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कहनी अनकहनी

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1353
आईएसबीएन :81-263-0218-6

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स्पष्ट विश्लेषण कथ्य की गहराई और मर्मभेदी दृष्टि के साथ एक चुहल-भरी आत्मीय शैली की जिन्दादिली ने इस लेखन को हिन्दी गद्य की एक मूल्यवान उपलब्धि बना दिया है।...

Kahani Ankahani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

इस पुस्तक में संकलित लगभग 45 छोटे-छोटे निबन्धों में से एक टिप्पणी का शीर्षक है ‘एक छोटी खबरः एक बड़ा सन्दर्भ’! कमोबेश यह शीर्षक इन सभी निबन्धों की प्रकृति को रूपायित करता है। समकालीन इतिहासचक्र की कोई छोटी-से-छोटी घटना हो, सामान्य से सामान्य समाचार हो-लेकिन मानव मूल्यों के निकष पर उसे भी कसा जा सकता है, और बहुत कुछ है जो उसके सन्दर्भ में कहा जा सकता है-बहुत कुछ, जिसका स्थायी मूल्य है। यह लेखन उसी दिशा में एक प्रयोग रहा है। धर्मयुग में ‘कहनी अनकहनी’ स्तम्भ के अन्तर्गत जब ये टिप्पणियाँ प्रकाशित हुईं तो लेखक को यह सुखद आश्चर्य हुआ कि हिन्दी का सामान्य समझा जानेवाला पाठक भी बुनियादी सवालों में कितनी गहराई से रुचि लेता है। उस समय पाठकों के हज़ारों पत्र आते थे और अब तक कभी-कभी इन टिप्पणियों का हवाला देते हुए पत्र आते हैं। यहाँ मैं उन सभी पत्र-लेखकों के प्रति आभार प्रकट करता हूँ। जनसामान्य की यह जागरूकता हमारे जनतन्त्र के भावी विकास के लिए शुभ लक्षण है-विशेषतया ऐसे काल में जब हमारे अनेक तथा-कथित बुद्धिजीवी असली सवालों से कतराने की मुद्रा अपना चुके हैं !
धर्मवीर भारती

विचारक का गुस्सा

(5 फ़रवरी 1961)

एक कथा पढ़ी थी बचपन में। एक मशहूर विचारक था जो बिलकुल एकान्त में रहता था, जीवन-मरण की गुत्थियाँ सुलझाने में इतना मशगूल रहता था कि किसी का आना-जाना भी उसे नागवार गुज़रता था। जब विश्वविजेता सिकन्दर उधर से गुज़रा तो उसने उससे मिलने और उसका सम्मान करने की इच्छा प्रकट की। आमन्त्रण गया पर विचारक ने साफ़ ‘ना’ कर दी। पालकी गयी, लौट आयी। घुड़सवार गये, लौट आये। अन्त में सिकन्दर खुद गया।
यही जाड़े के दिन थे और विचारक महोदय धूप में बैठे थे। चिन्तन में लीन, आँखें मूँदे। सिकन्दर जाकर बगल में खड़ा हो गया। उन्हें पता भी न चला। ध्यान बँटाने के लिए घूमकर सिकन्दर आगे आया। सिकन्दर की छाँह उनपर पड़ी और मन्द-मन्द धूप से ज़रा वंचित हुए तो विचारक महोदय ने आँखें खोलीं।
पलकें खुली देख सिकन्दर श्रद्धा से विनत और हर्ष से गद्गद हो गया-‘‘श्रद्धेय ! आप विश्वविजयी सिकन्दर को निर्देश दें कि वह आपके लिए क्या करे ?’’

‘‘विश्वविजयी सिकन्दर भगवान् के वास्ते सामने से हट जाए और मुझे शान्ति से धूप खा लेने दे ? पलकें फिर बन्द हो गयीं और वे चिन्तन में फिर लीन हो गये।
बचपन में जब से यह कथा पढ़ी थी तभी से मन में यह धारणा गहरी बैठ गयी थी कि दार्शनिक विचारक़ लोग काफी आत्मतुष्ट होते होंगे। जब सिकन्दर के मान-सम्मान की उन्हें ख़ास परवाह नहीं तो साधारण लोगों के मान-सम्मान को क्या गिनते होंगे। मगर सभी उस दिन जब अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विचारक जे.बी.एस.हाल्डेन के अनशन का समाचार सुना तो कानों पर विश्वास न हुआ। विचारक लोग भी ऐसा करते हैं, यह उसी दिन मालूम हुआ।

