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वामा

ए.असफल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1368
आईएसबीएन :81-263-0839-7

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प्रस्तुत है वामा...

Vama

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संगठन अजय शक्ति है। समकालीन कहानीकारों में ए. असफल एक ऐसे कहानीकार के के रूप में जाने जाते हैं जिनकी लेखन-शैली; कहानियों का अनुभव संसार तथा भाषाई सौन्दर्यबोध विशिष्ट छाप छोड़ता है। मानवीय सम्बन्धों  को लेकर जो व्याकुलता, चिन्ता तथा लगाव उनकी कहानियों में है वह आज के विखंडित होते मनुष्य समाज की सबसे बड़ी चिन्ता है। ‘वामा’ की कहानियाँ स्त्री जीवन के बहुआयामी रूपों से भी सम्बन्ध हैं, जो स्त्री के शील, सतीत्व, प्रेम, करुणा, दया, ममता, समर्पण, संघर्ष तथा संबंधों के प्रति प्रतिबद्धता आदि गुणों को रेखांकित करती हैं। जैसे-जैसे इन कहानियों का संसार हमारे सामने खुलता जाता है वैसे-वैसे कहानीकार का भावबोध तथा दृष्टि-सम्पन्नता भी खुलती जाती है। ए. असफल की कहानियों के पात्र जिन्दगी से सीधे सरोकार रखते हैं। इन कहानियों में बौद्धिकता का बोझ नहीं ये दार्शनिकता से बँधी कहानियाँ न होकर भी जीवन दर्शन की भीतरी तहों को खोलने वाली कहानियाँ है। कुछ कहानियो में आंचलिकता की मिठास बरबस ही मन को छू लेती है। भाषा में आंचलिक शब्दों का  प्रयोग उस पूरे परिवेश को सजीव बना देता है।

प्रत्यर्पण


दृश्य चस्पाँ होकर रह गया है।
वह एकाएक घर से भाग खड़ा हुआ था। लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ। एक-दो बिजली के खम्भे निकले और पीछे से दुधमुँहे बेटे की आवाज ने पीछा किया, ‘‘पापाऽ पापाऽ पापा....’’ उसके कदम और भी तेज हो गये। पर आवाज ने पीछा न छोड़ा तो धीमे पड़ गये। पलटकर पत्नी से सख्ती से बोला, जो बेटे को छाती पर धरे दौड़ी चली आ रही थी पीछे, ‘‘तुम लोग लौट जाओ, मैं लौटूँगा नहीं !’’
 
नुक्कड़ पर एक रिक्शा उत्तर की ओर भागता दिखा। एक सवार था उसमें। उसने जोर की आवाज दी, ‘‘रिक्शाऽऽऽऽ’’। वह उसी में लदकर भाग जाना चाहता था जल्दी से ताकि पत्नी पीछा न कर पाए ! पर रिक्शा नहीं रुका। नुक्कड़ पर अब तक पत्नी भी आ चुकी थी। उसने सोच लिया, एक यात्री वाला रिक्शा ही पकड़ूगा जिससे यह न चढ सके।....और वह रिक्शा भी आ गया। वह दक्षिण की ओर जाने वाला। वह लपकर उस पर  बैठ गया। चल पड़ा रिक्शा तो पत्नी पीछे दौड़ पड़ी। बेटा ‘पापा-पापा’ की रट लगाए था। कुछ दूर चलकर रिक्शा चालक ठहर गया। तो वे माँ-बेटा बिलकुल करीब आ गये ! वह जोर से बोला, ‘‘जाओऽ तुम लोग ! लौट जाओ ...’’

