पढ़ते रहे हैं, हिन्दी के पाठकों को अब उसका आनन्द मिल सकेगा। मराठी में इसे ‘फिरकी’ के अन्तर्गत प्रभूत आदर मिल चुका है। बल्कि कहना यह सही होगा कि उनके इस लेखन से मराठी हास्य-व्यंग्य साहित्य को एक नया प्रस्थान-बिन्दु मिला। उनके इस लेखन और उसकी सहज भाषा में गुँथी हुई व्यंग्य की शैली ने समूचे मराठी कहानी-लेखन को एक दिशा दी। उन्होंने आत्मनिष्ठ लेखन के ज़रिए ‘मैं’ का ऐसा अद्भुत समागम मराठी लेखन में किया जो उनके पूर्ववर्ती और परवती लेखकों के ‘मैं’ से एक भिन्न छवि लेकर उभरा। उनका यह ‘मैं’ ना.सी. फड़के, अनन्त काणेकर, दुर्गा भागवत जैसे रचनाकारों के ‘मैं’ से बिलकुल भिन्न एक ऐसा आत्मनिष्ठ चरित्र है जो गाडगिल साहब के स्वभाव की विशेषताएँ साथ लेकर अपने समय और समाज पर टिप्पणी करता है। वह अपनी खिंचाई भी करता है। यह विश्वसनीयता उनके ‘मैं’ की विशेषता है। उसमें काल्पनिकता की छौंक भी यथार्थ से अलग नहीं जाती, बल्कि वह समूचे यथार्थ को और अधिक आह्लादकारी बना देती है।

इस ‘मैं’ को केन्द्र बनाकर लिखा हुआ उनका लेखन न तो नितान्त संस्मरणात्मक है और न ही बिलकुल आत्मकथात्मक। उन्होंने कहीं लिखा है कि ‘आत्मचरित्र लिखनेवाला लेखक जिस तरह ब्यौरा प्रस्तुत करता है, वैसा बन्धन मैंने स्वीकारा नहीं है।’’

यह बन्धन न स्वीकारना उनके लेखन को एक नया फलक देता है क्योंकि वे कल्पना का ज़रूरत के मुताबिक इस्तेमाल करते हैं और कथ्य की विश्वसनीयता को आधार देते हैं। मसलन् उनका एक निबन्ध है। ‘शतक जो मैं नहीं बना सका’। उसमें वे अपने क्रिकेट खेलने के शौक़ को पूरा करने के लिए बॉलिंग, बैटिंग, विकेट कीपरी वग़ैरह-वग़ैरह सभी कुछ करते हैं लेकिन बेचारों की हसरत रह जाती है, खेल नहीं पाते। विकेट कीपरी तो उन्होंने हार कर की और जब की तो हर बॉल को पकड़कर स्टम्प पर ठोंक देना उनका शग़ल बन गया। दो एक बार तो स्टम्प पर ठोंकनें के बजाय बल्लेबाज की पीठ पर ही ठोंक दी। भले ही इसके लिए बल्लेबाज ने इनकी ठोंकाई कर दी।

खेल-खेल में उन्होंने मुर्ग़ी पकड़ने का भी अभ्यास किया बताया है लेकिन उसका विवरण देने से क़तरा गये हैं। स्पष्ट स्वीकार किया है : ‘‘जाने क्यों हम बच्चों ने यह ग़लतफहमी पाल रखी है कि मुर्ग़ी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। असल में यह काम कितना मुश्किल है यह बहुत बाद में जाना।’’

ज़ाहिर है उन्होंने बहुत बाद में तभी जाना होगा जब ‘असल में’ वे मुर्ग़ी पकड़ने निकले होंगे। गाडगिल साहब मुर्ग़ी पकड़ते ही मुर्ग़ा बनने तक की स्थिति में जा सकते हैं बशर्ते कि उनके कथ्य की धार और उसकी विश्वसनीयता बढ़ सके।
उनका ‘मैं’, एक दिन ‘प्रधानमन्त्री के अनुरोध’ पर विदेश मन्त्रालय का कार्यभार सँभाल बैठा। अब आप देखिए विदेश मन्त्रालय में उनके कुछ कारनामे। वे लिखते हैं : ‘‘विदेश मन्त्री की हैसियत से भारत-रूस दोस्ती को बरकरार रखवाने का पूरा बन्दोबस्त कर चुकने के बाद मैं पश्चिम यूरोप की यात्रा पर निकल पड़ा।’’ चलते समय सेक्रेटरी ने उन्हें आगाह किया कि उन्हें वहाँ कुछ अलग तरह से पेश आना चाहिए। इस पर गाडगिल साहब का बयान देखिए ! मैंने हँसकर कहा-न, न, इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। मैं जानता हूँ कि कैसे पेश आना चाहिए। पहली बात यह कि आपके चेहरे पर मग़रूरी झलकनी चाहिए। दूसरी बात यह कि आपके बोलने का अन्दाज़ भी थोड़ा मग़रूर होना चाहिए। तीसरी बात, बराबर यह जताने रहना चाहिए कि विकसित देशों का बहुत बड़ा गुनाह है उनकी सम्पन्नता। उन्हें क़दम-क़दम पर यह याद दिलाते रहना चाहिए कि अविकसित देशों की सारी समस्याएँ हल करने की ज़िम्मेदारी उनकी है।’’

