पीयूष पांडे का व्यंग्य लेखन एकदम नयी तरह का इसलिए नहीं है कि ये खुद नये हैं, बल्कि इसलिए नया है कि इनकी चेतना एकदम आधुनिक है। एकदम छोटे बच्चे भी पर्याप्त बूढ़े हो सकते हैं, चेतना के स्तर पर। और एकदम बूढ़े भी बच्चे हो सकते हैं चेतना के स्तर पर। पीयूष पांडे ने व्यंग्य के विषय तलाशे नहीं हैं, विषय उनके आसपास टहल रहे हैं। एसएमएस, फेसबुक, मजनूं से लेकर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था तक के विषय उनके व्यंग्य लेखन में हैं। विषयों की तलाश व्यंग्यकारों को परेशान करती है। पर पीयूष पांडे उस परेशानी से जूझते नहीं दिखते। जो भी विषय है, उस पर अपनी दृष्टि से लिखो, व्यंग्य हो जायेगा, वह इस सिद्धांत पर अमल करते हुए दिखते हैं। पर पीयूष पांडे के व्यंग्य की खास बात यह है कि वह व्यंग्य लेखों का इस्तेमाल सिर्फ हंसाने के लिए नहीं करते। इधर, व्यंग्यकारों की बहुत बड़ी फौज इस तरह के सिद्धांत पर काम कर रही है कि किसी भी गद्य में हंसने के चार छह मौके धर दो, व्यंग्य हो जायेगा। व्यंग्यकारों का एक बड़ा वर्ग इसके उलट यह भी मानता है कि व्यंग्य को हंसने हंसाने का काम तो करना ही नहीं चाहिए। पीयूष एक सीधे रास्ते पर चलते हैं। स्थितियों को जैसी हैं, वैसी हैं, उन्हंे पेश कर देते हैं। उनमें हंसी का स्कोप है, तो हंस लीजिये। पर बेवजह हंसाने की कोशिश नहीं है। मोबाइल, फेसबुक जैसी आसपास इतनी आधुनिक चीजें हैं कि खास तौर पर शिक्षित युवा इनसे मुक्त नहीं रह सकते। कई तरह की स्थितियां व्यंग्य बन रही हैं। एक तरह से देखें, तो पीयूष पांडे की यह किताब नये बनते व्यंग्य का आईना है। बदलती परिस्थितियों का आईना है, जो कि व्यंग्य को होना चाहिए। पीयूष खुद मीडिया से जुड़े हुए हैं, इसलिए मीडिया की आंतरिक परिस्थितियों को बखूबी समझते हैं। इस पुस्तक में मीडिया पर कुछ शानदार व्यंग्य लेख हैं। मीडिया कैसी मदारीगिरी में बिजी है, यह बात इस पुस्तक में बार बार सामने आती है। वास्तविक दुनिया में वर्चुअल दुनिया यानी आभासी दुनिया किस तरह से प्रवेश करती है, इस पुस्तक में बार बार दिखायी देता है। कुल मिलाकर कहें, तो यह नये जमाने के व्यंग्य की किताब है। जो कई तरह के नये मानकों का निर्माण करेगी। व्यंग्य के नये और पुराने छात्रों को इस किताब को पढ़ना चाहिए, ऐसी मेरी रिकमंडेशन है। इसे पढ़ना सब लोग रिजोल्यूशन बनायेंगे, ये मेरी शुभकामना है। - आलोक पुराणिक