जीवनी/आत्मकथा >> नेपथ्य नायकः लक्ष्मी चन्द्र जैन नेपथ्य नायकः लक्ष्मी चन्द्र जैनमोहनकिशोर दीवान
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प्रस्तुत है नेपथ्य नायक लक्ष्मीचन्द्र जैन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इसमें लक्ष्मीचन्द्र जी के सुदीर्घ जीवन के विविध पक्षों को उजागर करते
ह्रदयग्राही संस्मरण उनकी जीवनी,परिवेश एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि उनके
जीवन के केन्द्र बिन्दु साहित्य संस्कृति कला तथा जैन साहित्य एवं
पुरातत्व के क्षेत्र में उनके योगदान को रेखांकित करने का प्रयास किया गया
है।
नेपथ्य नायक
मैं एक वयोवृद्ध समुद्र से मिला जो अविराम बहे जा रहा था अपने
ही क्षेत्रफल में बिना अपनी उम्र के लिहाज़ किये। मैंने देखा उसने सदा ही
अपना मन्थन किया और आवारा बादलों को बिना कुछ लिये, सदा कुछ दिया। मुझे
लगा कि वह अपनी अथाह शक्ति से जैसे परिचित न था लोगों ने लगातार उसके
किनारे काटे उसकी छाती रौंदी पर उसने फिर भी कभी उनसे गिला न किया दिया और
सदा जी भर के दिया एक जैन मुनि की तरह।
साहित्य के भृगुमुनि मोहनकिशोर दीवान
कुछ लोग अपनी उपस्थिति से जितनी जगह घेरते हैं, उनकी उपस्थिति में उनकी
यादें उससे कहीं ज़्यादा जगह घेरती हैं। आपकी यादों में ऐसे लोग, लगता है
जैसे यहीं कहीं आस-पास हों और अचानक सामने खड़े हो जाने वाले हों। वे अपनी
उम्र से कहीं अधिक लम्बी उम्र दूसरों के ज़हन में जीते हैं, एक अमिट छाप
छोड़कर। लक्ष्मीचन्द्र जी एक ऐसे ही व्यक्ति हैं।
उन-जैसे व्यक्तियों के बारे में सोचते हुए ज़हन में एक संगमरमरी महल जैसे उभरता हैः साफ़-सुथरा, ख़ूबसूरत; जिन पर अनगिनत आँधियों, तूफ़ानों, बारिशों या लगातार पड़ती धूप का कोई असर नहीं हो। एक पत्थर को छू देने भर से उसमें से किसी पुरानी घटना का स्पन्दन जाग उठेगा। या जिसकी दीवारें प्रतीक्षा करती-सी लगें कि कोई आकर उन पर टिककर सहारा ले और अपने दुःख दर्द की दास्तान सुनाकर अपना जी हल्का कर सके। या फिर उसके किसी भी कक्ष में ध्वनि मात्र करने से एक मोहिनी गूँज उठेगी और आपको उसकी नहीं अपनी ही आवाज़ सुनाई पड़ेगी।
क्योंकि लक्ष्मीचन्द्र जैन मात्र एक व्यक्ति नहीं हैं-वे अपने भीतर परम्परागत चली आ रही भद्रता, सैद्धान्तिक निष्ठा आदि गुण समेटे पूरी भारतीयता हैं। जब एक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को विस्तार देता हुआ एक ‘समूह वाचक संज्ञा’ बन जाता है तब उसका व्यक्तित्व उस वट वृक्ष-जैसा हो जाता है जो पृथ्वी पर अपनी शाखाओं से फूटी जटाओं को रोपित करता चलता है। प्रत्येक जटा ज़मीन में जड़ पकड़ लेती है। उस पर फिर से शाखाएँ प्रस्फुटित होती हैं। उनसे बरोह निकलते हैं जो फिर जमीन में जड़ फैलाते हैं। वट वृक्ष फलता-फूलता है और कालान्तर में वह मूल वृक्ष-स्तम्भ ख़त्म हो जाने पर भी अपने सामूहिक व्यक्तित्व को बनाये रखता है।
मैं जब पहली बार उनसे 1960 में टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के दरियागंज, दिल्ली वाले कार्यालय में मिला था तो ऐसा लगा कि उनका व्यक्तित्व चमक दिखा कर गुम हो जाने वाले उस सितारे जैसा है जिससे कुछ भी माँग लो तो पूरा हो जाए...अन्तरंगता के चन्द लमहों का दुशाला ओढ़े जब मैं उनके कार्यालय से निकला तो अन्दर तक भरा हुआ था। तनाव मुक्त और आह्लादित।
आज जब अधिकतर लोग मुखौटों पर मुखौटे ओढ़े जा रहे हैं; और उनसे संवाद वार्तालाप न रहकर आत्मप्रलाप बन चुका है जिसे सुनकर आप रीत जाते हैं। किन्तु जहाँ भर जाने का अहसास हो, वहीं लगता है कि आपका वास्तविक संवाद हुआ है। ऐसे अवसर विरले ही होते हैं। टाइम्स समूह के मालिक साहू अशोक कुमार जैन, अनेक वर्ष पहले अपने बँगले ‘साहू जैन निलय’ को छोड़कर, सपरिवार कलकत्ता से दिल्ली चले गये थे। मेरे विचार में कलकत्ता के भव्य बँगलों में उनके बँगले का स्थान सर्वेपरि है। उसके दो प्रमुख आकर्षण रहे हैं, उनका पुस्तकालय एवं जैन मन्दिर जो निजी होते हुए भी एक तरह से सार्वजनिक हैं। क्योंकि उसमें उनसे परिचित दक्षिण कलकत्ता के अधिकतर साहित्यकार एवं जैन लोग विभिन्न अवसरों पर जाने में नहीं हिचकिचाते। इसके अतिरिक्त एक लम्बे अरसे तक ज्ञानपीठ का कार्यालय भी इसी के अहाते में था। जब भी अशोक जैन कलकत्ता आते तो उनसे मिलने वालों का ताँता ‘साहू जैन निलय’ के आकर्षण के कारण भी लगता। जो भी हो, अशोक बाबू कलकत्ता आये हुए थे। और सौभाग्यवश मेरी बिटिया की एक जैन मारवाड़ी परिवार में शादी निश्चित हुई थी। उन्हें इस अवसर पर आमन्त्रित करने मैं उनके पास गया। उन्होंने मुझे नास्ते पर बुलाया था और उस दौरान मेरे कार्यकलाप की पूरी जाँच-पड़ताल की।
‘सुना है आज-कल कविताएँ लिखी जा रही हैं। बिटिया के विवाह का निमन्त्रण-पत्र तो बहुत नये प्रकार का है। इसमें भी आपने कविताओं को नहीं छोड़ा। गद्य क्या लिख रहे है ? हिन्दी में अच्छे स्तर की जीवनियाँ बहुत कम लिखी गयी हैं। आप जीवनी क्यों नहीं लिखते ?’
