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एक था फेंगाड्या

अरुण गद्रे

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1326
आईएसबीएन :81-263-1117-7

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मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री अरूण गद्रे को, जो पेशे से डॉक्टर भी हैं, की एक अद्भुत कृति...

Ek Tha Fengadaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

असभ्यता के विकास का इतिहास सद्भाव, मैत्री और संघटन पर आधारित रहा है। लाखों वर्ष गुफाओं में रहनेवाले आदिमानव ने भी अपनी संवेदनशीलता और साथ रहने की भावना के वशीभूत होकर अपने सामाजिक जीवन का प्रारम्भ और तात्कालिक चुनौतियों का सामना किया था। पहली बार किसी लाचार को सहारा देने और बीमार को स्वस्थ करने का विचार जिस मनुष्य के मन में आया, वहीं से मानसिक करूणा और एक दूसरे का सम्मान करने की संस्कृति प्रारम्भ हुई जिसने मानव को आज सभ्यता के शिखर तक पहुँचाया।

मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री अरूण गद्रे को, जो पेशे से डॉक्टर भी हैं, इस विचार ने ज्यादा रोमांचित किया कि किसी अपंग को उस युग के व्यक्ति ने किस प्रकार स्वस्थ किया होगा और एक नये प्रयोग का विचार उसके मस्तिष्क में कैसा आया होगा वह मनुष्य, वह हीरो, जिसके हृदय में पहली बार मैत्री और मदद का झरना फूटा होगा। तमाम सन्दर्भ ग्रन्थों के अध्ययन और अपनी साहित्यिक प्रतिभा से डॉ. गद्रे ने मराठी में इस अद्भुत कृति ‘एक था फेंगाडया ’ का सृजन किया।

यह उपन्यास मानवीय संवेदना, उसकी पारस्परिक तथा अग्रगामिता को विशेष तौर पर रेखांकित करता है। प्रागैतिहासिक काल की कथावस्तु पर केंन्द्रित इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक के मन में अनेक जिज्ञासाएँ पैदा होती हैं जिनका समाधान भी उपन्यास में मिलता चलता है। मराठी के इस उपन्यास को कुशलता से हिन्दी में अनूदित किया है प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती लीना महेंदले ने। आशा है हिन्दी के प्रबुद्ध पाठक उसका भरपूर स्वागत करेंगे।

अनुवादक के दो शब्द


हजारों वर्षों पहले जब आदिमानव गुफा में रहता था, जब उसने केवल आग जलाना और झुण्ड में रहना सीखा था लेकिन गिनती, खेती, वस्त्र, चित्रकला, जख्मी का इलाज आदि से भी कोसों दूर था, उस जमाने के मानव से आज के मानव तक के उन्नयन का इतिहास क्या है ?

प्रसिद्ध मानववंश शास्त्रज्ञ डॉ. मार्गरेट मीड अपने एक लेख में कहती हैं— A healed femur is the first sign of human civilization.’’

डॉ. मीड कहती हैं—उत्खननों में मानवों की कई हड्डियाँ मिली थीं, जो टूटी हुई थीं। ये वे लोग थे जिनकी हड्डियाँ जानवर के आक्रमण या अन्य दुर्घटना में टूटीं और इस प्रकार असहाय, रुद्धगति बना मनुष्य मौत का भक्ष्य हो गया। कई हड्डियाँ मिलीं जो अपने प्राकृतिक रूप में थीं—अखण्डित। ये वे मनुष्य थे जो हड्डी टूटने से लाचार होकर नहीं, वरन् अन्य कारणों से मरे थे। लेकिन कई सौ उत्खननों में, कई हजार हड्डियों में कभी एक हड्डी ऐसी मिली, जो टूटकर फिर जुड़ी हुई थी। यह तभी सम्भव था जब लाचार बने उस आदमी को किसी दूसरे आदमी ने चार-छह महीने सहारा दिया हो, खाना दिया हो, जिलाया हो। जब सबसे पहली बार ऐसा सहारा देने का विचार मनुष्य के मन में आया वहां से मानवीय संस्कृति की, करुणा की संस्कृति की, एक दूसरे की कदर करने की संस्कृति की शुरूआत हुई। जाँघ की टूटकर जुड़ी हुई हड्डी साक्षी है उस मनुष्य के अस्तित्व की, जिसमें करुणा की धारा, और उसे निभाने की क्षमता पहली बार फूटी।