रिक्शा आगे बढ़ गया। पत्नी के आसूँ नहीं देखे, उसने मुँह फेर लिया। डर था, वह दूसरा रिक्शा पकड़कर पीछा करने लगेगी। एक दो खम्भे पार करके फिर पलटकर देखा उसने....अब वह ओझल हो गयी थी।
फिर हरेक मोड़ पर पीछे मु़ड़-मुड़कर देखा, भीड़ में कोई अपना नहीं था। बेटे का स्वर अब सिर्फ़ अतीत था। पत्नी का चेहरा जैसे-परछाईं। उसके दिल में सूल-सा उठने लगा।
रिक्शा स्टैण्ड पर आकर रुक गया, ‘‘कहाँ जाओगे सा’ब !’’
वह चुपचाप उतर पड़ा। उसका हाथ पैण्ट की जेब में गया, फिर रिक्शाचालक की हथेली पर। और फिर वह मायूस-सा पीछे हटकर खड़ा हो गया। आँखें उसी राह पर लगी थी दूर-दूर तक कोई छाया नहीं थी। न कोई पुकार।
‘यह तो होना ही था !’ उसने खुद को दिलासा दिया। वह पिछले एक-डेढ़ साल से भागने-भागने को है ! उसे एक अजीब-सी विरक्ति ने घेर लिया था। न अपने काम में मन लगता, पत्नी में रुचि पड़ती और न बच्चे के खेल सुहाते !

वह शुरू से ही था भी काफी आत्मकेन्द्रित। उसके न दोस्त थे, न महफिलें ! घर में भी माँ-बाप भाई-बहनों से दिन-दिन भर नहीं बोलता। कोई दस बार बुलाता तो बड़ी मुश्किल से एक बार हाँ-हूँ करता। सब जानते थे कि उसके तईं तो बोल भी मोल बिका करता है। सबने उसे चलती-फिरती मूर्ति की तरह ऐडजस्ट कर लिया था। वे सब ऐसे सम्बन्धी थे जिन पर उसकी चप्पी का कोई खास असर नहीं पड़ता था.... धीरे-धीरे वह घातक प्रकृति उसकी आदत बन गयी। ऐसी आदत कि जिसे अब कोई बदल नहीं सकता !...उसने फिर निगाह दौड़ायी-सड़क पर भीड़ थी और कोई नहीं था ! उसने एक निःश्वास छोड़ा सोचा, ‘उसे पछतावा है !’

 है तो ....पर यहाँ से निकलते ही दूर हो जाएगा। जगह छूटते ही उसका मोह भी मिट जाता है। वह प्रकृतिस्थ हुआ। एक बस आकर रुकी, सब के साथ वह भी चढ़ लिया सीट पर बैठकर गेट की ओर देखने लगा कि वे लोग आ तो नहीं रहे ! बस चल दी। तो उसने फिर एक गहरी साँस ली अब छोर छूट गया। वह आँखें मूँदकर बैठ गया। सोचा नहीं था कहाँ जाना है। भागना है, बस भागना रहना नहीं है। रहना नही है, क्योंकि डिस्टर्ब नहीं होना है।

 अपनी एकाग्रता बड़ी प्रिय है उसे ! उसके खयालों में खलल पड़ता है तो वह पगला जाता है। उसे जनम से ही लगता रहा कि वह एक ऐसी पतंग है जो हवा के जोर से उड़ तो यहाँ रही है, पर इसकी डोर कहीं और जुड़ी है। वह किसी विप्लव का शिकार होकर अपने मन की डोर से नहीं टूटना चाहता। डोर जो न जाने ब्रह्माण्ड के किस कोने से जुड़ी है।
बचपन में भी और फिर पढ़ाई के दिनों में भी उसकी एकाग्रता काबिले-तारीफ रही। जो न खेल के प्रति थी न किताबों के प्रति, बल्कि ध्यान के प्रति थी। वह खेल शुरू करते ही न जाने कहाँ खो जाता। और किताब लेकर बैठते ही समाधिस्थ हो जाता। छत पर घण्टों अकेले खड़ा रहता। पैरों में चींटियाँ भर उठतीं तो जागता। घरवाले उसके इलाज की सोचते। पर डाक्टर्स और अन्त में एक मनोचिकित्सक ने साफ-साफ समझा दिया कि उसका दिमाग एकदम दुरुस्त है। वह जीनियस है।.... कभी कुछ कर गुजरेगा। उसमें जबर्दस्त एकाग्रता है !