‘हरेक की जीवनी तो नहीं लिखी जा सकती !’ इस पर वे बोले। ‘लक्ष्मीचन्द्र जी एक साहित्य सेवी होने के कारण, किसी लेखक के लिए जीवनी लिखने का एक अच्छा पात्र हो सकते हैं।’ उनकी बात मुझे बहुत पसन्द आयी और मैंने मन ही मन निश्चय किया कि यह कार्य करना है। जीवन की अन्य व्स्तताओं में यह विचार दब के रह गया। पिछले वर्ष ललित कला अकादमी में अपनी ‘पोएटिंग्स’ की प्रदर्शनी अपने काव्य-संग्रह ‘छोटी-छोटी’ सच्चाइयाँ’ के लोकार्पण के अवसर पर भाई वेद प्रताप वैदिक एवं डॉ. कर्णसिंह से कलाओं के अन्तस्सम्बन्धों पर इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर में संयोजित विचार गोष्ठी की अध्यक्षता के सम्बन्ध में बाचचीत हुई तो लक्ष्मीचन्द्र जैन से अधिक उपयुक्त कोई नाम उन्हें भी नहीं सूझा। इस विचार गोष्ठी में सभी का सुझाव था। कि लक्ष्मीचन्द्र जी की जीवनी पर कार्य होना चाहिए। तदुपरान्त इसके लिए एक समिति का गठन डॉ. धर्मवीर भारती की अध्यक्षता में किया गया जिसमें उनके गणमान्य साहित्यकारों को सम्मलित किया गया। जिसमें मुख्य थे डॉ. नगेन्द्र, विजयेन्द्र स्नातक, डॉ. नामवार सिंह, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. निर्मला जैन, डॉ. गोपीचन्द नारंग, डॉ. वेद प्रताप वैदिक, सर्वश्री कल्याणमल लोढ़ा, वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, सीताकान्त महापात्र, अशोक बाजपेयी, नरेश मेहता, विष्णु प्रभाकर, नेमिचन्द्र जैन, कुँवर नारायण, अजीत कुमार, एवं श्रीमती कमला दास। इसके कार्यकारी सम्पादक का भार मुझे सौंपा गया। इन सभी विद्वज्जनों के परामर्श एवं मार्गदर्शन के बगैर यह कार्य सम्पन्न होना सम्भव भी नहीं था।
इस घटना के सम्बन्ध में जब मैंने साहू रमेश चन्द्र जैन को बताया तो इन्होंने और भी आगे बढ़ाना चाहा। उसके परामर्शानुसार एक अभिनन्दन समिति का भी डॉ. कर्णसिंह की अध्यक्षता में गठन किया गया जिसके अध्यक्ष थे। डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी एवं सदस्य बनाए गये साहू अशोक कुमार जैन, डॉ. कपिला वात्स्यायन, साहू रमेश चन्द्र जैन, श्री ओम प्रकाश जैन (संस्कृति) एवं डॉ. वेद प्रताप वैदिक। इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए एक फाउण्डेशन के चेरिटेबल ट्रस्ट के रूप में गठन किया गया जिसका नामकरण हुआ लीला भूमि फाउण्डेशन। इस बीच आदरणीय भाई डॉ. धर्मवीर भारतीय के आकस्मिक एवं असमय निधन के कारण, यह कार्य कुछ समय तक स्थगित रहा। कुछ समय पहले मानवीय सदस्यों ने इस शुभ कार्य को इस वर्ष के पहले पखवाड़े में करना सुनिश्चित किया। अब यह निश्चित हुआ कि इस कार्य के साथ पूरा न्याय करने के लिए मुझे कुछ दिनों तक लक्ष्मीचन्द्र जी के साथ उनके सरिता विहार स्थित निवास स्थान पर रहना चाहिए और उनसे एक लम्बी बातचीत में उनके जीवन की गिरहें खोल उनकी कहानी उन्हीं की ज़ुबानी सुननी चाहिए।
इस दौरान उनके परिवार के सभी सदस्यों से एक लम्बी बातचीत हुई और अनके दिलचस्प घटनाओं का एक भण्डार इकट्ठा हो गया। अब तो स्थिति ऐसी है कि क्या भूलूँ क्या याद करूँ ! एक से बढ़कर एक विभूतियाँ हैं। दो लड़कों और तीन लड़कियों के परिवार में सभी एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर प्रतिभाशाली हैं।
बड़ी बेटी इन्दु जैन एक लोकप्रिय विख्यात कवयित्री हैं। बड़े बेटे डॉ. रवीन्द्र जैन एक लब्धप्रतिष्ठ समाजशास्त्री हैं। उनकी पत्नी शोभिता इन्दिरा गाँधी ओपन यूनिवर्सिटी में समाज शास्त्र विभाग की डायरेक्टर हैं। दूसरे बेटे डॉ. अशोक जैन साइण्टिस्ट एमेरेट्स हैं और अन्तराष्ट्रीय साइंस डेवलपमेण्ट के विशेषज्ञ हैं एवं उनकी पत्नी सुषमा जैन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के जापानी भाषा विभाग की अध्यक्ष हैं। तीसरी बेटी चम्पक ओडिसी, भरतनाट्यम् उदयशंकर शैलियों के नृत्य में दक्ष हैं, और ‘कम्पॅरिटिव लिटरेचर’ में एम. ए. हैं। सबसे छोटी बेटी शीना जामिया मिल्लिया में समाजशास्त्र पढ़ाती हैं और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पी. एच. डी. कर रही हैं।
उनके परिवार के अन्य सभी सदस्य भी अपने-अपने क्षेत्रों में दिग्गज हैं। और उन पर एक पूरी पुस्तक ही लिखी जा सकती है। उनका भरा-पूरा परिवार है और उस परिवार के सौ से भी अधिक सदस्य हैं जो पूरे विश्व में फैले हुए हैं। उनके विश्वव्यापी परिवार में जैन के अतिरिक्त हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सदस्य भी हैं जो बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान एवं केरल के निवासी भी हैं। यहाँ तक कि उनमें कुछ अमेरिकन एवं चीनी भी हैं।
पिछले वर्ष 28 सितम्बर को लक्ष्मीचन्द्र जी ने अपने जीवन के नव दशाब्द पूरे कर लिये हैं। इस अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों एवं कुछ मित्रों ने मिलकर एक अभूतपूर्व आयोजन किया, जिसमें अन्य कार्यक्रमों के साथ लगभग पैंसठ वर्ष पहले लिखी उनकी प्रेम कविताओं पर आधारित नृत्य-नाट्य प्रस्तुत किया गया। परिवार के अधिकतर सदस्यों ने उसमें भाग लिया। लक्ष्मीचन्द्र जी एवं कुन्था जी ने भी उस आयोजन में नृत्य किया। इस अवसर पर पूरे देश से ही नहीं विदेश से भी उनके परिवार के सभी सदस्य विशेष रूप से एक-एक कार्यक्रम तैयार करके पहुँचे। अविस्मरणीय चहल-पहल रही।
इस परिवार के अधिकांश सदस्यों को देखकर लगा कि लक्ष्मीचन्द्र जी ने अपने विचारों, आदर्शों एवं अवधारणाओं से उन्हें सींचा है। उनके निजी व्यक्तित्व की बुनावट की रंग-बिरंगी विविधता के ताने-बाने की हर स्तर पर मौजूदगी परिवार के अन्य सदस्यों के व्यक्तित्व में साफ़ दिखाई पड़ती है।
प्रतिभा कैसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी यात्रा करती है, इसका एक नमूना मुझे तब मिला जब लक्ष्मीचन्द्र जी अपनी नातिन की बेटी को, अपने अन्य चौथी पीढ़ी के बच्चों के साथ लेकर बैठे थे और उन्हें पुराने से पुराने किस्से सुना रहे थे। वह किसी सन्दर्भ में बच्चों को आज के जीवन की त्रासदियों का ज़िक्र करते हुए बता रहे थे। कि एक लम्बे अरसे से महानगरों की बहुमंज़िली इमारतों में रहते-रहते, गाँव का खुलापन, लोग मानो भूल गये हैं। इस पर उनकी एक पोती बोलीः
‘लेकिन बड़े दादा, हमें तो आपके व्यक्तित्व की इमारत में ही कई मंज़िलें दिखाई देती हैं। फिर भी आप तो बाहें फैलाये आकाश जितने खुले-खुले हैं और धूप की तरह हम पर छाये रहते हैं।’ लगता है लक्ष्मीचन्द्र जी ने कविता को घुट्टी में घोल के अपने बच्चों को पिलाया है कि वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। मेरे आग्रह पर उनकी बड़ी बेटी इन्दु जैन ने ‘पिता के नाम’ निम्न कविता लिखी हैः