प्रोफ़ेसर हाल्डेन के नाम से आप अपरिचित नहीं होंगे। वे विश्वविख्यात वैज्ञानिक दार्शनिक रहे हैं। बुढ़ापे में उन्होंने भारत में बसने की इच्छा प्रकट की और कलकत्ते में निवास करते हैं। हुआ यह कि उन्होंने विदेश से आने वाले दो-चार अतिथियों को अपने घर पर शाम को आमन्त्रित किया। खाना-वाना बनवाया, दो-चार दोस्त-अहबाब भी बुलवाये मगर वे अतिथि नहीं आये तो नहीं ही आये। फ़ोन पर फ़ोन किया, अन्त में मालूम हुआ कि वे जिस देश से आये थे उस देश के दूतावास ने उन अतिथियों को सलाह दी थी, हाल्डेन साहब के यहाँ न जाएँ ! प्रोफ़ेसर साहब को यह बात अपमानजनक लगी और उन्होंने घोषित कर दिया कि वे सात दिन का अनशन करेंगे। अख़बारों में मोटे-मोटे टाइप में यह ख़बर छप भी गयी।
मैंने यह ख़बर पढ़ी तो सचमुच आश्चर्यचकित रह गया। अनशन करना जायज़ है या नाजायज़, क़सूर किसका है किसका नहीं-यह सब बातें तो बाद में मन में उठीं, सबसे पहले यह यक़ीन ही नहीं हुआ कि विचारक जाति का रुख़ इतना बदल गया है। अपने दिमाग़ में तो विचारक की वही तस्वीर बनी हुई थी-सिकन्दर के ज़मानेवाली–तो यह अपमान-सम्मान के लिए अनशन करनेवाले विचारक की तसवीर बैठ ही नहीं पाती थी। बार-बार यही ख़याल आता था कि देखो किस क़दर दुनिया रंग बदलती है ! एक ज़मान था कि दार्शनिक इसलिए नाराज़ हो जाता था कि सम्मान वग़ैरह देकर उसे बाधा क्यों पहुँचाते हो और एक ज़माना अब है कि दार्शनिक इसलिए नाराज़ है कि उसे बाधा न पहुँचाकर अपमानित क्यों किया गया। एक ज़माना था कि विचारक सिकन्दर-जैसे आनेवालों से कहता था कि ‘‘बाबा मेरी जान छोड़ो, मुझे चुपचाप धूप खा लेने दो।’’ एक ज़माना यह है कि वह बुलाता है कि आओ मेरा वक़्त भी लो, मेरा खाना भी खाओ’’, और फिर भी अभागे आगन्तुक इस सुअवसर का लाभ नहीं उठाते। जो सिकन्दर को मयस्सर नहीं था वह इन्हें दिया जा रहा है मगर ऐसों ही के लिए गुसाँई जी लिख गये थे कि ‘‘सकल पदारथ है जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं।’’

दार्शनिक स्तर पर तो यह अचरज मेरे मन में व्याप्त था यह ख़बर पढ़कर, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर दूतावासवालों पर बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था कि सालभर तो कलकत्ते में उमस का मौसम रहता है। एक यही जाड़ा है जब ज़रा खुलकर भूख लगती है और उन्हीं दिनों उन निर्मम लोगों के बेचारे प्रोफ़ेसर को इतना गुस्सा दिला दिया कि वे खाना-पीना छोड़ बैठे।
पर हाँ, एक बात जरूर मेरी समझ में नहीं आयी। अगर आगन्तुक आमन्त्रण स्वीकार करके भी नहीं आये तो इसमें खाना-पीना छोड़ देने की क्या बात है ? वैसे तो आये-दिन अख़बारों में समाचार आता है कि आज अमुक पार्टी के नेता ने खाना-पीना छोड़ दिया, कल से अमुक आमरण अनशन घोषित करेगा-पर वे सब तो राजनीतिक दाँव-पेंच की बातें होती हैं। अपने इस देश के सामाजिक जीवन में जहाँ और दस अजूबे देखने में आते हैं उनमें से यह एक अनशन का राजनीतिक ब्रह्मास्त्र भी है। कोई माँग पेश की गयी, कोई नारा बुलन्द किया गया; कोई आन्दोलन छेड़ा गया और किसी वजह से चल नहीं पाया तो पुरानी कहानियों की रूठी रानी के मानिन्द आटी-पाटी लेकर पड़ रहे, खाना-पीना छोड़ दिया। अब क्या हैं ! दस अख़बारवाले दौड़ेंगे, इस फोटोग्राफ़र दौड़ेंगे, रोज़ाना हेल्थ बुलेटिन निकलेगी, ज़रा ठण्डी नसों में गर्म जोश दौड़ेगा, दो-चार जुलूस निकलेंगे, अश्रुगैस फेंकी जाएगी, फिर इधर से सन्धि-प्रस्ताव होगा, फिर उधर से सन्धि-प्रस्ताव होगा-अन्त में ऊँट इस करवट बैठे या उस करवट, पर नाम तो हो ही जाएगा। कॉलेजों में छात्र- नेताओं से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक अनशन का यह ब्रह्मास्त्र तो इस्तेमाल होता ही है।