डॉ. मीड के लेख को पढ़ने के बाद पेशे से डॉक्टर श्री अरुण गद्रे को लगा कि यह एक बड़े मार्मिक संक्रमण काल का चिह्न है। कैसा रहा होगा वह मनुष्य, वह हीरो, जिसके हृदय में पहली बार इस मैत्रीभाव और सहारे का झरना फूट होगा।
डॉक्टर गद्रे ने इस विषय पर डॉ. पॉल ब्रॅण्ड्ट से चर्चा की। ब्रॅण्ड्ट तीस वर्ष तक वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज में कुष्ठरोगियों के बीच रहे और उनके गले हुए हाथों पर सर्जरी की पद्धति विकसित करने के लिए वे प्रख्यात हैं। एक पत्र में ब्रॅण्ड्ट ने गद्रे को ऐसी ही दूसरी कहानी लिखी है—कोपेनहेगेन के एक म्यूजियम में छः सौ मानव कंकाल जतन कर रखे गये हैं। ये सारे कंकाल उन कुष्ठरोगियों के हैं जिन्हें पाँच सौ वर्ष पूर्व एक निर्जन द्वीप पर मरने के लिए छोड़ दिया गया था। इन सभी कंकालों के पैर की हड्डियाँ रोग के कारण घिसी हुई हैं।

लेकिन इनमें से कुछ कंकाल अलग रखे गए हैं क्योंकि उनकी पाँव की हड्डियों पर बाद में भर जाने के चिह्न स्पष्ट हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि कुछ मिशनरी उस द्वीप पर गये थे और जितना बन सका उन्होंने उन कुष्ठरोगियों की सेवा की। इसी से कुछ रोगियों के पैर की घिसी हड्डियाँ भर गयीं। वे अलग रखे गये कंकाल साक्षी हैं उन मिशनरियों की सेवा के।
डॉ. ब्रॅण्ड्ट से विचार विनमय के पश्चात ‘डॉ. गद्रे ने जिन संदर्भ-ग्रन्थों का पठन और मनन किया वे थे—‘‘दि असेण्ट ऑफ मॅन’, ‘कॅम्ब्रीज फील्ड गाइड टू प्रीहिस्टोरिक लाइफ’, ‘दि डॉन ऑफ अनिमल लाइफ’, ‘इमर्जन्स ऑफ मॅन’, तथा ‘गाइड टू फॉसिल मॅन।’

इन सभी के मन्थन और डॉ. गद्रे की अपनी साहित्यिक प्रतिभा से एक उपन्यास के जो चरित्र तैयार हुए वे थे फेंगाडया, बापजी और बाई के। उन्हीं से ताना-बाना बुना गया टोलियों और बस्तियों के बनने, उजड़ने और आगे बढ़ने का—मानव संस्कृति के विकास का। वही उतरा है मराठी उपन्यास ‘एक होता फेंगाडया’ में।

मराठी में यह उपन्यास 1995 में प्रकाशित हुआ। उसी वर्ष इसकी बड़ी जीवट वाली वृद्ध प्रकाशिका श्रीमती देशमुख से मैं मिली थी। तब तक मैं सिद्धहस्त अनुवादक के रूप में प्रसिद्ध हो गयी थी; क्योंकि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से कई कहानियाँ मैंने मराठी में अनूदित की थीं और उसी कथा-संग्रह का प्रकाशन देशमुख कम्पनी करनेवाली थी। चूँकि मेरी चुनी हुई कहानियों के कथानक नितान्त विभिन्न रंग-ढंग-इतिहास-भूगोल के थे, तो उसे मेरी रुचि जानकर मुझे यह पुस्तक पढ़ने के लिए कहा। अगले तीन दिनों में ही मेरे दिमाग में यह इच्छा दर्ज हो गयी कि इसका हिन्दी अनुवाद करना है। ऐसी ही इच्छा अन्य पाँच पुस्तकों के लिए है जिनपर मैंने अभी तक काम शुरू नहीं किया है। ज्ञानपीठ के श्री क्षोत्रीय से एक बार मैंने फेंगाडया की चर्चा की तो उनका आग्रह शुरू हो गया कि इसका अनुवाद जल्द से जल्द किया जाए।