उन-जैसे व्यक्तियों के बारे में सोचते हुए ज़हन में एक संगमरमरी महल जैसे उभरता हैः साफ़-सुथरा, ख़ूबसूरत; जिन पर अनगिनत आँधियों, तूफ़ानों, बारिशों या लगातार पड़ती धूप का कोई असर नहीं हो। एक पत्थर को छू देने भर से उसमें से किसी पुरानी घटना का स्पन्दन जाग उठेगा। या जिसकी दीवारें प्रतीक्षा करती-सी लगें कि कोई आकर उन पर टिककर सहारा ले और अपने दुःख दर्द की दास्तान सुनाकर अपना जी हल्का कर सके। या फिर उसके किसी भी कक्ष में ध्वनि मात्र करने से एक मोहिनी गूँज उठेगी और आपको उसकी नहीं अपनी ही आवाज़ सुनाई पड़ेगी।
क्योंकि लक्ष्मीचन्द्र जैन मात्र एक व्यक्ति नहीं हैं-वे अपने भीतर परम्परागत चली आ रही भद्रता, सैद्धान्तिक निष्ठा आदि गुण समेटे पूरी भारतीयता हैं। जब एक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को विस्तार देता हुआ एक ‘समूह वाचक संज्ञा’ बन जाता है तब उसका व्यक्तित्व उस वट वृक्ष-जैसा हो जाता है जो पृथ्वी पर अपनी शाखाओं से फूटी जटाओं को रोपित करता चलता है। प्रत्येक जटा ज़मीन में जड़ पकड़ लेती है। उस पर फिर से शाखाएँ प्रस्फुटित होती हैं। उनसे बरोह निकलते हैं जो फिर जमीन में जड़ फैलाते हैं। वट वृक्ष फलता-फूलता है और कालान्तर में वह मूल वृक्ष-स्तम्भ ख़त्म हो जाने पर भी अपने सामूहिक व्यक्तित्व को बनाये रखता है।
मैं जब पहली बार उनसे 1960 में टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के दरियागंज, दिल्ली वाले कार्यालय में मिला था तो ऐसा लगा कि उनका व्यक्तित्व चमक दिखा कर गुम हो जाने वाले उस सितारे जैसा है जिससे कुछ भी माँग लो तो पूरा हो जाए...अन्तरंगता के चन्द लमहों का दुशाला ओढ़े जब मैं उनके कार्यालय से निकला तो अन्दर तक भरा हुआ था। तनाव मुक्त और आह्लादित।
आज जब अधिकतर लोग मुखौटों पर मुखौटे ओढ़े जा रहे हैं; और उनसे संवाद वार्तालाप न रहकर आत्मप्रलाप बन चुका है जिसे सुनकर आप रीत जाते हैं। किन्तु जहाँ भर जाने का अहसास हो, वहीं लगता है कि आपका वास्तविक संवाद हुआ है। ऐसे अवसर विरले ही होते हैं। टाइम्स समूह के मालिक साहू अशोक कुमार जैन, अनेक वर्ष पहले अपने बँगले ‘साहू जैन निलय’ को छोड़कर, सपरिवार कलकत्ता से दिल्ली चले गये थे। मेरे विचार में कलकत्ता के भव्य बँगलों में उनके बँगले का स्थान सर्वेपरि है। उसके दो प्रमुख आकर्षण रहे हैं, उनका पुस्तकालय एवं जैन मन्दिर जो निजी होते हुए भी एक तरह से सार्वजनिक हैं। क्योंकि उसमें उनसे परिचित दक्षिण कलकत्ता के अधिकतर साहित्यकार एवं जैन लोग विभिन्न अवसरों पर जाने में नहीं हिचकिचाते। इसके अतिरिक्त एक लम्बे अरसे तक ज्ञानपीठ का कार्यालय भी इसी के अहाते में था। जब भी अशोक जैन कलकत्ता आते तो उनसे मिलने वालों का ताँता ‘साहू जैन निलय’ के आकर्षण के कारण भी लगता। जो भी हो, अशोक बाबू कलकत्ता आये हुए थे। और सौभाग्यवश मेरी बिटिया की एक जैन मारवाड़ी परिवार में शादी निश्चित हुई थी। उन्हें इस अवसर पर आमन्त्रित करने मैं उनके पास गया। उन्होंने मुझे नास्ते पर बुलाया था और उस दौरान मेरे कार्यकलाप की पूरी जाँच-पड़ताल की।
‘सुना है आज-कल कविताएँ लिखी जा रही हैं। बिटिया के विवाह का निमन्त्रण-पत्र तो बहुत नये प्रकार का है। इसमें भी आपने कविताओं को नहीं छोड़ा। गद्य क्या लिख रहे है ? हिन्दी में अच्छे स्तर की जीवनियाँ बहुत कम लिखी गयी हैं। आप जीवनी क्यों नहीं लिखते ?’
‘हरेक की जीवनी तो नहीं लिखी जा सकती !’ इस पर वे बोले। ‘लक्ष्मीचन्द्र जी एक साहित्य सेवी होने के कारण, किसी लेखक के लिए जीवनी लिखने का एक अच्छा पात्र हो सकते हैं।’ उनकी बात मुझे बहुत पसन्द आयी और मैंने मन ही मन निश्चय किया कि यह कार्य करना है। जीवन की अन्य व्स्तताओं में यह विचार दब के रह गया। पिछले वर्ष ललित कला अकादमी में अपनी ‘पोएटिंग्स’ की प्रदर्शनी अपने काव्य-संग्रह ‘छोटी-छोटी’ सच्चाइयाँ’ के लोकार्पण के अवसर पर भाई वेद प्रताप वैदिक एवं डॉ. कर्णसिंह से कलाओं के अन्तस्सम्बन्धों पर इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर में संयोजित विचार गोष्ठी की अध्यक्षता के सम्बन्ध में बाचचीत हुई तो लक्ष्मीचन्द्र जैन से अधिक उपयुक्त कोई नाम उन्हें भी नहीं सूझा। इस विचार गोष्ठी में सभी का सुझाव था। कि लक्ष्मीचन्द्र जी की जीवनी पर कार्य होना चाहिए। तदुपरान्त इसके लिए एक समिति का गठन डॉ. धर्मवीर भारती की अध्यक्षता में किया गया जिसमें उनके गणमान्य साहित्यकारों को सम्मलित किया गया। जिसमें मुख्य थे डॉ. नगेन्द्र, विजयेन्द्र स्नातक, डॉ. नामवार सिंह, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. निर्मला जैन, डॉ. गोपीचन्द नारंग, डॉ. वेद प्रताप वैदिक, सर्वश्री कल्याणमल लोढ़ा, वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, सीताकान्त महापात्र, अशोक बाजपेयी, नरेश मेहता, विष्णु प्रभाकर, नेमिचन्द्र जैन, कुँवर नारायण, अजीत कुमार, एवं श्रीमती कमला दास। इसके कार्यकारी सम्पादक का भार मुझे सौंपा गया। इन सभी विद्वज्जनों के परामर्श एवं मार्गदर्शन के बगैर यह कार्य सम्पन्न होना सम्भव भी नहीं था।
इस घटना के सम्बन्ध में जब मैंने साहू रमेश चन्द्र जैन को बताया तो इन्होंने और भी आगे बढ़ाना चाहा। उसके परामर्शानुसार एक अभिनन्दन समिति का भी डॉ. कर्णसिंह की अध्यक्षता में गठन किया गया जिसके अध्यक्ष थे। डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी एवं सदस्य बनाए गये साहू अशोक कुमार जैन, डॉ. कपिला वात्स्यायन, साहू रमेश चन्द्र जैन, श्री ओम प्रकाश जैन (संस्कृति) एवं डॉ. वेद प्रताप वैदिक। इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए एक फाउण्डेशन के चेरिटेबल ट्रस्ट के रूप में गठन किया गया जिसका नामकरण हुआ लीला भूमि फाउण्डेशन। इस बीच आदरणीय भाई डॉ. धर्मवीर भारतीय के आकस्मिक एवं असमय निधन के कारण, यह कार्य कुछ समय तक स्थगित रहा। कुछ समय पहले मानवीय सदस्यों ने इस शुभ कार्य को इस वर्ष के पहले पखवाड़े में करना सुनिश्चित किया। अब यह निश्चित हुआ कि इस कार्य के साथ पूरा न्याय करने के लिए मुझे कुछ दिनों तक लक्ष्मीचन्द्र जी के साथ उनके सरिता विहार स्थित निवास स्थान पर रहना चाहिए और उनसे एक लम्बी बातचीत में उनके जीवन की गिरहें खोल उनकी कहानी उन्हीं की ज़ुबानी सुननी चाहिए।
इस दौरान उनके परिवार के सभी सदस्यों से एक लम्बी बातचीत हुई और अनके दिलचस्प घटनाओं का एक भण्डार इकट्ठा हो गया। अब तो स्थिति ऐसी है कि क्या भूलूँ क्या याद करूँ ! एक से बढ़कर एक विभूतियाँ हैं। दो लड़कों और तीन लड़कियों के परिवार में सभी एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर प्रतिभाशाली हैं।
