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अधूरा कोई नहीं

आर अनुराधा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13385
आईएसबीएन :9788183616560

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इन कविताओं के आस्वाद के लिए जरूरी है कि इन्हें कलावादी आग्रहों के जंजाल से बहार निकलकर संवेदनशीलता से पढ़ा जाए

यह 1998 का साल था, जब आर. अनुराधा को पता चला कि उन्हें स्तन कैंसर है। उन दिनों कैंसर आज के मुकाबले कहीं ज्यादा डरावना था। लेकिन अनुराधा ने बड़े होसले के साथ इस बीमारी का सामना किया। हँसते हुए, घूमते हुए, दोस्तों से फ़ोन पर बतियाते हुए, पढ़ते हुए, लिखते हुए, इन सबके बीच कीमोथेरेपी के कई यंत्रणादायी दौर झेलते हुए, अपने बाल झड़ते देखते हुए, अपनी प्रतिरोधी क्षमता कमजोर पड़ती महसूस करते हुए। सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी के बाद अंततः वे इन सबसे उबरी। लेकिन इस दौर में हासिल अनुभव पर उन्होंने एक किताब लिखी-इन्द्रधनुष के पीछे-पीछे : एक कैंसर विजेता की डायरी। 2005 के शुरू में जामिया मिल्लिया के कुछ छात्रों ने अनुराधा पर एक फिल्म बनाई-भोर। पूरी फिल्म में अनुराधा की आवाज के अलावा कोई वाइज ओवर नहीं है। फिल्म में अनुराधा बताती हैं-कैंसर के खिलाफ जंग में शरीर एक मैदान होता है, लेकिन यह लड़ाई बहुत सारे लोगों की मदद से जीती जाती है। घर-परिवार, दोस्त-रिश्तेदार इस युद्ध में जरूरी रसद पहुँचाने का काम करते हैं। जब यह फिल्म बन ही रही थी कि अनुराधा को दुबारा कैंसर ने घेर लिया। फिर वही कीमोथेरेपी, सर्जरी, रेडियोथेरेपी वही सब कुछ और वही हिम्मत-अनुराधा ने इस दौरान भी फिल्म शूट करने की इजाजत दी। जैसा कि दोस्तों को भरोसा था, अनुराधा यह जंग भी जीतकर निकलीं। इस दौरान उन्होंने कैंसर के दर के खिलाफ एक पूरी लड़ाई छेड़ी। कैंसर की जड़ मैं आई दूसरी महिलाओं से जूडी, यह समझती रही कि कैंसर से लड़ा जा सकता है और बताती रहीं कि कैसे लड़ा जा सकता है। यह लड़ाई अब भी जारी है। साल 2012 में अनुराधा को फिर से कैंसर ने घेर लिया इस बार उसने उनकी हड्डियों पर हमला किया है। हमेशा की तरह अनुराधा लड़ रही हैं, हमेश की तरह, मैं जानता हूँ, वे जीतेंगी। नई खबर यह है कि उस बार उन्होंने बहुत सारी कविताएँ लिखी हैं। मैं कतई नहीं चाहूँगा कि आप इन कविताओं को किसी सहानुभूति के साथ पढ़े। अनुराधा को ऐसी सहानुभूति नहीं चाहिए। वह कैंसर से लड़ रही हैं, लेकिन बीमार नहीं हैं। वह हममें से कई लोंगों से ज्यादा स्वस्थ और मजबूत हैं। हाँ, इन कविताओं के आस्वाद के लिए जरूरी है कि इन्हें कलावादी आग्रहों के जंजाल से बहार निकलकर संवेदनशीलता से पढ़ा जाए। वैसे भी ये सिर्फ निजी तकलीफ की कविताएँ नहीं हैं, ये दर्द और मृत्यु के विरुद्ध साझा युद्ध की कविताएँ हैं।

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