फेंगाडया के कथानक में एक बड़ी कठिनाई यह है कि यह प्रागैतिहासिक काल से जुड़ी हुई रचना है। मैं नहीं जानती कि हिन्दी में रांगेय राघव जी के अलावा किसी ने इस प्रकार का प्रयास किया है। यह वह काल है जब मनुष्य ने खेती नहीं सीखी है, वस्त्र पहनना नहीं सीखा है, यहाँ तक कि पेड़ की छाल लपेटना भी नहीं। केवल बांस की खपच्चियों से बनी झोपड़ी का उपयोग सीखा। आग का उपयोग सीखा है। फिर भी कन्दरा और गुफा पूरी तरह से नहीं छूटी है। भाषा विकसित नहीं हुई है। फिर भी मनुष्य विकसित हो रहा है—उसमें एक ‘हीरोइक स्पिरिट’ है। नया सीखने की ललक है। कलाकार की प्रतिभा है, दार्शनिक का तत्त्व-चिन्तन है।

इसलिए उपन्यास में एक हीरो या एक हीरोइन नहीं है—कई हैं। एक फेंगाडया है जिसमें शक्ति-सामर्थ्य है, दूरदृष्टि है, करुणा है और अपने विश्वास के प्रति अडिगता है। एक पंगुल्या है जो खोजी है, वैज्ञानिक है, गणितज्ञ है। एक पायडया है जो कथाकार है, कलाकार है और संगीतकार है। एक बाई है जो नेता है, मार्गदर्शक है, अनुशासन और शासन करना जानती है। एक चाँदवी है जो किशोरवय की है और हर बार सवाल उठा सकती है—क्यों ? एक कोमल है जो अपनी समझदारी से सबके लिए आधार बनकर डटी है।
और एक बापजी है—जो सत्ता के खेल को अच्छी तरह समझ सकता है, खेल सकता है और अपनी विध्वंसक आकांक्षा के लिए मकड़जाल बुन सकता है। उस जाल को तोड़कर, समाज को विकास के अगले सोपान तक ले जाने वाला उपन्यास है--‘एक था फेंगाडया’।

उपन्यास का प्रकाशन भले ही इक्कीसवीं सदी का हो, लेकिन उसका घटनाकाल यदि दस पन्द्रह हजार वर्ष पुराना है तो उसकी भाषा कैसी होगी ? इसीलिए उपन्यास में जरूरत पड़ी कि इसका शब्द-भण्डार सीमित रखा जाय, सरल रखा जाय, और फिर भी अभिव्यक्ति पूरी हो। हाँ, पठन को नादमय और लयात्मक बनाने के लिए कुछ कठिन से लगनेवाले शब्दों को खौसतौर पर रखा गया है—जैसे ऋतुचक्र, मरण, मृतात्मा, सूर्यदेव।

उस काल में व्यक्तियों को नाम देने का चलन तो था (बिना नामों के उपन्यास कैसे बने ?) लेकिन उसका तरीका क्या हो सकता है ? तो सबसे सरल है कि व्यक्ति की देहयष्टि के अनुरूप नाम दिया जाय। और मराठी में यह चलन भी है कि किसी नाम को आदरपात्र बनाना हो तो अन्त में ‘बा’ लगे और उसे मित्रता या छोटेपन के भाव से जोड़ना हो तो ‘या’ लगे। इसीलिए कथानक के पात्रों के नाम बने—फेंगाडया, जो पाँवों को तिरछा फेंककर चलता है; पंगुल्या, जो पंगु है। वाघोबा, अर्थात् वाघ का भयकारी रूप। इन नामों को हिन्दी में भी वैसा ही रखा है।