बड़ी बेटी इन्दु जैन एक लोकप्रिय विख्यात कवयित्री हैं। बड़े बेटे डॉ. रवीन्द्र जैन एक लब्धप्रतिष्ठ समाजशास्त्री हैं। उनकी पत्नी शोभिता इन्दिरा गाँधी ओपन यूनिवर्सिटी में समाज शास्त्र विभाग की डायरेक्टर हैं। दूसरे बेटे डॉ. अशोक जैन साइण्टिस्ट एमेरेट्स हैं और अन्तराष्ट्रीय साइंस डेवलपमेण्ट के विशेषज्ञ हैं एवं उनकी पत्नी सुषमा जैन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के जापानी भाषा विभाग की अध्यक्ष हैं। तीसरी बेटी चम्पक ओडिसी, भरतनाट्यम् उदयशंकर शैलियों के नृत्य में दक्ष हैं, और ‘कम्पॅरिटिव लिटरेचर’ में एम. ए. हैं। सबसे छोटी बेटी शीना जामिया मिल्लिया में समाजशास्त्र पढ़ाती हैं और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पी. एच. डी. कर रही हैं।
उनके परिवार के अन्य सभी सदस्य भी अपने-अपने क्षेत्रों में दिग्गज हैं। और उन पर एक पूरी पुस्तक ही लिखी जा सकती है। उनका भरा-पूरा परिवार है और उस परिवार के सौ से भी अधिक सदस्य हैं जो पूरे विश्व में फैले हुए हैं। उनके विश्वव्यापी परिवार में जैन के अतिरिक्त हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सदस्य भी हैं जो बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान एवं केरल के निवासी भी हैं। यहाँ तक कि उनमें कुछ अमेरिकन एवं चीनी भी हैं।
पिछले वर्ष 28 सितम्बर को लक्ष्मीचन्द्र जी ने अपने जीवन के नव दशाब्द पूरे कर लिये हैं। इस अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों एवं कुछ मित्रों ने मिलकर एक अभूतपूर्व आयोजन किया, जिसमें अन्य कार्यक्रमों के साथ लगभग पैंसठ वर्ष पहले लिखी उनकी प्रेम कविताओं पर आधारित नृत्य-नाट्य प्रस्तुत किया गया। परिवार के अधिकतर सदस्यों ने उसमें भाग लिया। लक्ष्मीचन्द्र जी एवं कुन्था जी ने भी उस आयोजन में नृत्य किया। इस अवसर पर पूरे देश से ही नहीं विदेश से भी उनके परिवार के सभी सदस्य विशेष रूप से एक-एक कार्यक्रम तैयार करके पहुँचे। अविस्मरणीय चहल-पहल रही।
इस परिवार के अधिकांश सदस्यों को देखकर लगा कि लक्ष्मीचन्द्र जी ने अपने विचारों, आदर्शों एवं अवधारणाओं से उन्हें सींचा है। उनके निजी व्यक्तित्व की बुनावट की रंग-बिरंगी विविधता के ताने-बाने की हर स्तर पर मौजूदगी परिवार के अन्य सदस्यों के व्यक्तित्व में साफ़ दिखाई पड़ती है।
प्रतिभा कैसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी यात्रा करती है, इसका एक नमूना मुझे तब मिला जब लक्ष्मीचन्द्र जी अपनी नातिन की बेटी को, अपने अन्य चौथी पीढ़ी के बच्चों के साथ लेकर बैठे थे और उन्हें पुराने से पुराने किस्से सुना रहे थे। वह किसी सन्दर्भ में बच्चों को आज के जीवन की त्रासदियों का ज़िक्र करते हुए बता रहे थे। कि एक लम्बे अरसे से महानगरों की बहुमंज़िली इमारतों में रहते-रहते, गाँव का खुलापन, लोग मानो भूल गये हैं। इस पर उनकी एक पोती बोलीः
‘लेकिन बड़े दादा, हमें तो आपके व्यक्तित्व की इमारत में ही कई मंज़िलें दिखाई देती हैं। फिर भी आप तो बाहें फैलाये आकाश जितने खुले-खुले हैं और धूप की तरह हम पर छाये रहते हैं।’ लगता है लक्ष्मीचन्द्र जी ने कविता को घुट्टी में घोल के अपने बच्चों को पिलाया है कि वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। मेरे आग्रह पर उनकी बड़ी बेटी इन्दु जैन ने ‘पिता के नाम’ निम्न कविता लिखी हैः
‘देखा है वो सौम्य पर्वत/झरनों से स्निग्ध
नदियों से धुला/संजीवनी से दिपदिपाता
सहज प्यार का कोमल पुंजीभूत
सघन वृक्षों का ऊर्ध्वगामी प्रसार/समाधिस्त ऊर्जा का प्रभाष
तलहटी में जिसके/पाँच घरों का गाँव
-एक मेरा है/उन्हीं में आँगन धूप भरा-
उदार पर्वत की छाया में निर्भीक/रसा पगा काम में लगा
अन्न उसी का वरदान है/ मन का सरमाया उसी की देन
आँधियों में झुक खड़ा होना सिखाता/गोद में झुलाता
उँगली पकड़ चोटियाँ चढ़ाता/देखा है ऐसा है चुप कल्पगिरि
जिसकी छाती का ज्वालामुखी/ अमृत का सोता है
जिसके अन्दर का गायक कवि
पत्थर-पत्थर में बीज बोता है
निर्लिप्त है जो भीगी आँखों/ अकेला खड़ा है/देखा है वो पर्वत।’
नदियों से धुला/संजीवनी से दिपदिपाता
सहज प्यार का कोमल पुंजीभूत
सघन वृक्षों का ऊर्ध्वगामी प्रसार/समाधिस्त ऊर्जा का प्रभाष
तलहटी में जिसके/पाँच घरों का गाँव
-एक मेरा है/उन्हीं में आँगन धूप भरा-
उदार पर्वत की छाया में निर्भीक/रसा पगा काम में लगा
अन्न उसी का वरदान है/ मन का सरमाया उसी की देन
आँधियों में झुक खड़ा होना सिखाता/गोद में झुलाता
उँगली पकड़ चोटियाँ चढ़ाता/देखा है ऐसा है चुप कल्पगिरि
जिसकी छाती का ज्वालामुखी/ अमृत का सोता है
जिसके अन्दर का गायक कवि
पत्थर-पत्थर में बीज बोता है
निर्लिप्त है जो भीगी आँखों/ अकेला खड़ा है/देखा है वो पर्वत।’
छोटी बेटी शीना ने कितने कम शब्दों में अपने मन की बात कही हैः हम
रंग-बिरंगे मटमैले पत्थर/और पिता वह जल/जिससे धोकर/हमें माँ ने चमकाया है।
इसी तरह से उनके बड़े बेटे रवीन्द्र की बेटी कजरी, जिसका आस्ट्रेलिया में जन्म हुआ और जो अभी भी वहीं रहती है, ने अपने दादा जिन्हें वह ‘डैडी-बाबा’ कहकर बुलाती है, पर एक कविता हिन्दी में लिखी है, उसका भी रसास्वादन करें :
इसी तरह से उनके बड़े बेटे रवीन्द्र की बेटी कजरी, जिसका आस्ट्रेलिया में जन्म हुआ और जो अभी भी वहीं रहती है, ने अपने दादा जिन्हें वह ‘डैडी-बाबा’ कहकर बुलाती है, पर एक कविता हिन्दी में लिखी है, उसका भी रसास्वादन करें :
‘अब शायद मैं कुछ ज़्यादा
भारी हो गयी हूँ
कि आपकी सफ़ेद मलमल की मुलायम बाँहें
मुझे स्नेह के सितारों की तरफ़ उछाल सकें
लेकिन अगर इस भरकम शरीर से
कभी कोई कल्पना चुपके से उड़ चली
या इन ढूँढ़ती आँखों को/कोई नया दृष्टिकोण मिला
वह आसानी, वह ऊँचाई, गहराई, विस्तार/वह हल्कापन
अब अगर मिलते हैं तो/पाती हूँ मैं इन्हें/अभी भी।
अपने डैडी-बाबा के कन्धे से।’
कि आपकी सफ़ेद मलमल की मुलायम बाँहें
मुझे स्नेह के सितारों की तरफ़ उछाल सकें
लेकिन अगर इस भरकम शरीर से
कभी कोई कल्पना चुपके से उड़ चली
या इन ढूँढ़ती आँखों को/कोई नया दृष्टिकोण मिला
वह आसानी, वह ऊँचाई, गहराई, विस्तार/वह हल्कापन
अब अगर मिलते हैं तो/पाती हूँ मैं इन्हें/अभी भी।
अपने डैडी-बाबा के कन्धे से।’
लक्ष्मीचन्द्र-कुन्था जी के स्वर्णिम परिणयोत्सव के अवसर पर कजरी ने जो
कविता लिखी उसकी एक बानगी देखें। यह कविता कजरी की अँग्रेज़ी में लिखी
कविता का अनुवाद हैः
‘चाँद डूबता हैः उसकी जगह/पाते हैं हम उतना ही सुखप्रद सफ़ेद
कुर्ता-पाजामा ।
वह सबसे प्रकृतिस्थ समय होता है
शान्त, आनन्दमय, इस घर में/जब वह उठते हैं।
एकान्त अकेले अलथी-पलथी मारे/बैठते हैं वह उस गद्दे पर तब तक तो तकियों को/बाँहों में भींचे सपनों से हमारी/मुठभेड़ चालू होती है।