तब से उसे उसके हाल पर छोड़ दिया गया। बस हवा से बातें कर रही थी। वह खिड़की की जानिब बैठा है। बाहर आसमान और धरती एक-दूसरे पर न्यौछावर रहे हैं। यह करिश्मा वह बचपन से देखता आ रहा है। उसने किसी गीत में सुना था-स्त्री धरती है और पुरुष आसमान। आसमान झुकता जरूर दिखता है उतरता-सा नजर आता है धरती पर ! वह हकीकत नहीं है। आसमान धरती में बँधकर नहीं रह सकता। धरती पर उतर भी नहीं सकता। धरती को खुद ही उसके महाशून्य में भटकती फिर रही है। उसे फिर पत्नी का चेहरा दिख गया।....बात क्या हुई जो इस तरह चला आया। उसे कोई कारण नहीं सूझ रहा सारे घटना-प्रसंग में उसे उसका कोई दोष नहीं मिल रहा।

वह तो जब से मिली है, समर्पित है। चुपचाप सारे काम करती है, खामोश बैठी रहती है। बिलकुल डिस्टर्ब नहीं करती। उसकी हरेक इच्छा भाप कर पूरी करती है।.... और तो भी लगा कि दरअसल उसका होना और उसके बाद बेटे का हो जाना....उसे एक जाल सा खिंचता लग रहा था अपने ऊपर। उसकी आत्मा बन्धन में पड़ती जा रही थी। नौकरी के कारण भी वह बहुत बन्धन महसूस करता था। पहले तो एक चैलेंज मानकर नौकरी  के लिए बढ़ा था वह। लेकिन जब उपलब्ध हो गयी तो गले में फाँसी-सी पड़ गयी। उसे अपनी दिनचर्या बदलनी पड़ी। फालतू में ही व्यस्त हो गया वह। अकारण ! थोड़े-से धन की खातिर। धन जिससे कि जीवन चलता था। सुविधाएँ मिलती थीं। समाज में एक साख बनती थी ! और उसी की खातिर का सर्वश्रेष्ठ ईंट-पत्थर, लोहा-लंगड़-कबाड़ पर न्यौछावर हो जाता। उसके सारे टैलेण्ड में यहाँ आकर जंग लग जाता।

....और ऐसे ही दूसरा जाल भी खुद बुन लिया उसने ! उसे लगा-सबकी बीवियां होती हैं, कुछेक की प्रेमिकाएँ भी। तो शौक-शौक में उसने कोशिश कर डाली।.... परिवार पहले से ही आकर्षित था उसके प्रति। लड़की भी थी, या नहीं। वह नहीं जानता ! पर उसके साथ उसकी मुलाकातें बढ़ रही थीं। उम्र की ऐसी दहलीज पर थे वे दोनों जिसके उस पार मुक्ति और इस पार बन्धन था। शनैःशनै बन्धन की ओर खिंच रहे थे। यह खिंचाव वे महसूस तो कर रहे थे पर इससे कतराने के बजाए दिन-प्रतिदिन इसी ओर आते जा रहे थे !

वे छोटी-छोटी मुलाकातें-मन्दिर की रेस्तराँ की। पार्कों की, पार्टियों की, उन्हें गहरे तक जोड़ती गई। उसे लगने लगा कि जो रंग बाहर बिखरे थे और उसे न जाने कब से खींच रहे थे, वे भीतर सिमट आये हैं ! एक मीठी धुन से जो अब तक कहीं दूर बजती रही थी अब उससे मिलन होने पर जलतरंग-सी भीतर ही बज उठती है।.... तो जो-जो बाहर था और जिसके ख्याल में खोया रहता था, वह करीब है और प्राप्य है और भीतर आता जा रहा है ! खुद प्रयासरत हो गया।
अब अक्सर एकान्त में उसे लगता कि उसकी स्वच्छ हथेलियों में किसी कबूतर की तरह घोंसला बना ले और छुप जाए सदा-सर्वदा के लिए। या स्याह बालों में क्षितिज से लौटे थके-हारे की तरह सो जाए गहरी नींद। यही है दूसरा छोर, जिसके लिए भटकता था ! उसके पतंग की डोर इसी मासूम के हाथों में है। इसकी आँखों में वह सुरंग है जो इसके दिल तक उतर जाती है।.... और दिल में वह खजाना है, जिसे पाना है उसे। यहाँ तृप्ति है। आनन्द है। इस यात्रा का समापन बिन्दु है। अन्तिम सोपान।

