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नारी विमर्श >> सब्ज तोरण के उस पार

सब्ज तोरण के उस पार

आशुतोष मुखोपाध्याय (अनुवाद श्रीमती ममता खरे)

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1339
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है बांग्ला उपन्यास का हिन्दी रुपान्तर....

Sabza Toran Ke Us Paar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पश्चिम बंगाल के उत्तरांचल में चाय बगानों के बीच बसे एक ऐसे प्रतिनिधि परिवार का, जिसकी धमनियों में हिन्दुस्तानी और अंग्रेजों के मिश्रित रक्त का संचार हो रहा है, इस उपन्यास में जीवन्त चित्रण किया गया है। शालजूड़ी के अंग्रेज़ी स्कूल की प्राध्यापिका शइला (शीला) के मां-बाप का आपस का जीवन सन्देहों और तनाव से भरा है, स्वयं शइला को भी अपनी किशोरवस्था से कितने ही उतार-चढ़ाव देखने-झेलने पड़े हैं। युवावस्था में विवाह से पहले ही अपने युवा साथी से ठगी जाने से वह अपना हर कद़म बड़ा सावधानी से रखकर बढ़ना चाहती है और अन्त में जिसे वह अपना जीवन-साथी बनाती है, वहाँ तो वह सन्देहों के एक और विशाल चक्रव्यूह में उलझ जाती है जहाँ से उसे निकलने का कोई रास्ता भी नहीं सूझता।

शइला का अपना अहं है, उसके अपने कुछ उसूल हैं जिन्हें वह निरन्तर पोसती है, भले ही इसका दण्ड स्कूल में पढ़ रहे उसके नन्हे से बालक को ही क्यों न भुगतना पड़े।
कथोपकथन की शैली इतनी सुन्दर, सहज और रोचक है कि पाठक अन्त तक बराबर उससे बँधा रहता है। ऐसा चित्रण आशुतोष की लेखनी से ही सम्भव था।

समर्पित है हिन्दी-जगत् के पाठकों को ज्ञानपीठ की ‘भारतीय उपन्यासकार’ श्रृंखला में प्रकाशित एक सुन्दर निर्मित-एक अनुपम भेंट।

प्रस्तुति

भारतीय ज्ञानपीठ ने सदा भारतीय साहित्य में एक सेतु की सक्रिय भूमिका निभायी है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की असाधारण सफलता का मुख्य कारण यही है। भारतीय भाषाओं में से चुने हुए किसी शीर्षक साहित्यकार को प्रतिवर्ष दिये जाने वाले पुरस्कार का अनूठापन इसमें है कि यह भारतीय साहित्य के मानदण्ड स्थापित करता है। ज्ञानपीठ इन चुने हुए साहित्यकारों की कलाजयी कृतियों का हिन्दी (और कभी-कभी अन्य भाषाओं में भी) अनुवाद पुरस्कार की स्थापना के समय से ही साहित्यानुरागियों को समर्पित करता आ रहा है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के अन्य साहित्य-मनीषियों का हिन्दी अनुवाद के माध्यम से उनकी भाषायी सीमाओं के बाहर परिचय कराने ज्ञानपीठ एक अतयन्त महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दायित्व निभा रहा है। इस साहित्यक अनुष्ठान को अधिक प्रभावी बनाने के लिए ज्ञानपीठ विभिन्न साहित्यिक विधाओं की उत्कृष्ट कृतियाँ भी ‘भारतीय कवि’ ‘भारतीय कहानीकार’ ‘भारतीय उपन्यासकार’ आदि श्रृंखलाओं के रूप में प्रकाशित कर रहा है। प्रत्येक विधा के सभी अग्रणी लेखकों की कृतियाँ या संकलन इस योजना में सम्मिलित किये जाते हैं।

 हमारा अनुभव है कि किसी भी साहित्यिक (या अन्य भी) रचना का हिन्दी में अनुवाद हो जाने पर उसका अन्य भाषाओं में अनुवाद सुविधाजनक हो जाता है। इनके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के नये और नवोदित लेखकों को उनकी भाषा-परिधि के बाहर लाने में भी हम सक्रिय हैं। हमारा विश्वास है कि ये सभी प्रयत्न आधुनिक हिन्दी साहित्य की मूल संवेदना उजागर करने में सार्थक होंगे।

