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उत्तर सन्धान

सुनील गंगोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :213
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1331
आईएसबीएन :00000

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बहुचर्चित बांग्ला कृति धूलिबसन का हिन्दी रूपान्तर

Uttar Sandhan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बांग्ला भाषा के प्रतिष्ठित आधुनिक रचनाकारों में श्री सुनील गंगोपाध्याय का नाम हिन्दी के सजग पाठकों के लिए अपरिचित नहीं है। उनका यह उपन्यास उत्तर सन्धान उनकी बहुचर्चित बांग्ला कृति धूलिबसन का हिन्दी रूपान्तर है। उत्तर सन्धान एक ऐसे प्रौढ़ नारी-मन के भीतर की कसमाहट और हाहाकार की कथा है जिसमें अजब किस्म का आकर्षण,बेचैनी और तनाव है। इस उपन्यास की नायिका मन्दिरा के रूप में सुनील जी ने निस्संदेह एक अद्भुत चरित्र की सृष्टि की है। एक ऐसा चरित्र जो अपने लिए गहरे आत्मिक संकट का ताना-बाना बुनकर स्वयं एक अलग निस्संग जीवन जीने का चुनाव करता है। सवाल उठता है कि आखिर वह कौन सा संकट है जो किसी मध्यवयस्क नारी-मन को उसके अभ्यस्त जीवन से छिन्नमूल कर देता है ? प्रश्न यह भी है कि जैसा भी जो भी वास्तविक जीवन होता है उसके समान्तर चलने वाले पराजित मगर संवेदना के स्तर पर सक्रिय मन का जीवन भी महत्वपूर्ण है य नहीं आखिर हारे हुए जीवन के संवेदनशील बने रहने की सार्थकता भी कितनी है क्या मन्दिरा सरीखा चारित्रिक द्वैत सम्भव है....-दरअसल एक तीव्र कौतूहल और अनन्य आकांक्षाओं के बीच जीवन के गहरे जटिल प्रश्नों के उत्तर तलाशता है यह उपन्यास उत्तर सन्धान।

एक

सूखे पत्तों को धूल में मिलाती गाड़ी उस ओर ही आ रही थी। यहाँ ऐसा नहीं होता। ऐसा यानी कि गाड़ी का आना-जाना। कभी कोई टुनटुनाता रिक्शा गुजर जाए तो वही बहुत।
वह जँगले पर खड़ी बाहर की गहरी नीरवता और अपने भीतर के विराट सूनेपन के साथ सामंजस्य बना रही थी।
गाड़ी के आते हुए शोर से उसे लगा, आगत के हृदय में हाहाकार था, जिसकी वजह से वह न रास्ते में पड़ते फूल-पत्तों के कुचल जाने की परवाह कर रहा था, न उछलती-कूदती गाड़ी के इधर-उधर उलट-पुलट जाने का। उस पर किसी तरह का दबाव पड़ रहा था बस, मंजिल तक जल्द से जल्द पहुँचने को तत्पर।
धूल के साथ सूरज की लालिमा से आकाश भी ललछौंहा हो उठा था। मन्दिरा उस वक्त सूरज के अब डूबने तब डूबने के इन्तजार में झरोखे पर खड़ी आकाश की ओर एकटक निहार रही थी। जितनी दूर दृष्टि जाती थी, सीमाहीन आदिगन्त आकाश शान्त और ध्यानस्थ-सा नजर आ रहा था। और ठीक इसी तरह रात भी जैसे ठहरी हुई थी।
सन्ध्या और रात की इस मिलन-वेला पर झरोखे से लगी टेबल पर बैठकर लिखना-पढ़ना उसे घोर अपराध-सा लगता था।
झरोखे पर लगी महीन जाली मच्छरों को भीतर आने से भले न रोक पाती हो लेकिन दूसरे जीव-जन्तुओं का ‘प्रवेश निषेध’ जरूर हो जाता था।

सुनसान जगह में अकेली निवास करनेवाली निर्भीक मन्दिरा दत्त मेढकों से बहुत डरती थी और यह बेजान लोहे की जाली मेंढकों के फुदककर भीतर चले आने के भय से उसे मुक्त करती थी।
मन्दिरा जब पहले-पहल इस गाँव में आयी थी, तब ‘सावन गगने घोर घन घटा’ का मौसम और ‘वृष्टि पड़े टापुर टुपुर’ का धीमा-धीमा संगीत मानो धरती से फूट रहा था। लेकिन वर्षा की फुहार में मेंढकों को मस्ती से इधर-उधर फुदकते देखा तो मन्दिरा के हृदय से रवि बाबू का गीत इसी डर के मारे भाप बनकर उड़ गया। जैसे मेंढक नहीं, साँप दीख पड़ा हो। और इसके साथ ही भयहारिणी कष्टतारिणी माँ चण्डी का पाठ प्रारम्भ। इस लोह-जाल के पहरन से मन्दिरा सन्तुष्ट। नन्ही बालिका-सी उन्मुक्त और भयमुक्त।