किसी को कोई एतराज न था। न इधर, न उधर। लड़का हैण्डसम और स्मार्ट था-और नौकरीपेशा। पान-सिगरेट तक से दूर। लड़की ब्यूटीफुल थी। पढ़ी-लिखी सीधी-सादी। और किचेन में परफेक्ट ! उसकी आँखों में कशिश थी और आवाज में मिठास।....सो उसने बड़ी सहजता  से पा लिया उसे। बकायदा विवाह, संस्कार में बँधकर धर्मपत्नी बना लिया। अब सम्पूर्णतया उसकी मुट्ठी में आ गयी थी। उसके भीतर का जलतरंग निर्बाध बज उठा था।
‘‘अपने उदगार व्यक्त करो ....’’ उसने हौले से कहा।
 
लाज उसकी मुस्कुराट बनकर उभर आयी। बडी मुश्किल से पलकें उठीं। फिर काँपती-सी धीमी आवाज में एक द्विअर्थी गीत गाने लगी, ‘‘मैं तो कब से खड़ी इस पार कि अँखियाँ थक गयीं पन्थ निहार...’’
उसे लगा, यही है वह पुकार जो अरसे से आ रही है उस पार से ! उसके रोम खड़े हो गये। आगे की पंक्ति पर वह भाव-विहल होकर उसके आगोश में गिर पड़ा। जैसे आत्म-ग्लानि की चिर-प्रतीक्षित घड़ी आ खड़ी थी सन्निकट ! और फिर अगले बन्द पर तो उसका ध्यान ही नहीं गया। अब तो उसने तृषित चातक की तरह अपने होठ खोल दिये थे।...उस रुपहली वर्षा में प्राणों को बेधती साँसों की डोर में सराबोर वह बारिश की एक छोटी-सी बूँद बनकर जनम ले रहा था। दिन हवा होने लगे और रातें डूबने लगीं। जिन्दगी एक बहती नदी बन गयी जिसमें आसमान के दोनों छोर उतर आये। अब न कोई भटकन थी, न उतावली, न अतृप्ति। अब वह बात-बात में डिस्टर्व नहीं होता था। अब वह ज्यादा एकान्त नहीं तलाशता था। अब सबकुछ सामान्य-सा लगता था।...लेकिन भीतर-ही भीतर कोई फोड़ा पक रहा था। एक अजीब सा तनाव बना रहता। धुआँ, बारिश, तो कभी  अन्धकार ! रास्तों पर लोग परछाइयों-से भागते दिखते।

इस भेद को उनकी भार्या नहीं जानती थी। वह तो आम बीवियों की तरह उससे चीजों की, घूमने की और सोसाइटी मेनटेन करने की डिमाण्ड करती रहती। और उसे चिढ़ छूटती रहती, पर भीतर ही भीतर वह घुटता रहता।
फिर एक दिन हुआ कि लगा मंगेशकर को भरतरत्न का खिताब दे दिया गया। उस दिन टी.वी. पर अचानक उसने वही गीत फिर सुना-देखा...और धक् से रह गया। उसकी एक-एक पंक्ति उसके भीतर ऐसी उतरती चली गयी, जिसने आज तक निकलने का नाम नहीं लिया। और फिर एक पंक्ति ने तो उसके भीतर तूफान ही मचा दिया, ‘मैं नदिया, फिर भी मैं प्यासी !’