आयुर्वेद की कुछेक मान्यताओं का प्रयोग भी इस उपन्यास में बखूबी हुआ है। मसलन, महाराष्ट्र में अब भी माना जाता है कि कुछ बच्चे जिनके जन्म के समय पैर पहले बाहर निकलते हैं और सिर बाद में, उनमें कुछ विशेषता होती है। उन्हें ‘पायडया’ कहा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी माना जाता है कि किसी औरत का बच्चा आसानी से पेट से न निकल रहा हो और कोई पायडया उसके पेट पर हल्की-सी लात मारे तो बच्चे का जन्म तुरन्त हो जाता है। सारे पायडया प्रायः कलाकार होते हैं। यह भी माना जाता है कि उन्हें जमीन के नीचे पानी होने का संकेत मिल जाता है, और धन के होने का भी। वे मान्यताएँ हजारों वर्षों से बनी हैं। लेखक ने इनका अच्छा उपयोग उपन्यास में किया है।

उपन्यास में सारे भाव, सारे रसों की सृष्टि आखिरकार शब्दों से ही होती है। और इस उपन्यास का शब्द-भण्डार सीमित है। इसीलिए कई ध्वन्यात्मक शब्दों को मैंने मराठी से ज्यों-का-त्यों लिया है—मराठी मूलतः एक कठिन स्वरोच्चारों की भाषा है जबकि हिन्दी मृदु स्वरोच्चारों की। उसमें कभी-कभी शौर्य, क्रूरता, अक्खड़पन जैसे भावों को व्यक्त करने लायक कठिनता लिए हुए शब्द नहीं मिलते। इसी से मराठी शब्दों को रख लिया। पहली बार उन्हें पढ़ना थोड़ा अटपटा जरूर लगता है, लेकिन दूसरी, तीसरी बार पढ़ते पढ़ते उनके अर्थ, उपयोगिता और सटीकता भी सामने आने लगती है। ये शब्द हिन्दी में इतने आसानी से घुल-मिल जाते हैं कि उनका अटपटापन समाप्त हो जाता है।

एक तो प्रागैतिहासिक काल की कथावस्तु पर केन्द्रित उपन्यास, तिस पर एक खास अन्थ्रोपोलॉजिकल तथ्य को आधार बनाकर लिखा हआ, थोड़ा दूभर तो होगा ही; फिर भी मुझे विश्वास है कि हिन्दी के प्रबुद्ध पाठक इसका स्वागत करेंगे, क्योंकि किसी पाठक के मन में जिज्ञासा और नवीनता के लिए जो अकुलाहट होती है, यह उपन्यास उसका समाधान करता है।

लेखकीय


किसी पहाड़ी पर चढ़ें, उखड़ी हुई साँस को सामान्य करने के लिए क्षणभर रुकें और अनायास नीचे देखें और फिर दूसरे से कहें—‘देखो ! क्या तुम झाड़ियों में छिपे मार्गदर्शकपट्ट को देख सकते हो ? वह वही मार्गपट्ट है जिसमें चढ़ाई आरम्भ होने की सूचना दी गयी थीं। उस स्थल से आगे हम तेजी से ऊपर चढ़ने लगे थे। और देखो, कितनी जल्दी हम इतनी दूर आ गये हैं ! ‘ए टेल ऑफ फेंगाडया’ नामक इस उपन्यास के पढ़ते समय किसी के भी मस्तिष्क में ऐसे विचार आ सकते हैं।

इस पृथ्वी पर मानवसंस्कृति सर्वत्र फैली हुई है। गत तीस-चालीस हज़ार वर्षों की अवधि में इसने अपने अस्तित्व या मौजूदगी के अनेक संकेत पीछे छोड़ दिये हैं। इन संकेतों में कुछेक संकेत इसकी पशुता के संकेतों के अलावा और कुछ नहीं हैं। लेकिन निश्चित रूप से कुछ संकेत उसकी मानवता से सीधा सम्बन्ध रखते हैं।