इस खिड़की से कुछ दूर ही पेड़-पौधे दिखते रहते थे और इन्हीं पौधों के साथ बंगाल की सीमा की पहचान जुड़ी थी। छोटे-छोटे पुकुर। पग-पग पर बिछे नन्हें-नन्हें पोखर।
इन पेड़ों के बीच एक नन्हा-सा पोखर भी था जिस पर कभी-कभी चाँद अपना पूरा खिला हुआ चेहरा निहारने पानी पर तिर आता था और कभी सूरज अपनी तेज धूप के साथ हीरे की तरह झिलमिलाकर उसे अलंकृत कर देता था।
प्रकृति से मन्दिरा का अटूट रिश्ता था। उसे निहारते चले जाने में, उसमें डूबने में कभी थकती नहीं थी। जीवन्त उत्साह-भरा था उसका वह नाता। प्रकृति के चहचहाते परिन्दों से जितना प्यार था उतना ही पृथ्वी पर रेंगते, फुदकते, चलते जानवरों से भय।

अब यही पिछले महीने की ही तो बात है, चारपाई पर चुपचाप लेटी वह किताब पढ़ने में डूबी हुई थी कि तलाब में छपाक से कुछ गिरने की आवाज मन्दिरा के कानों को चीरती हुई दिल की धड़कनों तक पहुँच गयी। मन्दिरा ने साथ-साथ चण्डी-पाठ शुरू कर दिया और माँ काली से मिन्नतें माँगने लगी। लेकिन माँ काली की ऐसी भयभीत भक्तिन से मिले हुए चढ़ावों को रोकने वाला नास्तिक भी उसी भक्त के घर में मौजूद था।
मन्दिरा के घर काम करनेवाली नौकरानी ने नेपथ्य से बाहर आकर किसी सूत्रधार की तरह भक्त को बताया कि वह आवाज पके नारियल के तालाब में गिरने की वजह से हुई थी।
इस बात की याद आते ही मन्दिरा आज भी हँसती और हँसी-हँसी में प्राण बचने पर हर बार, देवी को हाथ जोड़ नमस्कार करना कभी नहीं भूलती।

तालाब के किनारे दो-चार नारियल के पेड़ तने खड़े थे-उनके पके फल नीचे गिरेंगे, यह बात मन्दिरा जानती थी और खूब समझती भी थी लेकिन फिर भी आश्चर्य करती थी अपने इस अर्थहीन भय पर।
राजनीति शास्त्र की मेधावी छात्रा के लिए किसी ढीठ मेंढक के कमरे में फुदककर आने और सहज ही तालाब में पके ताड़ के फल के गिर जाने पर डर जाना एक अनहोनी बात ही तो थी। बड़ी रोमांचक और बेहद चौंकाने वाली घटना। यानी मन्दिरा के जीवन में अभी भी उसे अवाक् कर देने वाली घटनाएँ शेष थीं-शायद भविष्य में...वह सिहर उठी। भविष्य की चिन्ता उसने कभी नहीं की लेकिन ऐसे पल वह सोचने को लाचार हो जाती थी। जाने-अनजाने अकारण...बस यूँ ही।
कारण-अकारण हो लेकिन विस्मयबोध ही मनुष्य के जीवन से धुल-पुँछ जाए तो जीवन-नीरस निपट प्रपंच, निरा आडम्बर न रह जाए।
खामोश रात में चाँद को तालाब की छाती पर मचलते देख मन्दिरा को लगा जैसे तालाब का ठहरा पानी चाँद से कह रहा हो...‘‘छू दो न मेरा मर्मान्तक एकान्त-जो सिर्फ तुम्हारे लिए-सिर्फ तुम्हारे ही लिए है।’’....
मन्दिरा के जी में आया, वह अपनी अँजुरी फैलाये और चाँदनी को उसमें भर ले, जिससे उसकी हथेली की रेखाओं के चुभते कोणों की उभरन को मिटा सके। ऐसा होता है क्या ? कहाँ होता है ऐसा, खास करके जब जीवन में डूबते सूरज का आभास अभी भी शेष हो ? तब तो वहाँ हर एहसास पर धुँधलका-सा बिछा रहता है-मटमैली रेत-सा।

उसी तलाब की दूसरी तरफ एक पक्का मकान अपनी टूटी-फूटी हालत में अभी भी खड़ा था। वहाँ के रईस जमींदार ने निजी शौक की वजह से वह मकान बनवाया था। और अब इस मकान का कोई भी उत्तराधिकारी शेष नहीं रहा।
इस मकान की पहली मंजिल पर एक परिवार रहता था और दूसरी मंजिल की दीवार ऊँचे पेड़ की एक भारी-भरकम मोटी डाल के भीतर झुकने से चटख गयी थी। बिना दीवार के इस तल्ले में चमगादड़ का कुनबा निवास करता था। सिर्फ टूटी दीवार ही लोगों के न रहने का कारण नहीं थी। किसी वहम की तरह अफवाह-सी गाँव में फैली हुई थी कि उस जगह कभी-कभी बच्चे के रोने की आवाज भी सुनाई पड़ जाती थी।