उनका यह बयान भारतीय विदेश-सेवा का नीतिगत बयान है जो विदेश मन्त्रालय के अफ़सरों के व्यवहार में रक्त-मांस-मज्जा की तरह पैठ गया है। इस व्यवहारगत खुलासे के बाद गाडगिल साहब विदेश मन्त्री की हैसियत से ऐसे-ऐसे बारीक़ पेंच खोलते हैं कि लगता है वे कभी विदेश में जरूर रहे हैं।

जी नहीं, वे रहे कहीं नहीं। उनकी दृष्टि हर जगह रही है। वह दृष्टि सास-बहुओं के बीच भी अपनी दूरबीन लगा कर बैठती है और पिता-पुत्र के बीच भी। एक पिता अपने पुत्र के हिप्पीनुमा बड़े-बड़े झबरे बालों से परेशान है। लेकिन पुत्र को सुधारकर ‘लाइन’ में लाने का उन्हें कोई उपाय नहीं सूझता। अगली बार गाडगिल साहब जरा दुबारा अपने मित्र मधु उर्फ़ उस पिता को मिलने जाते हैं तो पाते हैं कि पिता पुत्र से कई गुना ज़्यादा हिप्पी हो चुका है और अब पुत्र को उसका यह हिप्पी-पितृत्व बहुत अधिक परेशान किये हुए है। पुत्र पिता को पिता की तरह देखना ही पसन्द करता है। इसके लिए अन्ततः एक समझौता होता है कि पिता तभी अपने बाल कटवाएगा जब पुत्र भी उनके साथ ही अपने बाल कटवाने जाएगा। आगे का बयान गाडगिल साहब की कलम से : ‘‘काफ़ी देर तक बीच-बचाव चलता रहा। आख़िर समझौता हो गया।
मधु ने तुरन्त मोटर साइकिल निकाली। पीछे बण्टी को बिठाकर वह स्टार्ट करने लगा।
‘मगर सैलून तो अब बन्द हो चुका होगा !’’ मैंने कहने की कोशिश की।

‘खुलवा लूँगा। तुम क्या समझे ?’ मुझे डाँटते हुए एक धमाके के साथ मधु ने मोटर साइकिल स्टार्ट की और दोनों चले गये।’’
यह ‘खिंचाई’ जिस संकेत के साथ समाप्त होती है उसमें आशय गाडगिल साहब ने यह भी दिया है कि नयी पीढ़ी असंयत होकर अगर चलती है तो हार मानने की ज़रूरत नहीं है। एक समय ऐसा आता है जब नयी पीढ़ी को भी तथ्य के प्रति सहमति का मन बनाना पड़ता है। और जब वह क्षण आ जाए तो मौक़ा नहीं चूकना चाहिए चाहे ‘सैलून’ खुलवाना ही पड़ जाए।
गाडगिल साहब अपने इस ‘फिरकी’ लेखन में कहीं स्वयं चरित्र हैं और कहीं पैदा किये गये चरित्रों के बीच एक निवेदक। दोनों ही स्थितियों में वे अपने अभिप्रेत पर नज़र रखते हैं और ऐसी-ऐसी स्थितियों की कल्पनाएँ उसमें जोड़ते हैं जो यथार्थ से दूर लगती हैं लेकिन निशाना यथार्थ को ही बनातीं हैं। विदेश मन्त्री का कार्यभार सँभालने के लिए उनसे पूछा जाता है कि वे अपना कार्यभार कब सँभालेंगे। जवाब मिलता है, ‘‘हमारे दर्ज़ी का कोई भरोसा नहीं है। जैसे ही वह बन्द गले का कोट सिलकर दे देगा, मैं आ जाऊँगा।’’