विशेषरूप से, इतिहास में किस मनुष्य को अपनी मनुष्यता का सबसे पहले बोध हुआ ? जब उसे इसका बोध हुआ तो उसने कैसे इसे स्वीकार किया ? उसके भीतर के पशु को उसकी मनुष्यता के बारे में कैसे अहसास हुआ ? यह उपन्यास इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करता है।

इस उपन्यास की विषयवस्तु मेरे मस्तिष्क में उस समय कौंधी जब मैंने एक ईसाई धर्मप्रचारक चिकित्सक डॉ. पाल ब्रॅण्ड्ट द्वारा उद्धृत अंश पढ़ा। डॉ. ब्राण्ड ने वेल्लोर मेडिकल कॉलेज, भारत में कुष्ठ रोग के क्षेत्र में कार्य किया है। अपनी पुस्तक ‘फियरफुली ऐण्ड वण्डरफुली मेड’ में ‘अस्थि’ विषय पर एक अध्याय उन्होंने बहुत सुन्दर लिखा है। इसमें उन्होंने एक सामाजिक नृतत्त्ववेत्ता डॉ. मार्गरेट मीड को उद्धृत किया है। जब एक रिपोर्टर ने डॉ. मार्गरेट से प्रश्न किया कि उत्खनन करते हुए आप कब यह घोषित करेंगे कि मानव सभ्यता किस समय विशेष पर आरम्भ हुई तो उनका उत्तर था—जब उत्खनन में सड़कें, बरतन, निर्मित ढाँचे मिले उस समय नहीं, बल्कि जब मुझे स्वस्थ उरु-अस्थि मिली तो मैंने घोषणा की यहाँ मानव-सभ्यता आरम्भ हो चुकी है। डॉ. मार्गरेट मीड के इस विशिष्ट उत्तर ने मुझे आकर्षित किया।

चिकित्सा पेशे से जुड़े होने के कारण में इस वक्तव्य का महत्व तुरन्त समझा गया। तीस-चालीस हजार वर्ष पूर्व जब मनुष्य जंगल में रहता था, जब वह अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा था, जब अपने भोजन के लिए उसे स्वयं शिकार करना पड़ता था, उस समय यह भलीभाँति मान्य नियम था कि घायल व्यक्ति को पीछे छोड़ दो और आगे बढ़ जाओ इसलिए उत्खनन में बाद में हमें या तो अखण्डित उरु-अस्थियाँ मिलती है या टूटी हुई।

तथापि जब हमें उपचार से ठीक हुई उरु-अस्थि मिलती है तो उसका अर्थ यह होता है कि किसी व्यक्ति ने वास्तव में घायल व्यक्ति को उठाकर गुफा में छोड़ दिया था। उसने घायल व्यक्ति के लिए शिकार किया था। उसने कम-से-कम छः माह के लिए घायल व्यक्ति का भरण-पोषण किया था। अतः उस घायल व्यक्ति की टूटी हुई ऊरु अस्थि का घाव भर पाया था। और इस आश्चर्य जनक घटना का पता आधुनिक व्यक्ति द्वारा रची गयी खुदाई से चला। मुझे आश्चर्य होने लगा, वह कौन व्यक्ति था ? वह सामान्य स्वीकृत नियम के विरुद्ध कैसे खड़ा हुआ ?

जो उपन्यास तैयार हुआ उसकी विशेषता अनूठी है। सबसे पहले इसकी लघुता है। वाक्य छोटे और स्फूर्तिदायक है। संक्षेप में यह उपन्यास एक समय विशेष की चौहद्दी में एक ही स्थान पर देश, काल और अनेक संस्कृतियों का संगम बन गया।
पात्रों के नाम विचित्र और अनूठे जान पड़े। इन्हें आज के नामों से भिन्न होना ही चाहिए। वे नाम जो शारीरिक आकृति से सम्बद्ध है, महत्वपूर्ण है उदाहरण के लिए लँगड़े का नाम लेमियो। लांगलैगी नाम लम्बी टाँगों वाले व्यक्ति का सूचक है।
इस प्रक्रिया में यह उपन्यास ऐतिहासिक की अपेक्षा प्रागैतिहासिक बन गया। सामाजिक के स्थान पर यह सामाजिकता-पूर्व उपन्यास हो गया।