एक-एक करके हम सबने/देखा है इस जहान को उन्हीं के कन्धों से उचक-उचक कर।
श्रद्धाहीन और दुस्साहसी, फूहड़ और निरभ्र, हमारी हर हँसी, हर मुस्कान/एक निर्दोष, सुरूचिपूर्ण शैतानी से जन्मी, एक सनकी बुदबुदाहट की तरह उन्हीं से आयी है हमारी शिराओं में।
और कौन बोलेगा झूठी-मूठी तिबेतन में /एक अजनबी के साथ ? कौन खिलाएगा सुबह-सुबह पाँच बजे/हमें रसगुल्ले ? बनेगा एक विशेष बन्धु और संरक्षक सन्त मुहल्ले के सभी छोटे-छोटे नटखट बच्चों का, सड़कों पर घूमते पराठे वालों का/आम बेचते फेरीवालों का और सभी को पछाड़ देगा /पुख्ता गप्प लगाने में।
पर धुँधली सुबह ने जैसे/इसे पहचाना है/कि सदा ऐसा नहीं होता वैसे ही रोमांचित होकर हमने भी।
अपने कुल के अतुलनीय प्रमुख/अथाह मौन को गर्भित रखने वाले असहनीय क्रोध को पी जाने वाले/प्रफुल्लता को रोकर न पाने वाले मंगलकामना बरसाने वाले/अकेले और निष्ठा से भरे घूमते हैं वह इस सोये हुए घर में प्यारे बच्चों को सोते देखते हुए/ममत्व, गर्व और चिन्ता लिये स्नेहसिक्त, किंकर्तव्यविमूढ़/यह जानते हुए कि यह प्रकाश का आप्लावन न होकर/ प्यार का प्लावन है।’
जब यह निश्चित हुआ कि मैं एक नब्बे वर्ष के व्यक्ति एवं अस्सी के ऊपर की महिला के साथ बीस-पच्चीस दिन रहूँगा तो एक बार तो मैं घबरा गया। जो व्यक्ति ऊँचा सुनता हो, बहुत कम देख पाता हो, नाममात्र का खाता हो, केवल तीन-चार घन्टे सोता हो, ऐसे व्यक्ति के साथ समय बिताना कितना कठिन कार्य होगा। किन्तु वास्तविक अनुभव कुछ और ही रहा।
उसके पास रह के गुज़िश्ता दिनों का खज़ाना मैंने देखा तो मुझे लगा कि जैसे मैंने धरती में दबे सुन्दर क्षणों के साक्षात्कार किया हो। उनके रंग-ढंग देखकर उनका व्यवहार-विचार समझकर मुझे हमेशा यह लगा कि वह जानते हैं कि जीवन परिवर्तनशील है। वह एक-सा नहीं रहता । बार-बार एक ही चीज़ का जैसा रूप बदलता रहता है, सन्दर्भ बदलते रहते हैं। उनके अनुभवों ने उन्हें शायद काल के पार देखने की अद्भुत क्षमता दी है। दूसरों की अनूभूतियों में प्रवेश करने की उनकी क्षमता ने तो उन्हें सर्वप्रिय बनाया है।
इसके बारे में मुझे याद आ रही हैं सुदर्शन चोपड़ा की बातें जो उसने मुझे आज से तीस-पैंतीस साल पहले कही थीं कि लक्ष्मीचन्द्र जी से मिलने के बाद जैसे उसकी ज़िन्दगी के भेद खुलने लगे थे, उसे नये अर्थ मिलने लगे थे। उसने बताया था कि वे मानो आपके बन्द खिड़की-दरवाजे खोल देते हों और ऐसा लगे कि जैसे आपको स्वच्छता ने घेर लिया हो।
उनके जीवन में बहुत कम विरोधाभास हैं। उनके आचरण, अध्ययन, विचार और लेखन में अद्भुत समरूपता है जो कि अन्य लेखकों, चिन्तकों एवं साहित्यकारों में मिलनी मुश्किल है। क्या इसका कारण यह नहीं कि उन्होंने बड़ी शिद्दत से यह महसूस किया कि अधिकांश लेखक अपने लेखन में जिन आदर्शों की जिस पक्ष की हिमायत करते हैं, अपने अन्तरंग जीवन में उनका क़तई पालन नहीं करते। या वे पुराने मूल्यों से उबर नहीं पाते, क्योंकि वे जीवन की परिवर्तनशीलता को जीते नहीं हैं।
लक्ष्मीचन्द्र जी के साथ रहकर मुझे महसूस हुआ कि अधिकतर लोग पैराग़्राफ़्स में ज़िन्दगी जीते हैं। अगर कुछ लोगों की ज़िन्दगी एक कहानी होती है तो कुछ लोगों का जीवन उपन्यास जैसा फैला हुआ होता है। पर लक्ष्मीचन्द्र जी की ज़िन्दगी की यदि एक खण्ड काव्य से तुलना करें तो अतिशयोक्ति न होगी। खण्ड काव्य भी ऐसा जिसमें थोड़ा-थोड़ा सभी रसों का समावेश हो, पर सर्वोपरि हो जिसमें करूणा।
मैंने सुना है कि लक्ष्मीचन्द्र जी सदा गरिमा और आत्मसम्मान के साथ जिये। शान्ति तथा धर्म सदा दायें-बायें रहे। कठिन से कठिन परिस्थितियों को शान्ति से झेलकर अपने सन्तुलित व्यवहार एवं मधुर स्वभाव के कारण, वे सदा सामान्य स्थिति पर ले आये। स्थितप्रज्ञ बने रहना उन्होंने अपने व्यक्तित्व में मानो आत्मसात कर लिया हो। जितने स्नेह, प्यार और सहानुभूति की वे स्वयं अपेक्षा करते हैं, उतना ही स्नेह, सहानुभूति और समर्थन वे लोगों को देते हैं।
इतनी क्षमताएँ होते हुए भी वे एक निरीह व्यक्ति हैं जो सर्वथा सुरक्षित, फिर भी किसी असुरक्षा से आशंकित रहते हैं उनके पास रहकर उनके साथ संवेदना होती है। उनके प्रति उनके अपनों का व्यवहार देखकर भी उनके लिए कुछ करने को जैसे मन सदा उत्सुक रहता था। वह सौजन्यपूर्ण इतने हैं कि यदि उनके साथ गाड़ी में कोई महिला बैठी हो तो वह गाड़ी रुकते ही तपाक से उतर कर दरवाज़ा खोलते। यदि कोई उनके घर पर आता है तो वह उसे स्वयं चाय-पानी पिलाते हैं
आज भी वह दिन में आठ-दस घण्टे लगातार काम करते हैं। सुबह उन्हें उनकी सचिव पत्र-पत्रिकाएँ पढ़कर सुनाती हैं। किसी के पत्र का उत्तर न देना उन्हें कतई गवारा नहीं। उत्तर नहीं दिलवाने से उन्हें ऐसा लगता है जैसे कोई उनके दरवाज़े पर दस्तक दे रहा हो और वह घर पर होकर भी दरवाज़ा न खोलें।
आज भी उनके पास ढेरों पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं। लेख लिखने के, भाषण देने के आग्रह आते हैं। ज्ञानपीठ का कार्य भी चलता है। ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति एवं टाइम्स ग्रुप को लगातार परामर्श देते हैं। अनेक सभा-गोष्ठियों के निमन्त्रण होते हैं। उनका जीवन अभी भी पूरी तरह व्यस्त रहता है जिसके कारण उसकी शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता बनी रहती है। उनके यहाँ रहते हुए कुछ घटनाओं ने मेरा विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया। असल में वह जितने अपनेपन से, जितनी बेवाकी से, जितनी मीठी पुरसोज़ आवाज़ में बात करते हैं, वह सबको मोह देती है।
यदि वह किसी को अपने यहाँ आने को कहते तो वह बड़ी ख़ुशी से उनके पास आता है और इसे जैसे सौभाग्य मानता। जहाँ वह रहते हैं; सरिता विहार में, वहीं एक और सुप्रसिद्ध कवि भी रहते हैं। उनका फ़ोन ख़राब हो गया और कई दिनों तक वह ठीक नहीं हुआ। लक्ष्मीचन्द्र जी का फ़ोन जब भी खराब होता, वह अपने पड़ोसी के यहाँ से एक्सचेंज में फ़ोन करते और तत्काल उनका फ़ोन ठीक हो जाता। वह मेरे साथ किसी के घर गये तो उनका पालतू कुत्ता झट से उनके पास दौड़ता आया और उनके पाँव चाटने लगा। इसी प्रकार से मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले हम किसी से मिलने गये और उनकी पालतू बिल्ली लक्ष्मीचन्द्र जी की गोद में आ बैठी। उनके जन्म दिन पर उनके यहाँ सारा दिन फ़ोन कॉल्स का ताँता लगा रहा। अनेक ग्रीटिंग कार्ड्स आये और सप्ताह भर लगातार आते रहे। अनजान बच्चे भी उन्हें घेर लेते है। उनकी गाड़ी का चक्का पंक्चर हो गया तो राह चलते कुछ लड़कों ने आगे बढ़कर उनके हाथ से जैक वगैरा लेकर चक्का बदल दिया। यह सब घटनाएँ इस ओर साफ़ इशारा करती हैं कि उनके व्यक्तित्व में निश्चित रूप से ऐसा कुछ है जो अपनी ओर खींचता है उनके लिए कुछ करने को दूसरों को प्रेरित करता है।
