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नारी कामसूत्र

विनोद वर्मा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :343
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13567
आईएसबीएन :9788183615242

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काम को आत्मज्ञान की चरम सीमा तक ले जाना ही इस पुस्तक का ध्येय है


हिंदी संस्करण की भूमिका
यह कृति आज से छह वर्ष पूर्व संपूर्ण हुई थी और तब से इसका प्रकाशन जर्मन, इंगलिश, फ्रेंच तथा डच भाषाओं में हो चुका है। मेरे भरसक प्रयत्न के बाद, यह ग्रंथ हिंदी में प्रकाशित हो रहा है, यह मेरे लिए गर्व का विषय है। यह पुस्तक दस वर्षों के कठिन परिश्रम तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शोध का परिणाम है। यह नए युग का ज्ञान भारत के नर-नारियों तक पहुँचे, इससे मुझे संतोष तथा प्रसन्नता मिलेगी।
हमारा देश पिछले एक दशक से बहुत बदल गया है। आधुनिक तकनीक आ जाने से नारी का परंपरागत काम सुविधाजनक हो गया है। अब समय आ गया है कि नर नारी को सहधर्मिणी और सहयोगिनी मानने के साथ-साथ उसके शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक पहलुओं को भी समझे। यथार्थतः यह पुस्तक जिसका नाम 'नारी कामसूत्र' है, नरों के लिए इस बदलते युग में बहुत महत्त्वपूर्ण है। मेरा अपने देश के नरों से निवेदन है कि अपनी सहधर्मिणियों और संगिनियों के आदर, सत्कार और प्यार के लिए इस पुस्तक का अवश्य अध्ययन करें। यह पुस्तक मैंने आप नरों को ही समर्पित की है।
मेरे अंतर्राष्ट्रीय अनुभव के अनुसार भारतीय नारी अबला नहीं है। वह शक्ति-स्वरूपिणी है। किंतु हमारी अधिकतर नारियाँ अपनी शक्ति को दबाकर रखती हैं। वह अपनी इच्छाओं तथा भावनाओं की आहुति दे देती हैं। वह इसी में अपनी महानता समझती हैं। प्रभु कृपा से हमारी सारी नारियाँ ऐसी नहीं हैं। द्रौपदी, रजिया सुलताना, झाँसी की रानी तथा इंदिरा गाँधी जैसी नारियाँ भी इसी देश की सुपुत्रियाँ हैं। मेरे विचार में भारत की नारी दो प्रकार की होती है-या गाय जैसी झुककर रहने वाली, कष्ट सहने वाली, अपना सर्वस्व देने वाली और दूसरी ओर इससे ठीक विपरीत काली, चंडी आदि का रूप। मेरा इस पुस्तक में नारियों को तथा समाज को यह प्रेरणा देने का ध्येय है कि वे अपने गुणों में रजस, सत्व और तमस का संतुलन लाने का प्रयत्न करें। अधिकतर हिंदी सिनेमा में, सिंदूर से भरी हुई, दूसरों पर निर्भर नारी में अपना रूप देखना छोड़ दें।
भारतीय नारी को अपने कल्याण के लिए तथा देश और समाज की भलाई के लिए आत्मनिर्भरता के साथ-साथ अपना पुत्र-प्राप्ति का लगाव भी छोड़ना होगा। जब तक इस देश की महिलाएँ अपनी कन्याओं के आगमन का स्वागत स्नेह और प्रसन्नता से करना नहीं सीखेंगी, तब तक नारी की मूल स्वतंत्रता तथा उद्धार संभव नहीं। इससे मेरा अर्थ केवल कन्या की जननी से नहीं, उसकी दादी, नानी तथा परिवार की अन्य महिलाओं से भी है। क्यों हमारे देश में नारी स्वयं ही नारीत्व की शत्रु है तथा पुत्र प्राप्ति ही अपना लक्ष्य समझती है ?
मेरा इस पुस्तक के माध्यम से भारत की नारियों से निवेदन है कि वे अपनी शक्ति को समझने का प्रयत्न करें, अपने सत्व को उजागर करें, अपने तमस को कम करें तथा अपनी असीमित शक्ति से परिवार और समाज का कल्याण करें। अपने पर किसी भी प्रकार का अत्याचार न होने दें चाहे वह नरों द्वारा हो या दूसरी नारियों द्वारा। प्रत्येक नारी का यह कर्तव्य है और धर्म भी कि वह नारी के प्रति द्वेष या अत्याचार को कम करने में रुचि ले और उन्हें रोके। हमारे देश को भविष्य में बहुएँ जलाए जाने का अपमान और शर्म न झेलने पड़ें।
यह सब तभी संभव हो सकेगा जब प्रत्येक नारी स्वस्थ, प्रसन्नचित्त तथा शक्ति-संपन्न होगी। यही मेरी पुस्तक का ध्येय है।
19 जुलाई 1999
-विनोद वर्मा

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