आलोचना >> पृथ्वीराज रासो : भाषा और साहित्य पृथ्वीराज रासो : भाषा और साहित्यनामवर सिंह
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इस ग्रंथ में अपभ्रंशोत्तर पुरानी हिंदी के विविध भाषिक रूपों के प्रयोग प्राप्त होते हैं
पृथ्वीराज रासो को हिंदी का आदि महाकाव्य कहलाने का गौरव प्राप्त है। भाषा की दृष्टि से भी यह ग्रंथ अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथ में अपभ्रंशोत्तर पुरानी हिंदी के विविध भाषिक रूपों के प्रयोग प्राप्त होते हैं। पृथ्वीराज रासो : भाषा और साहित्य नामक शोधग्रंथ में इस काव्य ग्रंथ की भाषा का व्यवस्थित और सांगोपांग भाषा- वैज्ञानिक विश्लेषण करने का पहला प्रयास किया गया है। वर्तमान स्थिति में जबकि रासो के सुलभ संस्करण संतोषप्रद नहीं हैं और वैज्ञानिक संस्करण अभी भी होने को हैं, भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन के लिए सर्वोत्तम मार्ग यही है कि प्राचीनतम पांडुलिपियों में से किसी एक को आधार बना लिया जाए। प्रस्तुत ग्रंथ में धारणोज की लघुतम रूपांतर वाली प्रति को आधार माना गया है, क्योंकि एक तो इसका प्रतिलिपि-काल (सं. 1667 वि.) अब तक की प्राप्त प्रतियों में प्राचीनतम है और दूसरे, इसमें भाषा के रूप भी अपेक्षाकृत प्राचीनतर हैं। इसके साथ ही नागरी प्रचारिणी सभा में सुरक्षित बृहत् रूपांतर की उस प्रति से भी सहायता ली गई है जिसका प्रतिलिपि-काल सम्पादकों के अनुसार सं. 1640 या 42 इस ग्रंथ में भाषा-वैज्ञानिक विवेचन के साथ ही कनवज्ज समय ' का सम्पादित पाठ और उसके सम्पूर्ण शब्दों का संदर्भसहित कोश भी दिया गया है। इसके अतिरिक्त यथास्थान शब्द-रूपों की ऐतिहासिकता तथा प्रादेशिकता की ओर संकेत भी. किया गया है। विश्लेषण के क्रम में एक ओर डिंगल-पिंगल तत्त्व स्पष्ट होते गए हैं, तो दूसरी ओर हिंदी की उदयकालीन तथा अपभ्रंशोत्तर अवस्था की भाषा का स्वरूप भी उद्घाटित हुआ है। साथ ही तुलना के लिए तत्कालीन अन्य रचनाओं के भी समानांतर शब्द-रूप दिए गए हैं। नवीन परिवर्धित संस्करण का एक अतिरिक्त आकर्षण यह भी है कि इसमें परिशिष्ट-स्वरूप पृथ्वीराज रासो की संक्षिप्त साहित्यिक समालोचना भी जोड़ दी गई है। इस प्रकार यह प्रबंध शोधार्थी अध्येताओं के साथ ही हिंदी के प्रबुद्ध पाठकों के लिए भी एक आवश्यक संदर्भ-ग्रंथ है।
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