कुछ लोग सांस्कृतिक क्षेत्र में जब तक सत्तावान रहते हैं तब तक वे तत्कालीन परिदृश्य में दिखते रहते हैं पर ज्योंही वे सत्ता से दूर होते हैं, वे संस्कृति से भी अपदस्त हो जाते हैं और अक्सर वे सांस्कृतिक जगत् में सदा के लिए ग़ायब भी हो जाते हैं। लेकिन कुछ लोग सत्ता की फेरबदल से अप्रभावित ध्रुव नक्षत्र की तरह सांस्कृतिक जगत् के आकाश पर सदा के लिए चमकते रहते हैं। लक्ष्मीचन्द्रजी जैसे व्यक्ति अपनी प्रतिभा दृष्टि और अनुभव एवं सौम्यता के कारण अपने लिए साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में ऐसा एक स्थान बना लेते हैं जो उन्हीं के लिए सदा सुरक्षित रहता है। लक्ष्मीचन्द्र जी आज भी कई प्रमुख संस्थाओं के अध्यक्ष हैं एवं कुछ की कार्यकारिणी के सदस्य हैं। दिल्ली में होने वाले अधिकतर साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के उन्हें निमन्त्रण मिलते हैं। अधिकतर लोग उन्हें अपने कार्यक्रमों की अध्यक्षता करने को बुलाना चाहते हैं। इच्छा होने के बावजूद उनकी अपनी मजबूरियाँ हैं, जिनके कारण वह अपने मनोनुकूल सब नहीं कर सकते। फिर भी उनकी व्यस्तता को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह नब्बे वर्ष पार कर चुके हैं। लक्ष्मीचन्द्र जी के सम्बन्ध में सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि मैं वह राग सुन रहा हूँ जो किसी भी समय, किसी भी स्थान पर सुना जा सकता है, जो अपना परिवेश खुद तैयार कर लेता है। जिसे सुनकर एक सहज हल्कापन महसूस होता है, एक राहत मिलती है कि वक़्त-बेवक़्त रह-रहकर याद आएँ।
अपने जीवन के अपने विज्ञापन के क्षेत्र में बिताने के बाद मेरे लिए यह सोचना भी कठिन है कि ऐसा भी कोई व्यक्ति हो सकता है जिसे नाम कमाने की कोई मंशा न रही हो। जिसने अनेक बड़ी-बड़ी योजनाओं की परिकल्पना की, उन्हें क्रियान्वित किया किन्तु स्वयं सदा नेपथ्य में रहा। दूसरों को सदा उसने आगे रखा। मैं समझता था कि ऐसे व्यक्तियों के परिप्रेक्ष्य में वास्तविक स्थिति कुछ और होती होगी। शायद उन्हें आगे का मौक़ा ही नहीं मिलता होगा। पर लक्ष्मीचन्द्र जी के साथ मैंने ऐसा कुछ नहीं पाया।
इस नेपथ्य की मानसिकता के सम्बन्ध में उनसे पूछने पर उलटा उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘प्रकृति के बड़े-बड़े अचम्भों के पीछे क्या किसी का नाम होता है ? प्रकृति क्या इसका कोई श्रेय लेना चाहती है। आदिवासी कलाओं के पीछे क्या किसी का नाम होता है ? किसी भी अच्छे काम के लिए नाम का भार उठाना आवश्यक नहीं होता। अच्छा काम सदा नाम से नहीं भावना से होता है। किसी भी उपल्ब्धि को पाने के लिए नामहीनता उसे गतिशील होने और स्थिर होने की स्वतन्त्रता देती है, उसकी सफलता को सहज एवं सरल बनाती है।’’
उनके इन विचारों में से यह रहस्य भी खुला कि वह इतने, आडम्बरहीन, आत्मसंयमी एवं विनयशील कैसे बने।
अपने बचपन का किस्सा जो उन्होंने मुझे सुनाया उसे सुनकर मेरी समझ में आया कि अपने अहं का कैसे उन्होंने त्याग किया और सदा के लिए विनम्रता का जामा पहन लिया। आइए, उन्हीं की ज़ुबानी, इस मनोवैज्ञानिक विश्लेषणात्मक कहानी का हम मिलकर जायका लें:
‘बचपन में अक्सर मुझे लगता कि मैं एक ऐसे गोल कमरे में बन्द हूँ जिसकी दीवारों पर आईने ही आईने लगे हैं और उनमें मैं ही दिख रहा हूँ। मेरे साये मुझे तरह-तरह से मुँह चिढ़ाकर कह रहे हैं कि बाहर निकलो तो जानें। मैं चारों तरफ़ घूम-घूमकर वापस वहीं पहुँच जाता हूँ जहाँ से शुरू हुआ था और बाहर निकल नहीं पाता। मेरे साये मुझ पर हँसते रहते हैं । बहुत जद्दोज़हद के बाद मैं उन आईनों को तोड़ वहाँ से निकल पाया। तब मुझे लगा कि शायद पहली बार मैंने खुला आकाश देखा। पहली बार रोशनी को पिया और आत्मसात किया। उसके बाद ‘मैं’ ने मेरा पीछा छोड़ दिया।’
नब्बे वर्ष बिना किसी रागद्वेष के, बगैर किसी लोभ-अहंकार के, जो बड़ी सादगी से जी रहा है ऐसा एक साहित्य-पुरूष, क्रिया-पुरूष, एक लोक-पुरूष जिसने इतिहास रचा, नयी वीथियाँ तैयार कीं, नये प्रकाश-स्तम्भ बनाये साहित्य की अनन्त यात्राएँ कीं और हर यात्रा में वह समृद्ध होकर लौटा, ऐसे व्यक्ति का जीवन यदि इतिहास का एक अनन्य अध्याय न होगा तो किसका होगा ?
नौ दशकों को पार कर चुकी अपनी सीधी-सादी सदा बाहर ज़िन्दगी के क़िस्से जब वह ऐसे भोलेपन से सुनाते जैसे किसी बच्चे को पंचतन्त्र की कथाएँ सुना रहे हों, तो यह राज़ तब समझ में आता है कि कैसे वह अपने जीवन में ही किंवदन्ती बन गये।
इसी प्रकार से सुनाया गया एक क़िस्सा मुझे प्रेरित करता है यह सोचने को कि उनका जीवन एक बहती नदी की तरह है-हर परिवर्तन को आत्मसात करता हुआ, सबको कुछ न कुछ देता हुआ। वैसे भी पानी के चरित्र और लक्ष्मीचन्द्र जी के चरित्र में एक ऐसी समानता है जो यह सिद्ध करती है कि अच्छे व्यक्ति सदा प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त करते हैं और उनकी ख़ूबियाँ भी सदा प्राकृतिक होती हैं। वैसे भी लक्ष्मीचन्द्र जी का पानी के प्रति कुछ ऐसा अद्भुत आकर्षण है कि किसी भी झरने, नदी, झील या अन्य किसी जल-स्त्रोत को देखते ही उत्तेजित हो जाते हैं और उसमें स्नान करने को तुरन्त उद्यत होते हैं। अपनी अनेक यात्राओं में से एक यात्रा में वह एक झरने के पास पहुँचे और आव देखा न ताव, कपड़े उतार उसके जलकुण्ड में उतर गये। पर जैसे ही पानी में पहुँचे उसी क्षण चीत्कार करते हुए बाहर निकल आये और सबने देखा कि उनकी त्वचा लाल-लाल हो गयी थी। हुआ यह कि वह हॉट-स्प्रिंग था और उसका पानी बहुत गर्म था जो कि स्नान करने के उपयुक्त नहीं था। लक्ष्मीचन्द्र जी के सौम्य, शान्त एवं सदा मुसकुराते चेहरे को देखकर कभी-कभी मुझे ज़रा अटपटा भी लगता था। मैंने कुन्था जी से पूछा, ‘आपने तो इनके चेहरे पर तनाव, चिन्ता, दुःख, क्रोध आदि कभी न कभी तो देखे ही होंगे।’ तो कुन्था जी बोलीं: ‘लक्ष्मीचन्द्र जी प्रायः पीड़ा को पी जाते हैं। मैंने उनके चेहरे पर पीड़ा या दुःख का भाव देखा हो मुझे याद नहीं पड़ता। हाँ, पीड़ा जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचती जाती है तो कुछ दिनों के लिए यह आत्मलिप्त हो जाते हैं-मौन, एकाकी, ऐसे में उनके लिए मौन के क्षण जैसे मुखर हो जाते हैं। पर इतने दिनों के सान्निध्य से, अब मेरे लिए इनके कुछ भेद खुल गये हैं और मैं इनकी मुस्कराहट में भी पीड़ा को देख लेती हूँ।
वह सबसे प्रकृतिस्थ समय होता है
शान्त, आनन्दमय, इस घर में/जब वह उठते हैं।
एकान्त अकेले अलथी-पलथी मारे/बैठते हैं वह उस गद्दे पर तब तक तो तकियों को/बाँहों में भींचे सपनों से हमारी/मुठभेड़ चालू होती है।