यह उपन्यास एक प्रकार का काव्यात्मक सत्य बन गया है।
नोबेल पुरस्कार विजेता पीटर मेडवार की टिप्पणी है—‘काव्यात्मक सत्य को एक सुस्पष्ट, पृथक और समानान्तर सत्य के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। इसकी वैज्ञानिक सत्य या वास्तविक यथार्थ के साथ तुलना नहीं की जा सकती। अनेक विकल्पों में से एक विकल्प होने के नाते काव्यात्मक सत्य हमें एक पूर्णता भिन्न जगत में प्रवेश करने में सहायता प्रदान करता है और वास्तविकता को एक भिन्न परिप्रेक्ष्य में देखने में हमारी सहायता करता है। वास्तविकता या यथार्थ के बारे में यह हमारी समझ को समृद्ध बनाता है।’

‘ए टेल ऑफ फेंगाडया’ नाम इस उपन्यास में चित्रित और व्यक्त इतिहास भी एक प्रकार के काव्यात्मक शब्द है। डॉ. मार्गरेट मीड का दावा, जो इस उपन्यास के लिए प्रेरक बिन्दु सिद्ध हुआ, भविष्य में किसी अन्य अध्ययन द्वारा पुराना पड़ा चुका था अप्रासांगिक घोषित किया जा सकता है, किन्तु इससे उपन्यास के काव्यात्मक सत्य को नकारा नहीं जा सकता। यह काव्यात्मक सत्य अब स्वयं में एक स्वतंत्र सत्ता बन चुका है।

एक लेखक के नाते मैं कह सकता हूँ कि उपन्यास की सफलता निम्नलिखित अनुभूति में निहित है :
यदि उपन्यास पढ़ लेने के उपरान्त पाठक क्षण भर के लिए आश्चर्य करता है कि—
आज मैं कहाँ खड़ा हूँ ? क्या मैं धानबस्ती में हूँ ? या फेंगाडया की गुफा से बाहर नहीं निकल पाया हूँ ? या मैं आज भी मनुष्यभक्षी बाघोबा टोली में जी रहा हूँ ?

प्रत्येक व्यक्ति जे. ब्रानोव्स्की की वैज्ञानिक कृति ‘द एसेंट’ से परिचित है।
विनम्रता पूर्वक यह दावा कर सकता हूँ कि मैंने इस उपन्यास ‘ए टेल ऑफ फेंगाडया’ के रूप में ‘एसेंट ऑफ मैंन’ का एक छोटा साहित्यिक भाग लिखा है।

अरुण गद्रे


उपोद्घात


सहस्रों ऋतुचक्रों के पहले पृथ्वी तल पर भटकने वाले आदिमानव के पहले पगचिह्न।
असीम जंगलों में बाघ, वराह, भैंसे आदि हिंस्र पशुओं का राज। उन्हीं जंगलों में अपने आपको जिलाए रखने को धड़पड़ाता मानव-समूह।

आग की खोज हो चुकी है, बाँस को बाँस से मिलाकर एक आसरा ‘झोपड़ी’ के नाम से खड़ा किया जा सकता है। लेकिन स्थायी सुरक्षा के लिए अब भी पहाड़ियों की नैसर्गिक गुफाएँ ही अच्छी हैं।
मानव अब टोली में रहने लगा है, लेकिन अकेला भी तो रहता है। अकेला आदमी, अकेली स्त्री। तब स्त्री के प्रचलित शब्द है—सू। वे अपनी-अपनी स्वतंत्रता में जी रहे हैं।

‘समाज’ नामक सुनियोजित व्यवस्था का जन्म अभी नहीं हुआ है, लेकिन उसकी आहट आ रही है। टोलियाँ बन रही हैं, उनके नियम बन रहे हैं—मानव-कल्पना छलाँग लगाकर देव-देवता, भूत, शैतान तक पहुँच चुकी है। टोलियों में जीवन अधिक सुरक्षित है। यही सुरक्षा-भावना अकेले भटकने वाले पुरुष को, सू को इशारा कर रही है—आ जाओ, तुम्हारा भी स्वागत होगा।