जैसे, अपनी प्यास को     और भीतर के तृप्ति-कुण्ड को खोज लिया था...और भारी हताश हुआ था कि वह कैसे दोहरे भ्रम का शिकार हो गया ! एक पार्थिव शरीर दूसरे पार्थिव शरीर की तृप्ति का साधन कैसे हो सकता है ? इस पार्थिव शरीर की तृप्ति भला कैसे सम्भव है ? वह दोहरे भ्रम का शिकार हो गया, इस बात का उसे भारी डिप्रेशन था। अब उसका जी उचट गया था। वह बीमार-सा दिखने लगा। वह बीमार-सा रहने लगा। उसकी बीवी बहुत परेशान थी। उसे उस पर दया आती। उसे उसकी नासमझी पर दया आती। फिर धीरे-धीरे यह दया भी आनी बन्द हो गयी। क्योंकि वह फिर से आत्मलीन हो उठा था। इसी दौरान बेटा भी हो गया, पर उसकी रुचि नहीं जागी। बाहर से लगता कि सबकुछ ठीक है, पर भीतर-ही-भीतर बहुत-कुछ खोखला हुआ जा रहा था।

अब दिन काटने को दौड़ते थे और रातें मारने को। उसकी विरक्ति से पत्नी टेंशन में थी। आँखें डबडबाई रहतीं। और पत्नी के इस मनहूस चेहरे से उसे चिढ़ छूटती थी। उसे दफ्तर भी बुरा लगता और घर-बार भी। एकान्त तलाश करता। कभी नदी किनारे कभी पर्वत के पीछे।...बीवी अपाहिज-सी पीछा करती चली आती तो वह और भी टुन्न हो जाता। इतना असम्पृक्त, इतना अजनबी कि उसकी रुलाई फूट पड़ती।

बहुत दिनों तक कोई रास्ता नहीं सूझा तो एक दिन वह उसके बूढ़े पिता के घर चली गयी और रोते-रोते सारा हाल कह सुनाया। वह बेटे की आदतों से परिचित था। फिर भी बहू की विपत्ति जानकर दुःख में डूब गया। वह एक प्रस्ताव लेकर आयी थी। उसने जोर देकर कहा, ‘‘बाबूजी आप चलिए !’’
पिता बोले, ‘‘बेटी, मैं आशक्त आदमी...अब उसे क्या राह पर लाऊँगा ! वह तो शुरू से बर्बाद था। मैं तो उसका ब्याह भी न करता। जानता था, किसी मासूम की हाय मुझी पर पड़ेगी।...लेकिन, होनी बड़ी प्रबल होती है। तुम लोगों ने खुद ही कदम बढ़ाकर मंशा प्रकट की तो...हम लोगों ने भी सोचा कि अब वह बदल रहा है ! उसकी दुनिया भी बस जाएगी....हर माँ-बाप यही चाहता है, लेकिन होनी !’’

पिता ने आँखें पोंछीं। उनका कण्ठ काँप रहा था।
उसने फिर जोर दिया, ‘‘लेकिन आप चलिए....मैं अकेली कब तक....’’ वह रोने लगी। और फिर दो-एक दिन बाद बूढ़ा पिता अपना थोड़ा-सा सामान लेकर उसके घर अड्डा जमाने आ गया।
उसकी त्यौरी चढ़ गयी। उसे बड़ा अनुख लगा। बेटे के होने को तो वह बर्दास्त कर गया था, लेकिन पिता का जीवन में पुनरागमन उसे खल गया। उसे लगा जैसे अब तो घिर गया पूरी तरह ! दो सीढ़ियों के बीच बनकर रह गया ! पिता तमाम ऊँच-नीच, भला-बुरा, जिम्मेदारी-संसार वगैरह समझाते रहे, जबकि वह सब-कुछ जानता था। पहले से ही जानता था।


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