यथार्थ से कोसों दूर है यह स्थिति, लेकिन इसके निशाने पर दर्ज़ियों की समय पर कपड़ा सिलकर न देने की प्रवृत्ति भी है और बन्द गला कोट पहनने के बाद राजनीतिज्ञों की मग़रूरी भी।
मराठी के एक समीक्षक हैं श्री गो.मा.पवार। प्रोफ़ेसर पवार ने गाडगिल साहब की कहानियों में इस अकल्पनीय स्थिति को मराठी हास्य-व्यंग्य की विक्षिप्ति प्रवृत्ति की संज्ञा दी है। इस प्रवृत्ति में वे कहते हैं कि कार्य-कारण भाव के अनुपात में परिवर्तन कर कारण को मामूली यानी गौरव और कार्य को गहन-गम्मीर और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बताना इस प्रवृति का लक्षण है। इस प्रवृत्ति का इस्तेमाल गाडगिल साहब अपनी कहानियों में चरित्र बनकर भी करते हैं और निवेदक बनकर भी।
निवेदक की शैली में वे एक प्रोफ़ेसर पण्डित का वर्णन कर रहे हैं। व्यक्तित्व की गुरुता का बोझ क्या गुल खिला रहा है। देखें: ‘‘ज्ञान के बोझ तले दबे रहने से उनकी हर हलचल मन्दगति से होती थी। अतः घण्टी बजने के बाद जब वे क्लासरूम में जाने के लिए निकलते थे तो क्लासरूम पहुँचने में ही उन्हें पाँच मिनट लग जाते थे।’’
मैंने पहले ही कहा है कि गाडगिल साहब का कहानीकार अपनी विलक्षण दृष्टि से हर उस जगह मौजूद होता है जहाँ हम और आप हास्य-व्यंग्य की कल्पना भी नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए, होटल मैं बैरा बिल लाता है तो एक कवर के अन्दर रखकर लाता है। ताज इण्टरकाण्टिनेण्टल में भी बिल उसी तरह आया। सामान्य बात है। लेकिन नहीं, गाडगिल साहब की निगाह बैरे के बिल लाने की स्टाइल पर तो है ही, निगाह बिल की रक़म पर भी है-‘‘बिल इतना भारी भरकम था कि उसे इस क़दर फोल्डर में छिपा कर देना ही इष्ट था।’’

जब छोड़ा उन्होंने अपने को ही नहीं, तो फिर अपने समकालीनों को कैसे छोड़ें। स्टाइल देखें निर्जीव से जीव तक पहुँचने का। उनका टेलीफ़ोन बन्द हो गया। रिसीवर उठाकर देखा कोई आवाज नहीं। डायल टोन भी नहीं। ‘‘पुनः मैंने बड़ी आशा से कान में रिसीवर लगाया। उस वक़्त भी वैसी ही नीरव शान्ति। कहीं कोई खुटपुट, फुसफुस नहीं। निःशब्द शान्ति....जैसी कि मंगेश पाडगाँवकर की कविता में होती है।’’ कहाँ टेलीफ़ोन का रिसीवर और कहाँ मंगेश पाडगाँवकर की कविता। लेकिन यह स्थूल जगत् से भावजगत् में जाने का गाडगिल स्टाइल है।
स्टाइल कोई भी हो, गाडगिल साहब के यहाँ सीमाओं के अतिक्रमण की गुंज़ाइश नहीं होती। चिकोटी वे काटते हैं लेकिन ऐसी कि न निशान पड़े, न दर्द ज़्यादा हो। स्थिति को कितना ही हास्यजनक बनाकर वे पेश करें, हमेशा लक्ष्य किसी गम्भीर उद्देश्य की ओर संकेत करता मिलेगा। यही उनकी चिकोटी की विशेषता है।

कभी-कभी मुझे ताज्जुब होता है कि बण्डू सीरीज़ की कहानियों के ख़ासे लम्बे अन्तराल के बाद इन फिरकी सीरीज़ की खिंचाई प्रधान कहानियों तक आते-आते वे गम्भीरता के जंगल में क्यों नहीं भटक गये। मगर मैंने पाया है कि इस मामले में वे बेहद संयमी लेखक हैं। उपन्यास लिखते हैं तो ‘दुर्दम्य’ जैसा, जिसके कथ्य की महत्ता और गम्भीरता के आगे गम्भीरता भी लजा उठे। अर्थशास्त्र की गुत्थियों पर अपनी सम्मतियाँ देते हैं तो इस अन्तर्दृष्टि के साथ कि कार्पोरेट जगत् उन टिप्पणियों से अपनी योजनाओं का चेहरा बदलने की सोचने लगे। बहुत कम लोग जानते होंगे कि वे इस देश के गिने-चुने अर्थशास्त्रियों में से हैं। जिनकी सालाना बजट सम्बन्धी टिप्पणियों के लिए अख़बारवालों की क़तार लगती है। सरस्वती ने उन्हें वाणी का ऐसा वरदान दिया हुआ है कि उनका व्याख्यान सुनने के लिए पाँच सितारा होटलों में भी श्रोताओं की भीड़ लगती है। बोलने के लिए उन्हें विषय की बन्दिशें नहीं सतातीं। वे जैसे लेखन के लिए अपनी कहानियों के अपार वैविध्य में सन्तरण करते हैं, उसी तरह बोलने के लिए किसी भी विषय का चुनाव कर सकते हैं। एक बार एक उड़ान के दौरान हवाई जहाज़ में भेंट हुई। पता चला गाडगिल साहब ऑल इण्डिया परफ्यूमर्स एसोसिएशन के वार्षिक समारोह का उद्घाटन करने के लिए जा रहे हैं जहाँ वे सुगन्धों पर व्याख्यान देंगे।