मन्दिरा जमींदार के बारे में कुछ नहीं जानती-जानने की इच्छुक या उत्सुक भी नहीं। लेकिन इतना जरूर जान-समझ सकती थी कि इस मकान का सम्बन्ध किसी लाहिड़ी परिवार से था-वरना उसे ‘लाहिड़ी बाड़ी’ के नाम से क्यों पुकारा जाता। सुनने में आता था कि कलकत्ता का कोई मारवाड़ी आसामी इस मकान को खरीदना चाहता था। उसका इसमें शीशी-बोतल का एक कारखाना खोलने का इरादा था। तो क्या उसी खरीदकार का आदमी या कहीं वही मारवाड़ी इतनी रात गये उस मकान को देखने तो नहीं आ रहा ?
रात ! हाँ, रात के पौने दस की घड़ी गाँव में रात ही कहलाती है। शहरों में या विदेश में तो इस वेला को शाम का ढलना ही कहते हैं।
मन्दिरा को समय का बड़ा खयाल रहता है। पार्थिव जीवन सीमाबद्ध है न-इसलिए समय के हिसाब के साथ जीवन जीना उसे जरूरी लगता है और इस जरूरत की वजह से ही उसकी मेज पर एक छोटी-सी टाइम पीस अपनी टिक-टिक की आवाज से, उस एकान्त स्थान में समय की गति बताती रहती थी। मन्दिरा ने अपना सारा काम इसी आवाज के साथ बाँट रखा था।

गाँव के जिस एकान्त स्थल को अपने रहने के लिए चुना था, वहाँ इस घड़ी के साथ वह, उसका कमरा, कमरे में एक कोने में पड़ी चारपाई, चारपाई के नीचे बेंत की टोकरी में रखी चन्द किताबें और यह टेबल। बाहर से अलमारी या रैक बनवाकर उस कमरे की अपनी पहचान को मिटाना नहीं चाहती थी। कपड़े थे जो खूँटी पर टँगे रहते थे। थे भी कितने, वही ज्यादा से ज्यादा तीन-चार जोड़े।
मन्दिरा जानती थी कि टॉमस के अतुल ऐश्वर्य के गर्व/दम्भ/दर्प के आगे उसके इस...एकान्तवास का अभिमान वहाँ के लोगों की नजर में तुच्छ होगा-फीका...डिसटेस्टफुल, बिलो-स्टैण्डर्ड।
मन्दिरा उसी स्टैण्डर्ड के बनावटी रहन-सहन से ऊबकर भीड़ से कटकर इस तरह अनासक्त हो गयी थी और अकेली जीने की इच्छा का चुनाव उसी वजह से तो किया था। उस चुनाव से मिली उपलब्धि उसके अकेलेपन की उपज थी।
आज इस एकान्त में वह जब कभी टॉमस के प्रति सोचती है तो उसे दया आती है। छोटी-छोटी बातों से हारा टॉमस ब्रुक, अपने अभिमान की गरिमा तले कितनी बड़ी उपलब्धि की आशा में दौड़ता भागता पिसता चला जा रहा था। कोल्हू के बैल की तरह।
और यह एक मन्दिरा दत्त है जो अपने निर्णय की कीमतों को चुकाते हुए भी एक यात्रा के बाद जहाँ पहुँची है, वहाँ उपलब्धि के सुख हैं-सुख के क्षण हैं जिनका, ऐश्वर्य नितान्त उसका अपना था। वही निर्माता, वही भोक्ता।
उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी मोहभंग ! वह समझ गयी थी कि इन्सान तब तक जीना नहीं सीखता जब तक वह कहीं किसी से मोह पाले रखता है। और मन्दिरा तमाम मोह से परे आ चुकी थी। अनासक्त होकर जीना सीख गयी थी।
गाड़ी इधर ही आ रही थी ! चालक शायद लाहिड़ी बाड़ी की ओर जानेवाली सकरी-सी पगडण्डी देख नहीं पाया होगा। ऐसा कई बार होता है, रात के इस अँधेरे में इस चालक के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा।
मन्दिरा को नींद देर से आती है। सोने से पहले किताब पढ़ने की आदत आज भी ज्यों की त्यों बरकरार थी। हाँ, सिगरेट पीने का नशा, जो विलायत में लग गया था, उसे उसने अपनी आत्म-शक्ति के जोर से बहुत कम कर दिया था। चालीस सिगरेटों से सिर्फ तीन सिगरेटों पर आ जाना किसी मुठभेड़ के बाद ही सम्भव था। मन्दिरा के लिए असम्भव कुछ नहीं।
मन्दिरा की तीसरी सिगरेट का समय रात ग्यारह बजे के लगभग होता था। किताब पढ़ते-पढ़ते भीतर ही भीतर सिगरेट की तलब सितार की झंकार की तरह झनझनाने लगती थी। एक आखिरी अन्तिम सिगरेट अभी पीनी है!.... लास्ट सिगरेट...लास्ट....लास्ट... ‘ओनली लास्ट वन’ सितार की टुन-टुन की तरह बजती हुई।