‘भारतीय उपन्यासकार’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित प्रस्तुत उपन्यास ‘सब्ज़ तोरण के उस पार’ के लेखक आशुतोष मुखोपाध्याय बांग्ला साहित्य के अग्रणी लेखकों में एक हस्ताक्षर रहे हैं। उनकी सशक्त लेखनी ने वर्षों तक बांग्ला साहित्य-प्रेमियों को मन्त्रमुग्ध किया है। उन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग 150 उपन्यास एवं कहानी-संग्रह बांग्ला के प्रिय पाठकों को दिए है। बाल-साहित्य की भी अनेक रचनाएं हैं।

प्रस्तुत कृति के सरल-सुन्दर हिन्दी अनुवाद के लिए हम श्रीमती ममता खरे के हृदय से आभारी हैं। आकर्षक आवरण-शिल्प के लिए पुष्पकणा मुखर्जी का साधुवाद। पाण्डुलिपी संशोधन, मुद्रण, प्रकाशन आदि में हमारे सहयोगी डा. गुलाबचन्द्र जैन ने अपने दायित्व का भलीभाँति निर्वाह किया है।
समर्पित है हिन्दी जगत् के पाठकों को यह एक और नयी कृति-एक अनुपम भेंट

र. श. केलेकर, सचिव

कथाशिल्पी आशुतोष


‘आशुतोष मुखोपाध्याय’ – यह एक नाम था बांग्ला साहित्य के प्रतिष्ठित लेखकों के बीच चमकता,  उज्जवल और ध्रुवतारा- जैसा, अपनी जगह पर अचल-अटल।

वर्षों तक इस ध्रुवतारे ने अपनी सशक्त लेखनी द्वारा बंगाल के साहित्य-प्रेमियों को, उत्साही पाठकों को मन्त्रमुग्ध कर रखा था। उनके उपन्यासों की मज़बूत और ठोस बुनाई किसी बूनकर की बुनाई से काम नहीं है। मोटे-मोटे उपन्यासों को भी लेकर अगर पाठक बैठ गया तो समाप्त किये बगैर उठ ही नहीं सकती थी। ऐसी है उनकी शैली। उनकी सहज सरल भाषा, हास्योच्छल कथाशैली, भाव व्यक्त करने का अपना ढंग, कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उनकी लेखनी में जो कथानक की पकड़ है वह अद्वितीय है। कहानी हो या उपन्यास, कथा का विकास इस सुन्दरता से सहज और स्वाभाविक ढंग से होता है कि पाठक को पता ही नहीं चल पाता कि कब वह उपन्यास के अन्तिम पृष्ठ को पहले पढ़ने लग गया  है। उनकी कथावाचक की शैली इतनी रोचक रही है कि पाठक बँध-सा जाता है। कथोपकथन के माध्यम से कहानी को पढ़ने में आशुतोष मुखोपाध्याय अत्यन्त पटु थे।

उनकी शैली की एकल बड़ी विशेषता यह है कि पाठक को ऐसा लगने लगता है कि इस उपन्यास के समस्त पात्र आज भी जीवित हैं। अन्तिम वर्षों में लिखा उनका दो भागों में प्रकाशित उपन्यास ‘सेई अजनार खोजे’ (हिन्दी अनुवाद शीघ्र प्रकाशित होने वाला है) ने तो तहलका ही मचा दिया था। इस उपन्यास के प्रथम खण्ड के प्रकाशित होते ही लेखक को रोज ढेर सारे पत्र मिलने लगे। सभी पत्रों में उनसे ‘अवधूत जी’ और उनकी पत्नी ‘कल्याणी माँ’ का पता पूछा जाता। कुछ लोग तो उपन्यास में दिये गाँव के नाम के भरोसे वहाँ तक पहुँच गये और पूछताछ कर हताश होकर लौट आये। यह तो उन्हें बाद में स्पष्ट हुआ कि अवधूत और कल्याणी को लेखक की कल्पना-शक्ति की सृष्टि हैं।

तीन हज़ार से अधिक पाठकों के पत्रों ने आशुतोष का दूसरा भाग लिखने को बाध्य किया जिनमें उन्होंने अवधूत और कल्याणी को हिमालय चोटी की ओर रवाना करवा दिया।
इसी तरह उनका उपन्यास ‘हीर मंज़िल’ भी जिसने पढ़ा उसे यही लगा कि इलाहाबाद में जमुना के किनारे एक विशाल अहाते में माता जी का निवास है। वहाँ कोई हताश नहीं लौटता है। पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है।
 हीर मंज़िल के रूप में जमुना के किनारे जिस मकान की ओर ध्यान जाता है वहाँ वास्तव में शहर के एक धनी परिवार का दो पुश्तों से निवास है। उससे भी अद्भुत बात यह है कि आशुतोष मुख्योपाध्याय कभी इलाहाबाद आये ही नहीं। किसी मित्र के मुँह के इलाहाबाद का वर्णन सुनकर उन्होंने अपने उपन्यास की पृष्ठभूमि के लिए नगर का चुनाव किया था।