लेकिन यहाँ तो सवाल किसी राजनीतिक नेता का नहीं, एक ऐसे व्यक्ति का है जो अपने को विचारक कहता है। उसके अनशन का कोई सैद्धान्तिक आधार जरूर होगा-वह केवल क्रोध में प्रहार का अस्त्र-मात्र तो नहीं ही होगा।
चूँकि ख़बर में इस सैद्धान्तिक आधार का उल्लेख नहीं था अतः मैंने किताबें उलट-पलटकर खोजा कि अनशन का क्या सैद्धान्तिक आधार होता है ? पहली बात मालूम हुई कि सन्तों ने एक परम्परा उपवास या अनशन की इसलिए चलायी थी कि उससे आत्मशुद्धि होती है। यानी आसान, ज़बान में कहें तो यह कि जब उन्हें लगता था कि उनके मन में क्रोध,स अहंकार, लोभ, असंयम की कोई भावना आयी और वे उस भावना में बहकर किसी का नुकसान कर बैठे तो बाद में वे अपने को दण्ड देने के लिए अनशन करते थे। वह एक प्रकार से अपने चित्त को शोधने की प्रक्रिया होती थी।
यदि यह माना जाए कि यह अनशन या इधर होनेवाले तमाम अनशन इस आत्मशुद्धिवाले अनशनों की नस्ल के हैं तो उससे बड़ा उलटा-पुलटा निष्कर्ष निकलता है। यानी उससे यह साबित होगा कि अगर किसी ने किसी प्रान्तविशेष के निर्माण के लिए अनशन किया तो यह प्रान्तविशेष के निर्माण की माँग उनके क्रोध, घमण्ड या लोभ का परिणाम थी और वे उस भावना से मुक्त होने और अपने को शुद्ध करने के लिए अनशन कर रहे हैं। या प्रोफ़ेसर साहब ने आगन्तुकों को क्रोध,घमण्ड या लोभ के कारण बुलाया था और अब वे उसके लिए अपने को दण्ड दे रहे हैं।
मैं मानता हूँ कि प्रोफ़ेसर क्रोध, अहंकार की भावना से ग्रस्त नहीं थे, अतः यह अनशन आत्मशुद्धिवाला अनशन तो नहीं ही है।

सैद्धान्तिक अनशन की एक दूसरी क़िस्म होती है हृदय-परिवर्तनवाली। यानी आप अहिंसक हैं। आपका शत्रु बदमाश है। जैसे तपस्या में लीन ऋर्षियों को राक्षस कष्ट पहुँचाते थे वैसे ही वह आपको कष्ट पहुँचाता है। मगर आप उसका बुरा नहीं चाहते, उससे बदला नहीं लेते, उसको मारते-पीटते नहीं ! आप चुपचाप अनशन करते हैं ताकि आपका कष्ट देखकर उसका हृदय-परिवर्तन हो और वह अपनी ग़लती पर पछताए !
सुनने में यह बात बड़ी ऊँची और उदात्त लगती है। पर शत्रु का हृदय-परिवर्तन कराने का दावा करनेवाली इस अनशन-पद्धित की ज़रा तटस्थ विवेकपूर्ण जाँच करें तो क्या शकल सामने आती है ?