इसमें अब कोई शक नहीं कि गाड़ी अपने रास्ते से भटककर यहाँ आ रही थी। मन्दिरा दत्त विलायत में इतनी गाड़ियाँ चला चुकी थी कि गाड़ी कि आवाज से समझ जाती थी कि गाड़ी कितने सिलेण्डर की है। यह गाड़ी अम्बेसडर थी।
मन्दिरा के घर के गेट के बाहर ही गाड़ी का इंजन बन्द हुआ। हैडलाइट बन्द हुई, दरवाजा खुला और फिर बन्द हुआ। कोई उतरा। एक नहीं, दो।
आती हुई गाड़ी के साथ गाँव के भोले-भोले लोग भी इधर-उधर से दौड़कर उधर इकट्ठे हो चुके थे। एक जिज्ञासा यह थी कि इतनी रात गये मन्दिरा के यहाँ कौन आ सकता था ! दूसरी उस कारखाने के प्रति जिज्ञासा। इसमें से कइयों को नौकरी मिलने की सम्भावना थी।
मन्दिरा में जिज्ञासा थी ‘लाहिड़ी बाड़ी’ क्या सचमुच बिक गयी ? पुरानी कोठी थी तो क्या, टूटी-फूटी थी तो क्या, उसके पुरानेपन में ही तो उसके अतीत की पहचान शेष थी। लोहे का बड़ा-सा फाटक जिसके दोनों तरफ लौह सिंह तैनात। नया कुछ बनाने के लिए आखिर पुराने को मिटाना जरूरी क्यों हो जाता है ?

मन्दिरा सोच में मग्न थी कि तभी पास के दरवाजे से शान्ति ने आकर कहा, ‘‘दीदी, तुमसे कोई मिलने आया है।’’
शान्ति की उम्र यही कोई सोलह-सत्रह की रही होगी। वैसे शान्ति को अपनी उम्र खुद ही नहीं पता थी- जवानी आने से पहले जो लुनाई एक लड़की के चेहरे पर आती है, वह शान्ति के चेहरे पर आ चुकी थी। बस इसी से मन्दिरा ने उम्र का हिसाब लगा लिया।
मन्दिरा ने अविश्वास के स्वर में पूछा, ‘‘मुझसे मिलने ?’’
‘‘हाँ दीदी, वह तुम्हारा ही नाम ले रहा है।’’ शान्ति ने चेहरा झुकाये ही उत्तर दिया।
मन्दिरा ने अपना बिखरा आँचल ठीक किया। चप्पल पहनकर बाहर की ओर निकल पड़ने को तैयार। आदतन चलने से पहले टिशु पेपर से अपना चेहरा पोंछना नहीं भूली।
दिन की आयु शेष होते-होते हल्की-हल्की बूँदा-बूँदी के साथ आँधी का झोंका भी आया था। टिशु पेपर के एक टुकड़े ने मानों आँधी के प्रभाव को चेहरे से पोंछ डाला था। शेष रह गयी वर्षा के बाद की गन्ध।
मकान के अहाते में, क्यारियों में रात की रानी और जवाकुसुम खिले हुए थे। मकान के बेड़े के बाहर लोग आपस में खुसर-पुसर कर रहे थे। वहीं खड़ा था गाड़ी से उतरा पुरूष।
मन्दिरा ने पूछा, ‘‘कौन !’’
पुरुष चुप रहा।
शान्ति से लालटेन लेकर हाथ में ऊँचा उठाते हुए मन्दिरा बरामदे से नीचे उतर आयी।
एक आदमी अधेड़ उम्र का। गठा शरीर। काले बालों में झाँकते सफेद बाल। सूटेड-बूटेड टाई पहने। पुरुष मन्दिरा को अपलक देखता जा रहा था। उस चेहरे को देख मन्दिरा को लगा विवेकानन्द की मुद्रा में खड़ी माटी की एक मूर्ति है।
मन्दिरा भी कुछ पल स्तब्ध, चकित, खामोश खड़ी रही। अतीत की श्रृंखला से गुजरती। एक मोहक दृश्य। एक पुरुष, एक नारी चुम्बकीय आकर्षण से एक-दूसरे को देख रहे थे-सम्पूर्ण चैतन्य को जाग्रत् करते हुए।
कितने दिन हो गये। सत्ताईस वर्षों का अन्तराल ! इस बीच एक या दो बार देखा-देखी हुई थी लेकिन वह भी घड़ी भर के लिए।