लेकिन समूह की ओर जाने वाली दिशा को जान-बूझकर ठुकराते हुए कई पुरुष और कई सू आज भी अकेले-अकेले ही जी रहे हैं। कभी-कभी वे दो-तीन-चार मिलकर भी रहने लगते हैं, लेकिन टोली में भिन्नता बनाये रखने का निश्चय लेकर। कई सू अकेली रह जाती हैं—बच्चे जन रही हैं, उन्हें पाल रही हैं, उन्हें बड़ा कर रही हैं। आगे वे बच्चे जो भी निर्णय स्वीकारना चाहें—अकेले, स्वतन्त्र रहने या छोटे गुट में रहने या टोलीगत जीवन जीने का।

लेकिन संघर्ष जारी है, उससे अभी पीछा नहीं छूटेगा। यह संघर्ष अभी हजारों वर्षों तक चलेगा। मानव चाहे अकेला हो, या गुट में या बड़ी टोली में, उसे अभी लड़ना है—भूख से और मृत्यु से। भूख आती है हर रोज नये आवेग से। मृ्त्यु आती है किसी बाघ, वराह या भैंसे के रूप में।

मानव का संघर्ष जारी है..इसी कालखण्ड में हमारा कथानक घटित हो रहा है, एक नदी-सहारे बन रहे समाज में। उसी के आसपास की टोलियाँ और गुटों में।
वह नदी विशेष है।
उसके किनारे पर कुछ वर्षों से एक बिल्कुल ही अलग तरह का समाज पलने लगा है। विचित्र नाम है उसका, और विचित्र हैं उसकी रीतियाँ।
नाम है उसका धानबस्ती।

नदी किनारे है एक अलग तरह की जमीन। मृदुल, उपजाऊ।
उपजाऊ ?
हाँ, और नरम। वहाँ उग रहा है...धान।
उग रहा है ?
धान ?
क्या हैं ये सारे शब्द ?

यह है मानवजाति का अगला कदम। दो-तीन हजार वर्षों में सारी मानवजाति इसी दिशा में जाने वाली है।
यहाँ प्रमुख है एक स्त्री...एक सू। धानबस्ती में सबका स्वागत है। निश्चय ही, धानबस्ती की खबर फैल रही है। दूर-दूर तक के समूहों में इसके किस्से जा चुके हैं। कोई आश्वस्त है तो कोई चकित और कोई संशयग्रस्त।

धानबस्ती को अपनी दायीं ओर रखते हुए नदी आगे एक विशाल डोह में समा गयी है, जो एक पहाड़ की तलहटी में है। उसका रास्ता रुक गया तो वह पूरी-की पूरी उलटी घूम गयी, अगला मार्ग ढूँढ़ते हुए। उसके साथ-साथ चलना हो तो धानबस्ती को पहले पहाड़ पर चढ़ना होगा। लेकिन अभीलोग तलहटी में ही टिकना चाहते हैं, वहीं अपनी जड़ें समाना फिलहाल सही है।

धानबस्ती से दूर...बहुत दूर, डूब-डूब दिशा में बाघी टोली भी है। नरभक्षक बाघी टोली। दो-चार ऋतुचक्रों के बीतते-बीतते यह टोली धीरे-धीरे उदेती की ओर सरक रही है। नये शिकार और नयी नरबलि की खोज में। हर नचन्दी रात को (जब चन्द्रमा न हो, अमावस्या) एक नरबलि देने की प्रथा है इनकी।

दोनों टोलियों के बीच है विस्तीर्ण पहाड़ी भू-भाग-जंगल, झाड़, नदी, गुफाएँ, उनमें बसे अन्य मनुष्य—कोई एकाकी, कोई दो-तीन के गुटों में। बाघ, वराह और भैंसों से जूझते हुए, हिरन खरगोश का शिकार करते हुए, मृत्यु को धता बताते हुए, जीवन का हुंकार भरते हुए।

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