जीवन कथाएँ >> महात्मा गांधी : जीवन और दर्शन महात्मा गांधी : जीवन और दर्शनरोमां रोलां
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सत्याग्रह' शब्द का आविष्कार गांधीजी ने तब किया था, जब वे अफ्रीका में थे-उद्देश्य था अपनी कर्म- साधना के साथ निष्कि्रय-प्रतिरोध का भेद स्पष्ट करना
'सत्याग्रह' शब्द का आविष्कार गांधीजी ने तब किया था, जब वे अफ्रीका में थे-उद्देश्य था अपनी कर्म- साधना के साथ निष्कि्रय-प्रतिरोध का भेद स्पष्ट करना। यूरोपवाले गांधी के आदोलन को 'निष्क्रिय प्रतिरोध' (अथवा अप्रतिरोध) के रूप में समझना चाहते हैं, जबकि इससे बड़ी गलती दूसरी नहीं हो सकती। निष्कियता के लिए इस अदम्य योद्धा के मन में जितनी पूणा है, उतनी संसार के किसी दूसरे व्यक्ति में नहीं होगी-ऐसे वीर 'अप्रतिरोधी' का दृष्टांत संसार में सचमुच विरल है। उनके दोलन का सार तत्व है- 'सक्रिय प्रतिरोध', जिसने अपने प्रेम, विश्वास और आत्मत्याग की तीन सम्मिलित शक्तियों के साथ 'सत्याग्रह' की संज्ञा धारण की है।
कायर मानो उनकी छाया भी नहीं छूना चाहता, उसे वे देश से बाहर निकालकर रहेंगे। आलसी और अकर्मण्य की अपेक्षा वह अच्छा है, जो हिंसा से प्रेरित है। गांधी जी कहते हैं- ' 'यदि कायरता और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो तो मैं हिंसा को ही पसंद करूँगा। दूसरे को न मारकर स्वयं ही मरने का जो धीरतापूर्ण साहस है, मैं उसी की साधना करता हूँ। लेकिन जिसमें ऐसा साहस नहीं है, वह भी भागते हुए लज्जाजनक मृत्यु का वरण न करे-मैं तो कहूँगा, बल्कि वह मरने के साथ मारने की भी कोशिश करे; क्योंकि जो इस तरह भागता है, वह अपने मन पर अन्याय करता है। वह इसलिए भागता है कि मारते- मारते मरने का साहस उसमें नहीं है। एक समूची जाति के निस्तेज होने की अपेक्षा मैं हिंसा को हजार बार अच्छा समझूँगा। भारत स्वयं ही अपने अपमान का पंगु साक्षी बनकर बैठा रहे, इसके बदले अगर हाथों में हथियार उठा लेने को तैयार हो तो इसे मैं बहुत अधिक पसंद करूँगा।'
बाद में गांधी जी ने इतना और जोड़ दिया- ' 'मैं जानता हूँ कि हिंसा की अपेक्षा अहिंसा कई गुनी अच्छी है। यह भी जानता हूँ कि दंड की अपेक्षा क्षमा अधिक शक्तिशाली है। क्षमा सैनिक की शोभा है लेकिन क्षमा तभी सार्थक है, जब शक्ति होते हुए भी दंड नहीं दिया जाता। जो कमजोर है, उसकी क्षमा बेमानी है। मैं भारत को कमजोर नहीं मानता। तीस करोड़ भारतीय एक लाख अंग्रेजों के डर से हिम्मत न हारेंगे। इसके अलावा वास्तविक शक्ति शरीर-बल में नहीं होती, होती है अदम्य मन में। अन्याय के प्रति 'भले आदमी' की तरह आत्मसमर्पण का नाम अहिंसा नहीं है- अत्याचारी की प्रबल इच्छा के विरुद्ध अहिंसा केवल आत्मिक शक्ति से टिकती है। इसी तरह केवल एक मनुष्य के लिए भी समूचे साम्राज्य का विरोध करना और उसको गिराना संभव हो सकता है।''
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