नफ़ासत के साथ जीने और नफ़ासत के साथ जीवन के हर सुखभोग का उनका अन्दाज़ अनोखा है। इस क्रम में वे ताज इण्टरकाण्टिनेण्टल में भी उसी सहजता के साथ होते हैं जिस सहजता से मौर्या शेरेटन या ओबोराय काण्टिनेण्टल अथवा ताज मानसिंह में ठहरते हैं लेकिन उनकी यह सुख-सुविधा की स्थिति उनके सरोकारों पर कोई पर्दा नहीं डाल पाती। उसके वे बेताज बादशाह हैं। मराठी साहित्य जगत् में उनका जितना आदर है उससे कम आदर देश की अन्य भाषाओं के साहित्यकारों के बीच नहीं है। साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष के रूप में उनकी यह छवि मैं यहाँ दिल्ली में देख चुका हूँ। उनके लेखन को भारत की विभिन्न भाषाओं के पाठकों तक पहुँचना चाहिए, ऐसी ज़रूरत मैं महसूस करता हूँ।

1 जनवरी, 2001
नयी दिल्ली -कन्हैयालाल नन्दन

प्रस्तावना


आधुनिक मराठी साहित्य के अग्रगण्य लेखकों में गंगाधर गाडगिल जी प्रमुख हस्ताक्षर हैं। आपने परम्परागत अनुभव, सीमित कथ्य, रूढ़ अभिव्यक्ति संकेत, घिसी-पिटी भाषा में आबद्ध मराठी कहानी में नयी चेतना जाग्रत कर उसे अन्तर्बाह्य परिवर्तित किया और कुण्ठामुक्त भी। आपके इस महत् प्रयास एवं प्रयोग के कारण मराठी कहानी-विधा समृद्ध तथा विकसित हुई, साथ-साथ मराठी की अन्य गद्य विधाओं ने इस नयी दिशा में अपनी यात्रा आरम्भ की जिसके परिणामस्वरूप इन विधाओं में भी यथार्थ अतल, प्रामाणिक अनुभूतियों को विभिन्न स्तरों पर एवं बहुविध आयामों से अभिव्यक्त किया जाने लगा। गाडगिल जी ने कथ्य के अनुरूप भाषा और शैली के प्रयोग कर सिद्ध कर दिखाया कि कथ्य-भाषा शैली के मणिकांचन योग से साहित्य की जीवनदर्शनाभिव्यक्ति क्षमता एवं वाङ्मयीन सौन्दर्य वृद्धिगत होता है। उनके इन्हीं प्रयासों के कारण मराठी गद्य साहित्य को विकास की नयी-नयी दिशाएँ उपलब्ध हो सकीं।

मराठी कहानी के स्वरूप में अन्तर्बाह्य परिवर्तन लाने के अपने इस मौलिक कार्य के साथ-साथ गाडगिल जी उपन्यास, नाटक, यात्रा-वर्णन आदि गद्य विधाओं में अपनी विशेष शैली के दर्शन कराते हैं। उनका हास्य लेखन भी इससे सम्पृक्त है। हास्य कहानी लेखन- विशेषतः ‘बण्डू’ पर लिखी कहानियों के- द्वारा उन्होंने विक्षिप्त (विम्ज़िकल) प्रवृत्ति को व्यंग्यात्मक कहानी शैली में प्रस्तुत कर अब तक की मराठी हास्य कहानी को हास्य-व्यंग्यात्मक कहानी के स्तर पर पहुँचा दिया। ‘फिरकी’ शीर्षकान्तर्गत का उनका समूचा लेखन इस बात का साक्ष्य है कि यही वह प्रस्थान-बिन्दु है जहाँ से मराठी हास्य-व्यंग्य साहित्य को अपनी सही दिशा प्राप्त हुई। उनका आत्मनिष्ठ, हास्य-व्यंग्य प्रधान, मुक्त शैली युक्त ‘फिरकी’ लेखन मराठी के परवर्ती आत्मनिष्ठ एवं हास्य प्रधान लेखन में (1960 से 1970 तक के) मूलाग्र क्रान्ति लानेवाला आत्मनिष्ठ लेखन सिद्ध हुआ है।

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