एक-एक करके हम सबने/देखा है इस जहान को उन्हीं के कन्धों से उचक-उचक कर।
श्रद्धाहीन और दुस्साहसी, फूहड़ और निरभ्र, हमारी हर हँसी, हर मुस्कान/एक निर्दोष, सुरूचिपूर्ण शैतानी से जन्मी, एक सनकी बुदबुदाहट की तरह उन्हीं से आयी है हमारी शिराओं में।
और कौन बोलेगा झूठी-मूठी तिबेतन में /एक अजनबी के साथ ? कौन खिलाएगा सुबह-सुबह पाँच बजे/हमें रसगुल्ले ? बनेगा एक विशेष बन्धु और संरक्षक सन्त मुहल्ले के सभी छोटे-छोटे नटखट बच्चों का, सड़कों पर घूमते पराठे वालों का/आम बेचते फेरीवालों का और सभी को पछाड़ देगा /पुख्ता गप्प लगाने में।
पर धुँधली सुबह ने जैसे/इसे पहचाना है/कि सदा ऐसा नहीं होता वैसे ही रोमांचित होकर हमने भी।
अपने कुल के अतुलनीय प्रमुख/अथाह मौन को गर्भित रखने वाले असहनीय क्रोध को पी जाने वाले/प्रफुल्लता को रोकर न पाने वाले मंगलकामना बरसाने वाले/अकेले और निष्ठा से भरे घूमते हैं वह इस सोये हुए घर में प्यारे बच्चों को सोते देखते हुए/ममत्व, गर्व और चिन्ता लिये स्नेहसिक्त, किंकर्तव्यविमूढ़/यह जानते हुए कि यह प्रकाश का आप्लावन न होकर/ प्यार का प्लावन है।’
जब यह निश्चित हुआ कि मैं एक नब्बे वर्ष के व्यक्ति एवं अस्सी के ऊपर की महिला के साथ बीस-पच्चीस दिन रहूँगा तो एक बार तो मैं घबरा गया। जो व्यक्ति ऊँचा सुनता हो, बहुत कम देख पाता हो, नाममात्र का खाता हो, केवल तीन-चार घन्टे सोता हो, ऐसे व्यक्ति के साथ समय बिताना कितना कठिन कार्य होगा। किन्तु वास्तविक अनुभव कुछ और ही रहा।
उसके पास रह के गुज़िश्ता दिनों का खज़ाना मैंने देखा तो मुझे लगा कि जैसे मैंने धरती में दबे सुन्दर क्षणों के साक्षात्कार किया हो। उनके रंग-ढंग देखकर उनका व्यवहार-विचार समझकर मुझे हमेशा यह लगा कि वह जानते हैं कि जीवन परिवर्तनशील है। वह एक-सा नहीं रहता । बार-बार एक ही चीज़ का जैसा रूप बदलता रहता है, सन्दर्भ बदलते रहते हैं। उनके अनुभवों ने उन्हें शायद काल के पार देखने की अद्भुत क्षमता दी है। दूसरों की अनूभूतियों में प्रवेश करने की उनकी क्षमता ने तो उन्हें सर्वप्रिय बनाया है।
इसके बारे में मुझे याद आ रही हैं सुदर्शन चोपड़ा की बातें जो उसने मुझे आज से तीस-पैंतीस साल पहले कही थीं कि लक्ष्मीचन्द्र जी से मिलने के बाद जैसे उसकी ज़िन्दगी के भेद खुलने लगे थे, उसे नये अर्थ मिलने लगे थे। उसने बताया था कि वे मानो आपके बन्द खिड़की-दरवाजे खोल देते हों और ऐसा लगे कि जैसे आपको स्वच्छता ने घेर लिया हो।
उनके जीवन में बहुत कम विरोधाभास हैं। उनके आचरण, अध्ययन, विचार और लेखन में अद्भुत समरूपता है जो कि अन्य लेखकों, चिन्तकों एवं साहित्यकारों में मिलनी मुश्किल है। क्या इसका कारण यह नहीं कि उन्होंने बड़ी शिद्दत से यह महसूस किया कि अधिकांश लेखक अपने लेखन में जिन आदर्शों की जिस पक्ष की हिमायत करते हैं, अपने अन्तरंग जीवन में उनका क़तई पालन नहीं करते। या वे पुराने मूल्यों से उबर नहीं पाते, क्योंकि वे जीवन की परिवर्तनशीलता को जीते नहीं हैं।
लक्ष्मीचन्द्र जी के साथ रहकर मुझे महसूस हुआ कि अधिकतर लोग पैराग़्राफ़्स में ज़िन्दगी जीते हैं। अगर कुछ लोगों की ज़िन्दगी एक कहानी होती है तो कुछ लोगों का जीवन उपन्यास जैसा फैला हुआ होता है। पर लक्ष्मीचन्द्र जी की ज़िन्दगी की यदि एक खण्ड काव्य से तुलना करें तो अतिशयोक्ति न होगी। खण्ड काव्य भी ऐसा जिसमें थोड़ा-थोड़ा सभी रसों का समावेश हो, पर सर्वोपरि हो जिसमें करूणा।
मैंने सुना है कि लक्ष्मीचन्द्र जी सदा गरिमा और आत्मसम्मान के साथ जिये। शान्ति तथा धर्म सदा दायें-बायें रहे। कठिन से कठिन परिस्थितियों को शान्ति से झेलकर अपने सन्तुलित व्यवहार एवं मधुर स्वभाव के कारण, वे सदा सामान्य स्थिति पर ले आये। स्थितप्रज्ञ बने रहना उन्होंने अपने व्यक्तित्व में मानो आत्मसात कर लिया हो। जितने स्नेह, प्यार और सहानुभूति की वे स्वयं अपेक्षा करते हैं, उतना ही स्नेह, सहानुभूति और समर्थन वे लोगों को देते हैं।
इतनी क्षमताएँ होते हुए भी वे एक निरीह व्यक्ति हैं जो सर्वथा सुरक्षित, फिर भी किसी असुरक्षा से आशंकित रहते हैं उनके पास रहकर उनके साथ संवेदना होती है। उनके प्रति उनके अपनों का व्यवहार देखकर भी उनके लिए कुछ करने को जैसे मन सदा उत्सुक रहता था। वह सौजन्यपूर्ण इतने हैं कि यदि उनके साथ गाड़ी में कोई महिला बैठी हो तो वह गाड़ी रुकते ही तपाक से उतर कर दरवाज़ा खोलते। यदि कोई उनके घर पर आता है तो वह उसे स्वयं चाय-पानी पिलाते हैं
आज भी वह दिन में आठ-दस घण्टे लगातार काम करते हैं। सुबह उन्हें उनकी सचिव पत्र-पत्रिकाएँ पढ़कर सुनाती हैं। किसी के पत्र का उत्तर न देना उन्हें कतई गवारा नहीं। उत्तर नहीं दिलवाने से उन्हें ऐसा लगता है जैसे कोई उनके दरवाज़े पर दस्तक दे रहा हो और वह घर पर होकर भी दरवाज़ा न खोलें।
आज भी उनके पास ढेरों पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं। लेख लिखने के, भाषण देने के आग्रह आते हैं। ज्ञानपीठ का कार्य भी चलता है। ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति एवं टाइम्स ग्रुप को लगातार परामर्श देते हैं। अनेक सभा-गोष्ठियों के निमन्त्रण होते हैं। उनका जीवन अभी भी पूरी तरह व्यस्त रहता है जिसके कारण उसकी शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता बनी रहती है। उनके यहाँ रहते हुए कुछ घटनाओं ने मेरा विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया। असल में वह जितने अपनेपन से, जितनी बेवाकी से, जितनी मीठी पुरसोज़ आवाज़ में बात करते हैं, वह सबको मोह देती है।
यदि वह किसी को अपने यहाँ आने को कहते तो वह बड़ी ख़ुशी से उनके पास आता है और इसे जैसे सौभाग्य मानता। जहाँ वह रहते हैं; सरिता विहार में, वहीं एक और सुप्रसिद्ध कवि भी रहते हैं। उनका फ़ोन ख़राब हो गया और कई दिनों तक वह ठीक नहीं हुआ। लक्ष्मीचन्द्र जी का फ़ोन जब भी खराब होता, वह अपने पड़ोसी के यहाँ से एक्सचेंज में फ़ोन करते और तत्काल उनका फ़ोन ठीक हो जाता। वह मेरे साथ किसी के घर गये तो उनका पालतू कुत्ता झट से उनके पास दौड़ता आया और उनके पाँव चाटने लगा। इसी प्रकार से मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले हम किसी से मिलने गये और उनकी पालतू बिल्ली लक्ष्मीचन्द्र जी की गोद में आ बैठी। उनके जन्म दिन पर उनके यहाँ सारा दिन फ़ोन कॉल्स का ताँता लगा रहा। अनेक ग्रीटिंग कार्ड्स आये और सप्ताह भर लगातार आते रहे। अनजान बच्चे भी उन्हें घेर लेते है। उनकी गाड़ी का चक्का पंक्चर हो गया तो राह चलते कुछ लड़कों ने आगे बढ़कर उनके हाथ से जैक वगैरा लेकर चक्का बदल दिया। यह सब घटनाएँ इस ओर साफ़ इशारा करती हैं कि उनके व्यक्तित्व में निश्चित रूप से ऐसा कुछ है जो अपनी ओर खींचता है उनके लिए कुछ करने को दूसरों को प्रेरित करता है।