तब उनके बीच अलगाव का समय वही हुआ न ! वही, लगभग सत्ताईस वर्ष। सिनेमा के किसी ठहरे दृश्य की तरह वे दोनों आमने-सामने स्थिर खड़े थे। एकदम जाना-पहचाना-सा चेहरा बाहर झाँकने को तैयार। तब क्या ! तब !
‘‘विमान ! तुम यहाँ ? कैसे आये और कहाँ से आ रहे हो ?’’स्वाभाविक हँसी हँसते हुए मन्दिरा ने पूछा।
पुरुष मंच का वह अभिनेता चौंक गया। ‘‘मनि, ओ मनि ! यह तुम्हीं हो न ! इस बेकार-सी जगह में अकेली...तुम...!’’ उसकी आवाज में कम्पन था।
उस कम्पन में शराब का नशा भी शामिल था। शायद तभी आवेग में तेजी थी-कुछ ज्यादा अस्वाभाविकता और अस्थिरता थी।.... जिसे कहा जा सकता है कम्पलीटली अलकोहल एक्साइटमेण्ट।
‘‘विमान! वैसे, तुम्हें यहाँ का पता दिया किसने ? प्रवीर ने ?’’

इस अप्रस्तुत भविष्य ने मन्दिरा को झकझोरा था। उम्र की इस दहलीज पर हल्का-सा उठता हुआ बेमानी तूफान भी कम शक्तिशाली नहीं होता और न उस पर डाला गया उत्तरदायित्व ही कम महत्वपूर्ण होता है। ये तूफान जीवन के लक्ष्य को तोड़ने-फोड़ने और भटकाने में पूरी तरह समर्थ और सक्षम हैं और हर पल जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं।
इनकी उठा-पटक से उठता उफान, जीवन को समुद्री रेतकणों की तरह तूफानी लहरों में समाहित कर देता है। टुकड़े-टुकड़े जीवन की साँसें, समुद्री फेन की तरह इधर-उधर तिरती, निपट अकेली नजर आती हैं तब। इसे जानते हुए ही-सत्ताईस सालों के बाद आने वाले इस तूफान के परिणाम से बचने के लिए ही मन्दिरा के सवाल में नरक का एहसास शामिल था।
विमान ने पलटकर दूसरा सवाल किया, ‘‘एम आई नॉट वेलकम हेयर ? लगता है मेरा आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा...ठीक है...मैं लौट जाता हूँ।’’
मन्दिरा तब तक सँभल चुकी थी। विमान का हाथ पकड़ती हुई बोली, ‘‘आह !’’
अन्दर तो आओ...।’’
लेकिन विमान ने मन्दिरा का हाथ झटकते हुए उसे बाहुपाश में भरकर रोते हुए पूछा, ‘‘मनि...ओ डियर मनि ! तुमने मुझे इतनी दूर क्यों कर दिया ? इतनी दूर...कि कोई अता-पता नहीं और न मेरी कोई चिन्ता। दो महीने से मैं...’’
वह रुदन नहीं...क्रन्दन था। अन्तर का आर्तनाद। विमान से अलग हो मन्दिरा छायामूर्ति-सी खामोश खड़ी थी। लालटेन नीचे रखने का समय भी विमान ने नहीं दिया। सब कुछ अचानक अप्रत्याशित घट गया। उसके उतावलेपन से वह असंयमित हो चुकी थी। कहना चाहती थी कुछ लेकिन कह न पायी।
कहती भी तो किसे ! विमान की जो हालत थी, उसमें कहना न कहना, सब जैसे बराबर ही था। समझाया तो उसे जा सकता है न, जो अपने होश में हो। लेकिन जब व्यक्ति शराब के नशे में अपनी सुध-बुध खो चुका हो तो बहस करना बेकार होता है, यह वह विलायत में रहकर जान चुकी थी।
अवहेलना चाहकर भी नहीं की उसने। बच्चे की तरह उसे सान्त्वना देते हुए और विमान की पीठ थपथपाते हुए बोली, ‘‘कमाल करते हो...यू आर मोस्ट वेलकम। तुम्हें अता-पता नहीं देती, ऐसा हो सकता था भला ! पहले अन्दर चलो। ढेर सारी बातें करनी हैं तुमसे...’’
विमान के बाहु-बन्धन से बाहर आते ही गेट की ओर देखते हुए पुकार उठी, ‘एई प्रवीर, चोर की तरह वहाँ छुपा क्या कर रहा है ? इधर आ।’’