पहला दावा यह है कि आप अनशन करके शत्रु को कष्ट नहीं पहुँचाते, केवल अपने को कष्ट पहुँचाते हैं और देख-देखकर उसका हृदय-परिवर्तन हो जाता है। पर वर्तमान स्थितियों में क्या यह बात सच है ? मैं प्रोफ़ेसर साहब की बात नहीं कहता, हो सकता है उन्होंने इस अनशन का प्रचार बिलकुल न चाहा हो-मगर वैसे इस तरह का कोई अनशन शुरू होते ही सबसे पहले पत्रकारों और संवाददाताओं को जुटाया जाता है। ख़बरों को ज़्यादा से ज़्यादा सनसनीखोज़ बनाकर फैलाया जाता है। नतीज़ा यह होता है कि जिसके विरुद्ध अनशन किया जा रहा है उसके ख़िलाफ़ जनमत तैयार हो जाता है। उसपर धिक्कार बरसनी शुरू होती है और वह कमज़ोर हुआ तो उन आघातों से घबराकर अनशनकारी के पास सन्धि-प्रस्ताव भेजता है। सन्धि-प्रस्ताव भेजते समय उसका हृदय- परिवर्तन हो गया हो यह आवश्यक नहीं, वह केवल आत्मरक्षा में सन्धि करने को तैयार हो जाता है। ऐसे समय में अक्सर आमरण अनशन भी तोड़ दिये जाते हैं जब यह मालूम हो जाता है कि अनशन करने से जितना लाभ मिलता है वह मिल चुका, आगे अपनी काया दुखाने में क्या अक़्लमन्दी है ? हृदय-परिवर्तन की बात पर न यह पक्ष विश्वास करता है न वह पक्ष !

अतः हृदय-परिवर्तन की बात तो बस कहने-भर की है, मगर क्या इससे अन्याय का दमन और न्याय की स्थापना भी हो पाती है ? वस्तुतः न्याय-अन्याय के बीच भेद करनेवाली विवेकबुद्धि ही अनशन के कारण मारी जाती है। इसका मौक़ा ही कहाँ रह जाता है कि जनता दोनों पक्षों पर शान्ति से विचार कर तटस्थ विवेकपूर्ण दृष्टि से यह जाँच सके कि कौन न्याय पर है, कौन अन्याय पर। अनशनकारी तो अनशन करके तुरन्त अपने प्रति एक दया जगाने की चेष्टा करता है-कि उसे भूखा, प्यासा, कमज़ोर, लड़खड़ाता हुआ जानकर लोगों की दया उसके प्रति जागे और उसके शत्रु के प्रति घृणा जाग जाए। अनशनकारी इस तरह लोगों की भावुकता उभारकर उसके विवेक को गुमराह करने में मददगार बन जाता है।
इसीलिए कुछ लोग अनशन को ‘नैतिक ब्लैकमेल’ कहते हैं। पर ब्लैकमेल इससे ज़्यादा साफ़-सुथरा होता है साधारण ब्लैकमेल करनेवाला कम-से-कम अपने प्रति दया तो नहीं जगाता। लाग-लपेट नहीं करता, अध्यात्म का चेहरा लगाकर वार नहीं करता। साफ़ धमकी देता है। कुछ लोग इस तरह के अनशनों को आत्महत्या से ज़्यादा अजीब चीज़ है क्योंकि आत्महत्या तो तात्कालिक भावावेश में की जाती है, पर अनशन के पीछे तो अच्छी-ख़ासी योजना रहती है और चारों ओर काफ़ी धूमधाम का आयोजन रहता है।

पर बात कहाँ से कहाँ चली गयी। बात चल रही थी प्रोफ़ेसर साहब के अनशन से। उन बेचारे को राजनीति और ब्लैकमेल से क्या लेना-देना। शोहरत भी नहीं चाहते-पहले से ही मशहूर हैं। कुल मिलाकर यही लगता है कि बात उन्हें लग गयी और स्वाभिमान को बचाने के लिए अनशन कर बैठे। मगर अजब गोरखधन्धा यह है कि अनशन का आरम्भ ही होता है आत्म-दया जगाकर। आप अनशन करते हैं स्वाभिमान बचाने के लिए और शुरुआत करते हैं अपना आत्मसम्मान स्वयं नष्ट करके, यानी दूसरों की निगाह में अपने को भूखा-प्यासा दयनीय साबित करके।
इस तरह बात फिर घूम-फिरकर जहाँ की तहाँ आ जाती है और मुझ-जैसा साधारण आदमी इसी अचरच और उधेडबुन में पड़ा रह जाता है कि आखिर ऐसे अनशनों का सैद्धान्तिक आधार है क्या ?