कुछ लोग सांस्कृतिक क्षेत्र में जब तक सत्तावान रहते हैं तब तक वे तत्कालीन परिदृश्य में दिखते रहते हैं पर ज्योंही वे सत्ता से दूर होते हैं, वे संस्कृति से भी अपदस्त हो जाते हैं और अक्सर वे सांस्कृतिक जगत् में सदा के लिए ग़ायब भी हो जाते हैं। लेकिन कुछ लोग सत्ता की फेरबदल से अप्रभावित ध्रुव नक्षत्र की तरह सांस्कृतिक जगत् के आकाश पर सदा के लिए चमकते रहते हैं। लक्ष्मीचन्द्रजी जैसे व्यक्ति अपनी प्रतिभा दृष्टि और अनुभव एवं सौम्यता के कारण अपने लिए साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में ऐसा एक स्थान बना लेते हैं जो उन्हीं के लिए सदा सुरक्षित रहता है। लक्ष्मीचन्द्र जी आज भी कई प्रमुख संस्थाओं के अध्यक्ष हैं एवं कुछ की कार्यकारिणी के सदस्य हैं। दिल्ली में होने वाले अधिकतर साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के उन्हें निमन्त्रण मिलते हैं। अधिकतर लोग उन्हें अपने कार्यक्रमों की अध्यक्षता करने को बुलाना चाहते हैं। इच्छा होने के बावजूद उनकी अपनी मजबूरियाँ हैं, जिनके कारण वह अपने मनोनुकूल सब नहीं कर सकते। फिर भी उनकी व्यस्तता को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह नब्बे वर्ष पार कर चुके हैं। लक्ष्मीचन्द्र जी के सम्बन्ध में सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि मैं वह राग सुन रहा हूँ जो किसी भी समय, किसी भी स्थान पर सुना जा सकता है, जो अपना परिवेश खुद तैयार कर लेता है। जिसे सुनकर एक सहज हल्कापन महसूस होता है, एक राहत मिलती है कि वक़्त-बेवक़्त रह-रहकर याद आएँ।
अपने जीवन के अपने विज्ञापन के क्षेत्र में बिताने के बाद मेरे लिए यह सोचना भी कठिन है कि ऐसा भी कोई व्यक्ति हो सकता है जिसे नाम कमाने की कोई मंशा न रही हो। जिसने अनेक बड़ी-बड़ी योजनाओं की परिकल्पना की, उन्हें क्रियान्वित किया किन्तु स्वयं सदा नेपथ्य में रहा। दूसरों को सदा उसने आगे रखा। मैं समझता था कि ऐसे व्यक्तियों के परिप्रेक्ष्य में वास्तविक स्थिति कुछ और होती होगी। शायद उन्हें आगे का मौक़ा ही नहीं मिलता होगा। पर लक्ष्मीचन्द्र जी के साथ मैंने ऐसा कुछ नहीं पाया।
इस नेपथ्य की मानसिकता के सम्बन्ध में उनसे पूछने पर उलटा उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘प्रकृति के बड़े-बड़े अचम्भों के पीछे क्या किसी का नाम होता है ? प्रकृति क्या इसका कोई श्रेय लेना चाहती है। आदिवासी कलाओं के पीछे क्या किसी का नाम होता है ? किसी भी अच्छे काम के लिए नाम का भार उठाना आवश्यक नहीं होता। अच्छा काम सदा नाम से नहीं भावना से होता है। किसी भी उपल्ब्धि को पाने के लिए नामहीनता उसे गतिशील होने और स्थिर होने की स्वतन्त्रता देती है, उसकी सफलता को सहज एवं सरल बनाती है।’’
उनके इन विचारों में से यह रहस्य भी खुला कि वह इतने, आडम्बरहीन, आत्मसंयमी एवं विनयशील कैसे बने।
अपने बचपन का किस्सा जो उन्होंने मुझे सुनाया उसे सुनकर मेरी समझ में आया कि अपने अहं का कैसे उन्होंने त्याग किया और सदा के लिए विनम्रता का जामा पहन लिया। आइए, उन्हीं की ज़ुबानी, इस मनोवैज्ञानिक विश्लेषणात्मक कहानी का हम मिलकर जायका लें:
‘बचपन में अक्सर मुझे लगता कि मैं एक ऐसे गोल कमरे में बन्द हूँ जिसकी दीवारों पर आईने ही आईने लगे हैं और उनमें मैं ही दिख रहा हूँ। मेरे साये मुझे तरह-तरह से मुँह चिढ़ाकर कह रहे हैं कि बाहर निकलो तो जानें। मैं चारों तरफ़ घूम-घूमकर वापस वहीं पहुँच जाता हूँ जहाँ से शुरू हुआ था और बाहर निकल नहीं पाता। मेरे साये मुझ पर हँसते रहते हैं । बहुत जद्दोज़हद के बाद मैं उन आईनों को तोड़ वहाँ से निकल पाया। तब मुझे लगा कि शायद पहली बार मैंने खुला आकाश देखा। पहली बार रोशनी को पिया और आत्मसात किया। उसके बाद ‘मैं’ ने मेरा पीछा छोड़ दिया।’
नब्बे वर्ष बिना किसी रागद्वेष के, बगैर किसी लोभ-अहंकार के, जो बड़ी सादगी से जी रहा है ऐसा एक साहित्य-पुरूष, क्रिया-पुरूष, एक लोक-पुरूष जिसने इतिहास रचा, नयी वीथियाँ तैयार कीं, नये प्रकाश-स्तम्भ बनाये साहित्य की अनन्त यात्राएँ कीं और हर यात्रा में वह समृद्ध होकर लौटा, ऐसे व्यक्ति का जीवन यदि इतिहास का एक अनन्य अध्याय न होगा तो किसका होगा ?
नौ दशकों को पार कर चुकी अपनी सीधी-सादी सदा बाहर ज़िन्दगी के क़िस्से जब वह ऐसे भोलेपन से सुनाते जैसे किसी बच्चे को पंचतन्त्र की कथाएँ सुना रहे हों, तो यह राज़ तब समझ में आता है कि कैसे वह अपने जीवन में ही किंवदन्ती बन गये।
इसी प्रकार से सुनाया गया एक क़िस्सा मुझे प्रेरित करता है यह सोचने को कि उनका जीवन एक बहती नदी की तरह है-हर परिवर्तन को आत्मसात करता हुआ, सबको कुछ न कुछ देता हुआ। वैसे भी पानी के चरित्र और लक्ष्मीचन्द्र जी के चरित्र में एक ऐसी समानता है जो यह सिद्ध करती है कि अच्छे व्यक्ति सदा प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त करते हैं और उनकी ख़ूबियाँ भी सदा प्राकृतिक होती हैं। वैसे भी लक्ष्मीचन्द्र जी का पानी के प्रति कुछ ऐसा अद्भुत आकर्षण है कि किसी भी झरने, नदी, झील या अन्य किसी जल-स्त्रोत को देखते ही उत्तेजित हो जाते हैं और उसमें स्नान करने को तुरन्त उद्यत होते हैं। अपनी अनेक यात्राओं में से एक यात्रा में वह एक झरने के पास पहुँचे और आव देखा न ताव, कपड़े उतार उसके जलकुण्ड में उतर गये। पर जैसे ही पानी में पहुँचे उसी क्षण चीत्कार करते हुए बाहर निकल आये और सबने देखा कि उनकी त्वचा लाल-लाल हो गयी थी। हुआ यह कि वह हॉट-स्प्रिंग था और उसका पानी बहुत गर्म था जो कि स्नान करने के उपयुक्त नहीं था। लक्ष्मीचन्द्र जी के सौम्य, शान्त एवं सदा मुसकुराते चेहरे को देखकर कभी-कभी मुझे ज़रा अटपटा भी लगता था। मैंने कुन्था जी से पूछा, ‘आपने तो इनके चेहरे पर तनाव, चिन्ता, दुःख, क्रोध आदि कभी न कभी तो देखे ही होंगे।’ तो कुन्था जी बोलीं: ‘लक्ष्मीचन्द्र जी प्रायः पीड़ा को पी जाते हैं। मैंने उनके चेहरे पर पीड़ा या दुःख का भाव देखा हो मुझे याद नहीं पड़ता। हाँ, पीड़ा जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचती जाती है तो कुछ दिनों के लिए यह आत्मलिप्त हो जाते हैं-मौन, एकाकी, ऐसे में उनके लिए मौन के क्षण जैसे मुखर हो जाते हैं। पर इतने दिनों के सान्निध्य से, अब मेरे लिए इनके कुछ भेद खुल गये हैं और मैं इनकी मुस्कराहट में भी पीड़ा को देख लेती हूँ।
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लोगों की राय
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