नारी विमर्श >> जनसंख्या समस्या के स्त्री पाठ के रास्ते जनसंख्या समस्या के स्त्री पाठ के रास्तेरवीन्द्र कुमार पाठक
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पुस्तक की स्पष्ट प्रतिपत्ति है कि जनसंख्या–समस्या और स्त्री–सशक्तीकरण में परस्पर व्युत्क्रमानुपाती सम्बन्ध है
जनाधिक्य की विकराल समस्या को स्त्री–दृष्टि से पढ़ने की यह कोशिश, स्त्री–समस्या के समग्र पाठ की दिशा में खड़ी है। लेखक ने जनसंख्या–विस्फोट के पीछे स्त्री के अबलाकरण की उस ऐतिहासिक–सांस्कृतिक–सामाजिक प्रक्रिया को पाया, जो उससे उसकी ‘देह’ छीनकर, उसे प्रजनन की घरेलू–बीमार मशीन बनने को अभिशप्त कर देती है। यह प्रक्रिया पितृसत्तात्मक है, अत% जनंसख्या–विमर्श का यह नया रास्ता पितृसत्ता के चरित्र का पर्दाफाश भी है जो स्त्री की बहुविध वंचनाओं–गुलामियों व पीड़ाओं का मूल स्रोत है। विवाह–संस्था और वेश्यावृत्ति, उसके दो हाथ हैं, जिनसे स्त्री को जकड़कर, वह उसे ‘व्यक्ति’ से ‘देह’ में तब्दील कर देती हैµजिससे उसके यौन–शोषण के रास्ते प्रजनन की बाध्यता पैदा होती है, जिसका खामियाजा स्त्री अपना सामाजिक जीवन, कैरियर, सम्मान आदि गँवाकर ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और अस्तित्व तक को गँवाकर भुगतती है। स्त्री माँ बनती नहीं, बनाई जाती है, क्योंकि मातृत्व–क्षमता और माँ बनने की इच्छा में फर्क है। प्रचलित आर्थिक दृष्टि से किए जा रहे जनसंख्या–विमर्श से अलग, यह कृति उस विमर्श की पितृपक्षीय सीमाओं को भलीभाँति रेखांकित करती है, जिसमें संस्कृति, समाज–गठन तथा वर्तमान विकास से जुड़े कई पुराने–नए मिथक ध्वस्त होते हैं। ‘माँ’ का महिमांमंडन वस्तुतः उसे देह–यन्त्रणा में धकेलने की साजिश का हिस्सा है, जिसका स्पष्टीकरण लेखक ने आँकड़ों की भाषा में प्रकट किया है। पुस्तक की स्पष्ट प्रतिपत्ति है कि जनसंख्या–समस्या और स्त्री–सशक्तीकरण में परस्पर व्युत्क्रमानुपाती सम्बन्ध है। यह समस्या पितृसत्ता की देन है, अतः इसके समुचित निवारण का अर्थ है पितृसत्ता का अवसान। इसी सार वस्तु को बेधक ढंग से प्रस्तुत करती है यह कृति, जिसकी भाषा पितृसता के प्रति आक्रोश से भरी है, क्योंकि स्त्री के प्रति संवेदनशील है। पाठकों को विचारोत्तेजित करना या हंगामा भर खड़ा करने के लिए नहीं, बल्कि उस सूरते–हालात को बयान करने और बदलने की कोशिश में ऐसा हुआ है, जिसका त्रासद परिणाम इस पुस्तक का जन्म है।
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