ख़बर के अन्त में एक और पुछल्ला था जो मुझे अचरज में डाल गया। अन्त में यह बताया गया है कि अनशन करना प्रोफ़ेसर साहब के लिए कोई नयी बात नहीं है। वे पहले भी अनशन कर चुके हैं। तब स्थिति उलटी थी। उनका अपमान नहीं हुआ था, उन्होंने ख़ुद किसी पत्रकार का अपमान कर दिया था। प्रायश्चित्तस्वरूप उन्होंने एक दिन का अनशन किया था।
मेरे एक पत्रकार मित्र इस बात को पढ़कर उदास हो गये। बोले यह क्या बात कि पत्रकार के अपमान का प्रायशचित केवल एक दिन का उपवास है। पर मैं इस बात को पढ़कर दूसरे सोच में पड़ गया हूँ। इस गणित से प्रोफ़ेसर ने यह साबित किया कि दूसरे का अपमान करने पर आदमी के लिए केवल एक दिन का अनशन करना काफ़ी होता है। अब अगर दूतावासवालों का हृदय-परिवर्तन हो भी गया तो वे तो प्रोफ़ेसर साहब का अनुसरण कर दूसरे का अपमान करने के एवज़ में केवल एक दिन का उपवास कर फ़ुरसत पा जाएँगे मगर तबतक प्रोफेसरसाहब बेचारे को सात दिन का फ़ाका करना पड़ जाएगा !
मेरी सारी हमदर्दी प्रोफ़ेसर साहब के साथ है !
छपते-छपतेः कलकत्ता, 23 जनवरीः समाचार मिला है प्रोफेसर जे.बी.एस.हाल्डेन ने, जो एक सप्ताह से अनशन कर रहे थे, आज शाम को अपना अनशन समाप्त कर दिया।

रामायण :

बतर्ज़ मेरठ
(12 फ़रवरी 1961)

अभी उस दिन रामायण-मेला की योजना पढ़ रहा था तो देखा कि उसमें विभिन्न प्रान्तों और देशों के रामकथा के प्रतिनिधि विद्वान् बुलाए जाएँगे, पर यह देखकर जी बड़ा उदास हो गया कि उस लम्बी-चौड़ी सूची में अपने मेरठ शहर का कहीं नाम ही नहीं था। लोग समझते हैं कि मेरठ सिर्फ़ पिछली शताब्दी में ग़दर करके रह गया। जी नहीं ! उसने रामकथा के मामले में भी जो क्रान्तिकारी क़दम उठाया है उसकी आपको ख़बर ही नहीं। लोग मेरठ नाम से ही मुँह लटका लेते हैं कि वहाँ क्या हो सकता है। पर नहीं, कुछ हुआ और वहीं हुआ ! अब सुनिए क्या हुआ....
समाचार के अंश यथावत् पेश किये जा रहे हैं।
‘‘मेरठ क़ॉलेज में...यूनियन-सप्ताह प्रारम्भ हुआ। उसी दिन रात्रि को ‘आधुनिक रामायण’ नामक एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। ...स्टेज पर रामायण को प्रस्तुत करने के नाम पर राम-लक्ष्मण एवं सीता को...सिनेमा के ऐक्टरों और उनके गीतों से इस प्रकार ला घसीटा...
रामायण को छह भागों में विभाजित कर निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया है :

1.जब राम और लक्ष्मण विवाह के पूर्व जनकपुरी में जाते हैं तो राम से कहलाया गया, ‘यह शहर बड़ा अलबेला, हर तरफ़ हसीनों का मेला’। ‘मेरी जाँ मेरी जाँ, प्यार किसी से हो ही गया तो हम क्या करें।’ पुष्पवाटिका में सीता जी को देखकर जो भाव उन्हें इस प्रकार प्रकट कराया गया : ‘चौंदहवीं का चाँद हो या आफ़ताब हो, जो भी हो तुम...’
2.धनुषयज्ञ के समय (जयमाल राम के गले में पड़ जाने के बाद) लक्ष्मण जी ने गया : ‘मेरा यार बना है दूल्हा और फूल खिले हैं दिल के, मेरी भी शादी हो जाए दुआ करो सब मिल के।’ (पंचवटी में डराये-धमकाये जाने के बाद) शूर्पणखा लक्ष्मण से कहती है : ‘प्यार किया तो डरना क्या ! इश्क़ में जीना इश्क़ में मरना और हमें है करना क्या’ ?’’
समाचार लम्बा है मगर एक-एक स्थल पर एक-एक गीत मेरठ के जाँबाज़ बहादुरों ने ऐसे नगीने की तरह जड़ दिया है कि कुछ स्थलों को पेश करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा :
एक स्थिति : लक्ष्मण-रेखा के बाहर लंका के महाराज रावण जटाजूट बाँधे सीता को लुभा रहे हैं। गाना : ‘तेरे द्वार खड़ा भगवान, भगत भर दे रे झोली !’ (रावण जी का बाँकपन देखिए। अपने को भगवान् माना, सीता को भगत। मेरठ में रावण के प्रति काफी हमदर्दी दीखती है !)