प्रवीर...मन्दिरा का मौसेरा भाई। दो-तीन दिन पहले ही कलकत्ता के बागड़ी मार्केट में उससे भेंट हो गयी थी। दस-बारह वर्षों बाद का यह साक्षात्कार दोनों को सचमुच अचम्भित कर गया था।
मन्दिरा बाथरूम के लिए कुछ फिटिंग्स खरीद रही थी और प्रवीर ने जब उसे देखा तो इस सोच में पड़ गया-यह मन्दिरा दी ही है न ! लेकिन मन्दिरा दी-बागड़ी मार्केट में अकेली...! असम्भव।’’
अँधेरे से बाहर आते हुए प्रवीर के चेहरे पर अपराधी की भंगिमा।
‘‘विमान दा ने बहुत जिद की मन्दिरा दी, तभी मुझे जबरदस्ती यहाँ ले आये। नाराज मत होओ, तुमने किसी को भी गाँव की इस जगह का अता-पता बताने की मनाही की थी-बट आई सपोज...विमान दा को यह सब बताकर मैंने कोई अपराध नहीं किया। आखिर वह तुम्हारा पुराना दोस्त...’’ कहते-कहते प्रवीर के चेहरे पर जो भाव आया, वह कुल मिलाकर अपराधी का-सा भाव नहीं था। जो था, वह पूरी तरह शर्म और सलीके वाला न भी हो लेकिन उससे ही मिलता-जुलता जरूर था।
बरामदे में दो-चार कुर्सियाँ थीं। बाहर की कौतूहल भरी भीड़ को देखते हुए मन्दिरा दोनों को कमरे में लिवा ले आयी। शान्ति एकटक सब कुछ देख रही थी। मन्दिरा ने उससे कहा, ‘‘देख शान्ति, तू बाहर जाकर उन लोगों से कह आ कि मेरा भाई और बन्धु आये हैं- अपने ही लोग हैं-डरने की कोई बात नहीं। ’’
शान्ति फुदकती हुई बाहर चली गयी।

इस बीच आकाश भी बूँद-बूँद टपक रहा था। मन्दिरा की टीन की छत पर टपकती बूँदों की आवाज कौवों के फुदकने का एहसास पैदा कर देती थी और वही बूँदें जब बौछार की तरह पड़ने लगती थीं तो लन्दन हाल के कानसर्ट बजने का-सा स्वर सुनाई पड़ता था।
मन्दिरा दोनों अतिथियों की आवभगत में कुर्सी खुद ही उठाकर अन्दर ले आयी।
विमान के अचानक आ जाने से अवाक् होकर संज्ञाशून्य स्थिति से वह बाहर आ गयी थी। कम्पलीटली नार्मल-अपने अभ्यस्त जीवन के बीच।
मन्दिरा के हाथ में लालटेन थी और टेबल पर बैटरी की जलती हुई ट्यूब लाइट। कमरे में इतनी तो रोशनी थी ही कि दोनों एक-दूसरे के चेहरे को पढ़ सकें।
कमरे का निरीक्षण करते हुए विमान पूछ बैठा, ‘‘तो यह है विलायत रिटर्न मन्दिरा मेमसाब की पनाहगाह...बहुत खूब ! एक्सेलेण्ट। तुम यहाँ रह पाओगी ? यह फैसला तुमने किस बलबूते पर किया ? यह जानने का अधिकार तो है मुझे। ’’
‘‘विमान बाबू, यह जगह मैंने खुद चुनी है। यह किसी सजा में नहीं मिली मुझे। वैसे खराबी क्या है इसमें ? बारह बाई अठारह.... मेरे शरीर को फैलाने के लिए यह काफी नहीं क्या ?’’
‘‘नो जोक्स। न पंखा, न एयरकण्डीशन। इतनी गर्मी में कैसे रह पाती हो ? उन सब चीजों के आराम की तुम्हें आदत थी। तकलीफ नहीं होती ? ’’
‘‘एक सुख की कमी कभी दूसरे दुख का कारण नहीं बनती। उलटा वह एक नये और अनजाने सुख या तृप्ति को जन्म देती है। इसे शायद तुम न समझ पाओ, विमान।’’ मन्दिरा हँस पड़ी।
मन्दिरा की हँसी ने विमान के अहं को आहत कर दिया। उसने उसे तनिक धमकाते हुए कहा, ‘‘मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश मत करो, मन्दिरा। तुम इस गाडडैम विलेज में, वह भी टीन के घर में , बिना लाइट, बिना किसी सुविधा के यहाँ रहने क्यों चली आयी ?’’
मन्दिरा के होठों पर मुस्कराहट ज्यों की त्यों बरकरार थी।

‘‘अँग्रेजी में तुम्हारे इस सवाल का जवाब होता है, ‘विदाउट परपज़’। फ्रैंच में कहते हैं ‘पार्सक’ और बँगला में कहा जाता है ‘एमनिई’ और हिन्दी में कहेंगे ‘सनक’। और इस सनक की इज्ज्त के लिए जिस आत्म-विश्वास की जरूरत होती है न, वह मुझमें है। इसलिए डर काहे का ! काहे की नाराजगी ! फिर सब व्यक्तिगत सवालों के जवाब भी होते हैं भला !’’ विमान की आँख से आँख मिलाते हुए मन्दिरा ने पूछा।’’
स्तब्ध प्रवीर बेचारा निरुत्तर सब कुछ सुनने को...झेलने को मजबूर था।
‘‘विमान दा, तुम्हें तो पहले बता दिया था, दीदी यहाँ क्यों आयी थी। तुम्हें तो यह भी बता दिया था कि लन्दन वाला मकान भी बेच दिया है- है न दीदी ?’’
इस प्रश्न का उत्तर न देते हुए मन्दिरा ने पलटकर खुद सवाल किया, ‘‘रात बहुत हो गयी है। कुछ खाया-वाया भी है तुम दोनों ने ?’’
‘‘हमारे लिए तुम्हें खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं माँ अन्नपूर्णा-गाड़ी में मांस और तन्दूरी रोटी रखी हुई है। प्रवीर, जा तो भाई, जल्दी से ले आ ताकि तुम्हारी दीदी परेशान न हो। ’’ आखिरी वाक्य कहते-कहते विमान की आवाज खीजभरी झुँझलाहट में डूब गयी थी।
‘‘बारिश हो रही है, थमने पर ले आऊँगा।’’ प्रवीर ने पलटकर कहा।
विमान के स्वाभिमान को हल्की-सी चोट जरूर लगी। कुछ न कह पाने की स्थिति में उसने सिगरेट जला ली। मन ज्यों का त्यों भटक रहा था। कोट की जेब से व्हिस्की की बोतल बाहर करते हुए बोला, ‘‘गिलास दो। तुम्हारे साथ यहाँ कोई और भी रहता है ?’’