‘सोनार काटी रूपार काटी’ का बहन जी को क्या कोई भूल सकता है ? उन्होंने स्कूल अस्पताल अनाथलय, विधावाश्रम और न जाने क्या-क्या नहीं खुलवा रखा है ? दिन-रात रोगियों की सेवा करना, दान-पुण्य करना और सबकी भलाई के लिए भगवान से प्रार्थना करने वाली यह बहनजी आठ साल से अपने अपाहिज पति से मिली नहीं। क्यों ?  किस पाप की सजा दे रहीं थीं ? सारी दुनिया से छिपे एक आश्रम में बन्दी –सा जीवन जीने वाले सुधीर का अपराध क्या है ? एक कोमल हृदय असहाय नारी इतनी कठोर निर्मम क्यों हो गयी ? छोटी बहन प्रमिला की उद्दंडता और मन मानेपन की सज़ा भोगता सुधीर पल-पल मर रहा था, फिर भी कभी उर्मिला और आज की बहन जी का हृदय पसीजा नहीं।

इस उपन्यास का मुखिया, इस कहानी के ज़मीदार, उनकी पत्नी, और दो बेटियों के जो चरित्र उभरकर सामने आये हैं उनमें कोई समानता नहीं है। मुखिया, ज़मीदार तथा ज़मीदार की छोटी बेटी प्रमिला बदले की भावना से इस क़दर उद्वेलित थे कि उन्हें यह ख़याल नहीं रहा कि उनके अन्दर की राक्षसी प्रकृति उन्हीं की सन्तानों का सर्वनाश कर देगी। प्रमिला को अपनी बहन से कोई लगाव नहीं था क्योंकि उसने माँ जैसा कोमल प्यार भरा हृदय पाया था। माँ ने जब पति के हिंसक तथा अत्याचारपूर्ण कारनामों से तंग आकर रानी-मंज़िल में जाकर रहना शुरू कर दिया, उन्हीं की छोटी बेटी उन्हें कभी क्षमा न कर सकी। पिता की आत्माहत्या का बदला लेने के लिए बरसों उसने अपने बहनोई को घर की चहरदीवारी में क़ैद रखा और बहन से ईर्ष्या करती रही। दूसरी ओर वफ़ादार सेवकों का भी अभाव नहीं है इस अनोखे कहानी में। बहनजी के एक इशारे पर जान देने वालों का सुन्दर चित्रण केवल एक सशक्त लेखनी द्वारा ही सम्भव है।

1978 के अप्रैल में प्रकाशित उनका उपन्यास ‘आनन्दरूप’ ने पाठकों के हृदय को इतना छुआ कि आँखें डबडबा आतीं। क्या उनके पाठक जानते हैं कि उनकी अधिकांश रचनाओं के पात्र उनका परिवार रहा है। उनका अस्वस्थ पुत्र उनकी शान्त-धीर स्वभाव की पत्नी और पुत्री तथा वे स्वयं ? उनके पुत्र को असाध्य रोग था। डाक्टरों ने जवाब दिया था। ऐसी दशा में धर्म देवी-देवता ही दुःखते हृदय पर सान्त्वना का प्रलेप करते हैं। जिसने जिस देवी-देवता की, जिस किसी ऋषि-मुनि की बात की, वे परिवार सहित वहीं दौड़े गये। ‘आनन्दरूप’ उपन्यास के प्रारम्भ में ही है कि सभी कन्याकुमारी जा रहे हैं।

इस उपन्यास में गाँधी-मंडप का सुन्दर वर्णन है। वर्णन है कन्याकुमारी के मन्दिर का। लेकिन जो उपन्यास का असली पात्र है, वह है आनन्दरूप ब्रह्मचारी। आनन्दरूप अपने आपसे भागता फिर रहा है। ममता, प्रेम से भरा-पूरा हृदय, किन्तु अपने आपसे जूझने की शक्ति नहीं। लेखक ने उसका यही रूप उसके सामने उजागर किया है। आनन्द का उनके  पूरे परिवार के साथ जुड़ जाना क्या पाठक के प्रेम में यह भ्रम उत्पन्न नहीं कर देता है कि आनन्दरूप कोई एक ब्रह्मचारी था ?  

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