दूसरी स्थिति : काव्य की उपेक्षिता विरहिणी उर्मिला बाल बिखरे। गाना : ‘छोड़ गये बालम, हाय अकेला छोड़ गये। दिल की लगी को कोई क्या जाने, मैं जानूँ या दिल ही जाने।’ (जानें क्यों उर्मिला जी ने ऐसा सोचा। उनके दिल की लगी तो महावीरप्रसाद द्विवेदी जी ने जान ली और उसके बाद कई कवियों ने जानी। मगर हाँ, इस रूप में सिर्फ़ मेरठवालों ने जानी।)
तीसरी स्थिति : अशोक-वाटिका में विटप-तले सीता जी। गाना : ‘भीगा-भीगा है समाँ, ऐसे में है तू कहाँ, मेरा दिल ये पुकारे आ जा !’ (अन्य पूछेंगे भीगा-भीगा समाँ तो तुलसीदास ने अशोकवन में नहीं दिखाया। दिखाते कैसे ? मेरठ कॉलेज में जुगराफ़िया तो पढ़ी नहीं थी, उन्होंने। कोलम्बो में कितना पानी बरसता है ! सोचिए। भीगा-भीगा समाँ नहीं होगा तो क्या रूखा-सूखा समाँ होगा !)
मैं तो मेरठ के इन नौजवानों की सूझ पर चकित हूँ। बम्बई में यह सब होता तो मुझे ज़रा आश्चर्य न होता। इस महानगरी में तो सांस्कृतिक प्रदर्शनों के नाम पर यह सब आये-दिन होता ही रहता है, मगर सोचता था कि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि में अभी सुरुचि और संस्कृति का बिरवा कुम्हलाया-मुरझाया सही, पर जीवित बचा रह गया है।

कुछ लोग तो केवल हँसकर ऐसी बातों को टाल जाएँगे, मगर ऐसी बातों पर क्रोध आना भी स्वाभाविक है। वे लोग तो इसको ‘रामायण का अपमान’ कहकर क्रोधित हुए, जिन्होंने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी, वे बिलकुल ठीक हैं। ऐसी प्रवृत्तियों को बिलकुल समाप्त कर देना चाहिए। लेकिन इनको समाप्त करने का रास्ता क्या है ? केवल ऐसे छिटपुट समारोहों के विरुद्ध आन्दोलन या जैसा विनोबा जी कर रहे हैं, कुछ कुरुचिपूर्ण पोस्टरों को भस्म करना ! क्या यह स्थायी इलाज है ? ये आयोजन या ये पोस्टर तो केवल रोग के बाहरी लक्षण हैं। रोग का मूल कारण नहीं पहचाना जाएगा तो एक लक्षण दबाने से दस और व्याधियाँ घेर लेंगी। आन्दोलन करनेवाले यह क्यों नहीं सोचते ?
फिर, क्या पढ़े-लिखे अनास्थावान् नौजवान छात्रों में ही यह प्रवृत्ति है। मान लिया कि सीता से फ़िल्मी गीत गवाना अनुचित है, मगर किसी क़स्बे में जाकर अखण्ड कीर्तन सुनिए : ‘मोहे छोड़ गये बालम’ की जगह आप सुनेंगे : ‘मोहे छोड़ गये मोहन, हाय अकेला छोड़ गये।’ या ‘कृश्नकानैया, छोड़ मोरी बहियाँ, हो गयी आधी रात, अऽबऽघर जाने देऽऽ।’ कीर्तन के नाम पर ये फ़िल्मी धुनें क्या धर्म का सम्मान हैं ? क्या ये कीर्तन पढ़े-लिखे अनास्थावान् छात्र ही करते हैं ?
हर समझदार आदमी अश्लील पोस्टरों के विरोध से भी पूर्णतया सहमत होगा। लेकिन ज़रा आप किसी पान की दूकान पर टँगे कैलेण्डरों पर नज़र डालिए, किसी मध्यवर्गीय परिवार के पूजाघर में टँगी तसवीरों पर निगाह डालिए। पार्वती जी तपस्या कर रही हैं मगर उनके सुन्दर सुडौल शरीर पर नाइलन का दुपट्टा होगा और नाखूनों पर नेल पेण्ट। सीता, पार्वती, राधा- एक से एक फ़िल्मी सज्जा और पोज़ में इन भड़कीले कैलेण्डरों और तसवीरों में मिल जाएँगी। क्या ये कैलेण्डर और तसवीरें सुरुचि और निर्वेद जगाती हैं ? क्या ये सारे सस्ते व्यावसायिक चित्रकार और उन्हें प्रश्रय देनेवाले धर्म का सम्मान कर रहे हैं ?