‘‘किसी और का रहना जरूरी है क्या ?... नहीं, कोई नहीं रहता। सिवाय शान्ति के। लेकिन यहाँ शबार-वराब मत पीओ विमान...प्लीज !’’
विमान के जैसे आग लग गयी। ‘‘क्यों ? यह क्या कोई तीर्थस्थान है... मन्दिर-वन्दिर जैसा ? या सम काइण्ड ऑफ रेलिजस मानेस्टरी-जो यहाँ शराब पीने की मनाही है ?’’
‘‘क्या ऊल-जलूल बके जा रहे हो ! गाँव के लोग इस तरह के खुल्लम-खुल्ला दृश्य देखने के आदी नहीं होते,’’ मन्दिरा ने बड़ी नरम आवाज़ में कहा।
‘‘ब्रेवो ! मैं अन्धा नहीं हूँ। रास्ते भर देखता आया हूँ, किस तरह खुल्लम-खुल्ला ताड़ी का कारोबार चल रहा था। और तुम्हारे गाँव के लोग मांस-मछली नहीं खाते ? शराब नहीं पीते हैं ?... लेकिन मैं सफाई क्यों दे रहा हूँ। यहाँ किसे क्या पसन्द है, कौन क्या खाना पीना पसन्द करता है-आई डैम केयर। तुम गिलास नहीं देना चाहती, ओके, मत दो। मैं नीट ही पी लूँगा।’’
‘‘विमान दा, यह क्या पागलपन है !’’ प्रवीर के स्वर में उकताहट थी। ‘‘यहाँ आने के पहले भी तुम एक छोटी बोतल खत्म कर चुके हो।’’
‘‘शट अप। आई कैन स्टैण्ड मोर दैन ट्वैण्टी पैग्ज।’’
‘‘दुहाई है विमान ! सही और गलत के घुले-मिले में फर्क कर पाना तुम्हारी समझ के बाहर क्यों है ! मैं गिलास और जल ला देती हूँ...जितना चाहो, पीओ। लेकिन प्लीज नीट मत पीओ।’’ मन्दिरा ने भय भरी विनती की।
मन्दिरा को रात-बे-रात प्यास लगती है इसलिए शान्ति रोज रात उसकी चारपाई के नीचे काँच के जग में पानी भरकर और उसे लेसदार जाली से ढककर रख देती थी।

आज भी भरा हुआ जग और गिलास वहाँ रखा हुआ था। मन्दिरा ने वही जग और जल विमान के सामने रख दिया।
‘‘सिर्फ एक गिलास। प्रवीर तो पीता नहीं, कमबख्त सिगरेट भी नहीं पीता। स्साला टीटोलर। लेकिन तुम तो मुझे कम्पनी दे सकती हो। जाओ, एक गिलास और ले आओ-खूब जमेगी, जब मिल बैठेंगे दो दीवाने। कहीं श्रीमती मन्दिरा जी गाँव आकर शराब-कवाब छोड़कर संन्यासिनी तो नहीं बन गयी हैं ?’’
मन्दिरा पल-भर को विमान को देखने के बाद बोली, ‘‘मैंने कभी शराब पी थी जो आज पीऊँगी ? हाँ, कभी पी है तो बेमन से थोड़ी-सी वाइन।’’
‘‘बकवास ! सब झूठ है... तुम्हारा ओढ़ा हुआ ढोंग ! मैंने अपनी आँखों से तुम्हें डॉक्टर की पार्टी में पीते देखा था- एट्टी टू में।’’
‘‘एट्टी टू नहीं-एट्टी थ्री...मार्च। डॉ. सेन की पार्टी में तुम्हारी एक झलक भर देखी थी। उस दिन जरा-सी शैम्पेन ही तो चखी थी मैंने। व्हिस्की जैसी हार्ड ड्रिंक न मैं कभी पी पायी और न कभी पीना ही चाहती हूँ विमान !’’
विमान ने गिलास में पटियाला पेग डाला। गिलास को पानी से भरकर सिप लेते हुए, दीवार की ओर उदासीन नजरों से देखते हुए, बात को आगे बढ़ाते हुए बोला, ‘‘जानती हो, उस दिन लन्दन में डॉ. सेन के साथ भेंट अचानक हो गयी। उस दिन मैं दूसरे डाक्टर की सर्जरी को अटेण्ड करने गया था। और वहाँ मिल गये डॉ. सेन...। डॉ. सेन का नाता मेरी ससुराल से भी है। सो उन्होंने अपनी पार्टी में मुझे भी आमन्त्रित किया था।’’ सच मानो मनि, यदि मुझे पता होता, तुम वहाँ आओगी तो कभी नहीं जाता। उस दिन तुमने मुझसे ठीक से बातें भी नहीं कीं। तुम अपने देवता पति के साथ थी न शायद। इसी नाते। है न ! आई नेवर ट्राइड टू लुक यू अप, नेवर ट्राइड टू इण्ट्रोड्यूस...’’