केवल सुरुचि के विरोध में आन्दोलन करना व्यर्थ साबित होगा, जब तक सामान्य जन को यह न बताया जाए कि सुरुचि और कलात्मकता क्या होती है ? मनुष्य की प्रवृत्ति तो जिधर दौड़ती आयी है, उधर ही दौड़ेगी ऊँची और गहरी कला उस प्रवृत्ति को संस्कार देती आयी है और वास्तविक लक्ष्य की ओर प्रेरित करती आयी है। धर्म ने जब-जब कला का आश्रय लिया तो जनता में पैठकर सुरुचि जगाता रहा। धर्म और कलात्मक सुरुचि हमारे देश में एक सूत्र में बँधे हुए थे। तभी वल्लभ के आन्दोलन ने सूर और नन्ददास पैदा किये, रामानन्द के आन्दोलन ने कबीर और तुलसी। आज एक सामान्य जन, चाहे वह किसी धर्म का क्यों न हो, उसके मन में धर्म की भावना जिस रूप में भी जीवित है, उसे कलात्मक सुरुचि देना; यही वास्तविक काम है। आन्दोलन करनेवाले गहरे पैठकर भारतीय जनता के मन की धर्म-भावना को कलात्मक सुरुचि देने का प्रयास नहीं करेंगे तो एक ओर से प्रवाह बाँध देने पर वह दूसरी ओर से फूटेगा। आप ‘छोड़ गये बालम’ का विरोध करेंगे तो वह ‘छोड़ गये मोहन’ होकर लाउडस्पीकरों में गूँजेगा और अश्लील पोस्टरों को फाड़िएगा, तो वे सीता, पार्वती, राधा के नाम पर फिर चिपका दिये जाएँगे।

इस ऊपरी समाधान के बजाय ज़रा धीरज, मेहनत और लगन से लोगों के मन में कलात्मक सुरुचि जगाने की कोशिश कीजिए तो देखिए कि कुरुचि कैसे काई की तरह फट जाती है और निर्मल जल निखर आता है।
बहुत दिनों पहले एक ऐसी ही स्थिति आयी थी हिन्दी के एक लेखक के सामने। वह गया था ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ का अभिनय देखने। कमर मटकाकर शकुन्तला ने गाना गाया तो वह आहत होकर उठ गया। उसके बाद उसने शपथ ली कि वह सुरुचिपूर्ण रंगमंच की स्थापना करेगा और दस-बारह वर्षों में उसने रंगमंच की एक नयी ज्योति जगा दी। वे थे भारतेन्दु हरिशचन्द्र। अगर वे केवल पारसी थियेटरों के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास करते या उनके तम्बू उखाड़ते घूमते तो क्या कुरुचि समाप्त हो जाती। धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में थोड़ा कष्ट सहकर भी जनता के अन्दर छिपे हुए कलाबोध पर विश्वास न खोना और उसमें सच्ची सौन्दर्य-दृष्टि और रुचि जगाना, यही एकमात्र रास्ता है।
इन गुमराह नौजवानों का ध्यान तो इस ओर नहीं है, पर दूसरों का ध्यान इधर क्यों नहीं है ? दूसरे केवल एक खण्डनात्मक आन्दोलन करके एक झूठे समाधान के पीछे क्यों भटकते हैं ? उससे क्या वे सीता या पार्वती या राधा या शकुन्तला को अपमान से बचा लेंगे ?

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