‘‘मेरे देवता पति किसी भी पार्टी में जाकर और लोगों से मिलने-जुलने, बातचीत करने में इतने व्यस्त हो जाते थे कि मेरी ओर ध्यान देने का वक्त उन्हें कभी नहीं मिला। उस लिए नहीं। उस दिन...’’ मन्दिरा कहते-कहते अचानक चुप हो गयी। पिछले अनुभव को दोहराने से क्या लाभ।
विमान उसकी ओर उत्सुकता भरी आँखों से देख रहा था। मंदिरा ने बात को पलटते हुए कहा, ‘‘तुम लोग कलकत्ता से कब रवाना हुए थे ? यहाँ से वापस जाने में बहुत रात हो जायगी।’’
‘‘लगता है तुम हमें यहाँ से भगाने को बेताब हो, मनि।’’
‘‘दीदी, मैं तो गाड़ी चलाता नहीं। विमान दा ड्राइव करेंगे। इतनी ड्रिंक, ऊपर से ऊबड़ खाबड़ रास्ता। बहुत रिस्क है। आज रात तो हमें यहीं ठहरना होगा।’’ प्रवीर ने कहा।
‘‘ यहाँ रहोगे कहाँ ? बस एक ही कमरा तो है यहाँ !’’
‘‘मैं तो गाड़ी में सो जाऊँगा। कोई असुविधा नहीं होगी, दीदी।’’ प्रवीर ने सलाह दी।
चारपाई पर नीली मच्छरदानी को ओर देखते हुए विमान ने पूछा, ‘‘मनि, तुम्हारा पति से सचमुच अलगाव हो गया है ? डाईवोर्स या सेपरेशन ?’’

इससे पहले कि मंदिरा उत्तर दे, प्रवीर बोला, ‘‘तलाक। यह बात तो मैं दीदी से मिलने से पहले जान चुका था। लेकिन छोटी दीदी लन्दन छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए भारत आ गयीं हैं—यह नहीं जानता था।’’
विमान ने खीझ में भरकर पूछा, ‘‘मनि, अभी तक मुझे एक बात समझ में नहीं आयी। जब लंदन छोड़ तुम्हें आना ही पड़ा था तो तुमने इस तरह के सड़े-गले गाँव में रहने का फैसला क्यों किया ? कलकत्ता में तुम्हारे रहने के लिए क्या ढंग की जगह नहीं मिलती ? इस देश में तुम्हारा कोई दोस्त यार नहीं ?’’
मन्दिरा हँस पड़ी।
‘‘कलकत्ता में रहने के लिए मुझे जगह कौन देता—बोलो तो ! बुढ़िया हो चली हूँ। परित्यक्ता औरत। रुपये पैसे भी जोड़ नहीं पायी। लोग मुझे एक भार ही समझते न ?’’
मन्दिरा की इस बात में रत्ती भर भी सच्चाई नहीं थी।
इसमें झूठ की गुंजाइश नहीं कि मन्दिरा का यौवन ढलने लगा था। लेकिन उम्र का असर कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता था। मुलायम चमड़ी, चेहरे पर चमक, बालों में भी सफेदी नहीं।
मन्दिरा बहुत सुन्दर कभी भी नहीं थी। लेकिन उसके चेहरे पर विशेष भाव था, जिसकी वजह से जब वह बातें करती थी, तो उसकी बातें सुनने के साथ-साथ उसे देखते रहना अच्छा लगता था।
उसके पति ने उसका परित्याग नहीं किया था। लेकिन लंदन के बंधु-बान्धव को आश्चर्य में डालकर उसने खुद अकेले रहने का फैसला लिया था। यह अकारण नहीं था। उसके लिए नहीं, लोगों की नजर में वह अलगाव बेवजह था।
किसी समय के प्रसिद्ध भारत-बन्धु एवं लेबर पार्टी के नेता फेनर ब्रुक के अनुज-पुत्र टॉमस ब्रुक के साथ मन्दिरा का विवाह हुआ था।

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